|
14 सितम्बर 1949 को हिन्दी कोभारतीय संघ की राजभाषा बनाया गया। यह सौभाग्य का विषय है कि देश की जनभाषा हिन्दी को प्रथम बार देश की राजभाषा के रूप में संवैधानिक मान्यता दी गई। स्वतंत्रता के बाद देश में राज्यों का जो गठन किया गया वह भी भाषा के आधार पर हुआ। 14 प्रमुख भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में स्थान दिया गया जो आज बढ़कर 22 हो गई हैं।
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की राजभाषा हिन्दी को देश के उच्चतम न्यायालय में मान्यता नहीं है। उसी प्रकार केवल 4 राज्यों को छोड़कर, अन्य किसी भी राज्य की राजभाषा को वहां के उच्च न्यायालय में मान्यता नहीं है। यह वास्तविक लोकतंत्र है क्या? उन राज्यों की जनभाषा जो राजभाषा भी है, को वहां के उच्च न्यायालय में मान्यता न देना, उनके साथ धोर पक्षपात है। इसका कारण यह है कि वर्ष 1963 में पारित राजभाषा अधिनियम में सरकारी कायोंर्/ प्रयोजनों के लिए 26 जनवरी 1965 के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग पहले की तरह किए जाते रहने की छूट दी गई। इसलिए अनुच्छेद-348 के तहत उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के कामकाज की भाषा पहले की तरह अंग्रेजी ही है। इस के द्वितीय अनुच्छेद में यह व्यवस्था भी की गई है कि राज्य के राज्यपाल महोदय, मा़ राष्ट्रपति की सहमति से अपने राज्य के उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ हिन्दी या उस राज्य की राजभाषा को वहां की सभी प्रकार की कार्यवाही में प्रयोग किये जाने की अनुमति दे सकते हंै। इसी व्यवस्था के अंतर्गत राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश एवं बिहार के उच्च न्यायालयों में हिन्दी में न्यायिक कार्यवाही की जा रही है। इन्हीं राज्यों से अलग हुए झारखंड, उत्तराखंड एवं छत्तीसगढ़ में इस प्रकार की अनुमति स्वाभाविक रूप से होनी चाहिए थी, जोकि नहीं है। राज्य पुनर्गठन कानून के अनुसार, जब एक राज्य में से दो राज्य बनते हैं, तब दोनों में वहां की पुरानी व्यवस्था यथावत रहती है। लेकिन इस विषय में ऐसा न होने का कारण वहां के शासकों, प्रशासकों ने उनके स्वाभाविक अधिकार के लिए जागरूकता नहीं दिखाई है। अत: इन नये तीन राज्यों के उच्च न्यायालयों में वहां की राजभााषा को मान्यता नहीं है।
जिस प्रकार उपरोक्त चार राज्यों के उच्च न्यायालयों में वहां की राजभाषा हिन्दी को वहां के उच्च न्यायालयों में मान्यता दी गई है, उसी प्रकार तमिलनाडु, गुजरात, छत्तीसगढ़ ने भी अपनी राज्य की राजभाषा के प्रयोग की छूट हेतु मांग की तो केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय मांगी और बाद में इन तीनों राज्यों को उत्तर दिया गया कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इससे सहमत नहीं हैं। संविधान के अनुसार तो राज्यपाल महोदय मा़ राष्ट्रपति की अनुमति से इसको लागू कर सकते हैं। फिर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश से क्यों पूछा गया? और उसका बहाना बनाकर केन्द्र सरकार ने इन तीनांे राज्यों को अनुमति न देकर उन तीनों राज्यों के साथ भेदभाव किया है। हमारे उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों में जिस भाषा में कार्य होता है, उसे देश की 97 प्रतिशत जनता नहीं समझ पाती। न्यायालयों में न्यायाधीश और अधिवक्ता के बीच क्या बहस हुई, वे 97 प्रतिशत लोग समझ ही नहीं पाते। क्या देश के तीन प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले लोगों के लिए ही न्याय व्यवस्था है? राज्योंं के उच्च न्यायालयों में वहां की भाषा में कार्य हो उसके विरुद्घ यह तर्क दिया जाता है कि न्यायाधीशों का स्थानान्तरण होने के कारण उनको अन्य राज्यों की भाषा समझने में कठिनाई होगी। परन्तु वर्तमान में अधिकतर उच्च न्यायालयों में 10 प्रतिशत भी अन्य भाषा के न्यायाधीश नहीं हंै। सामान्यत: उच्च न्यायालयों में अधिक से अधिक दो-तीन न्यायाधीश अन्य राज्यों के होते हैं। जब वहां की स्थानीय भाषा में बहस होगी, तब उसी राज्य के न्यायाधीशों की पीठ हो सकती है। दूसरा जिस प्रकार आज संसद में व्यवस्था है कि कोई भी सदस्य चाहे जिस भाषा में बोले उसे दूसरा सदस्य, अपनी भाषा में सुन सकता हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों में भी इसी प्रकार की अनुवाद की व्यवस्था की जा सकती है। प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों (आई़ए़ एस़, आई़पी़एस़) को भी जिस राज्य में उनकी नियुक्ति होती है, वहां की भाषा का प्रशिक्षण दिया जाता है। न्यायधीशों के लिए भी इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए।
उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों में शासकों-प्रशासकों के अनुसार माना कि वहां कुछ कठिनाई है। परन्तु सत्र, अधीनस्थ, जिला न्यायालयों में तो अपराधिक प्रक्रिया संहिता-, सिविल प्रक्रिया संहिता-137 के अनुसार, वहां की राजभाषा में कार्य करने का प्रावधान है और अन्य राज्यों के न्यायाधीशों का प्रश्न भी नहीं है। फिर भी अनेक राज्यों में अंशत: या कुछ न्यायालयों में पूर्णरूप से अंग्रेजी में कार्य किया जा रहा है। अनेक न्यायालयों में वहां की राजभाषा के अनुसार कम्प्यूटर और स्टेनो, टाईिपस्ट नहीं हंै। इस कारण से बहस और सुनवाई वहां की भाषा में होने के उपरान्त भी निर्णय अंग्रेजी में दिये जाते हंै। अनेक न्यायालयों में बहस भी अंग्रेजी में की जाती है। ध्यान में यह आता है कि कुछ कठिनाइयों का बहाना बनाकर वास्तव में शासन-प्रशासन के द्वारा जनता को अपने अधिकारों से वंचित रखने के षड्यंत्र के तहत भारतीय भाषाओं में कार्य करने में बनावटी रुकावटें पैदा की जा रही हैं।
अनेक राज्यों में कानून भी अंग्रेजी में बनाए जाते हंै। बाद में कुछ का राज्य की राजभाषा में भाषांतरण किया जाता है, कुछ का नहीं भी किया जाता हैै। वास्तव में शासन-प्रषासन में बैठे हुए अधिकतर लोग, भारतीय भाषाओं को स्थापित नहीं होने देना चाहते।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा पिछले दो वर्ष में केन्द्र, विभिन्न राज्यों एवं उनके संस्थानों को उनके राजभाषा के कानून के विरुद्घ कार्य करने के संदर्भ में दो हजार से भी अधिक पत्र लिखे गए हैं, जिनमें से कुछ का सकारात्मक परिणाम आया है। कुछ राज्य सरकारें/कार्यालय तो उत्तर देने को भी आवश्यक नहीं समझते।
इसी प्रकार अनेक राज्यों में क्रमश: विधि की शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी है या अंग्रेजी माध्यम किया जा रहा है। सरकार के द्वारा राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है, उनका माध्यम भी केवल अंग्रेजी है। विधि-सेवा से सम्बन्धित प्रतियोगी परीक्षाओं की भी इसी प्रकार की स्थिति देखने को मिलती है।
जब तक शासन-प्रशासन, उच्च शिक्षा एवं प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त नहीं की जाएगी तब तक भारतीय भाषाओं को स्थापित करना असंभव है। इस हेतु देशभर में भाारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठान हेतु एक बड़ा आन्दोलन, अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसका प्रारंभ शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने कर भी दिया है। आवश्यकता है, देश की हजारों संस्थाएं एवं विद्वान, स्वभाषा प्रेमी इस हेतु एक मंच पर साथ आकर आवाज उठायें, तो इस आन्दोलन का देशव्यापी स्वरूप बनेगा। अतुल कोठारी
टिप्पणियाँ