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भारत और अमरीका के स्कूली बच्चों में भ्रम फैला रहे हैं सेकुलर
नि:संदेह स्वतंत्रता के पश्चात भारत में प्रचलित इतिहास के पाठ्यक्रम को तथ्यात्मक तथा प्रामाणिक बनाने के संदर्भ में जो संघर्षपूर्ण भूमिका शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास और शिक्षा बचाओ आन्दोलन की है, वही भूमिका अमरीका के केलिफोर्निया प्रांत में ह्यहिन्दू एजुकेशन फाउन्डेशनह्ण तथा ह्यद वैदिक फाउन्डेशनह्ण की है। परन्तु यह सत्य है कि इस बारे में जहां भारतीय समाज तथा अभिभावकवर्ग प्राय: उदासीन है, वहीं अमरीका के हिन्दू जागृत तथा संघर्षरत हैं। दोनों देशों की उपरोक्त संस्थाओं ने इतिहास पाठ्यक्रमों में जान-बूझकर फैलाई गई भ्रांतियों, विकृतियों, एकपक्षीय तथा पक्षपातपूर्ण वर्णनों तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त पुस्तकों में हिन्दुत्व के सन्दर्भ में सही तथा तथ्यपरक इतिहास में संशोधन के लिए भरसक प्रयत्न किए हैं। भारत में निचली कक्षाओं से उच्च शिक्षा तक में इतिहास को विकृत करने के प्रयास सरकारी सहयोग से तथाकथित सेकुलरवादियों तथा भारतीय मार्क्सवादियों, वामपंथी लेखकों, ईसाई संगठनों तथा इस्लामिक गुटों द्वारा हुए। दोनों ने समाज में अलगाव तथा हिन्दुत्व के विरुद्ध अपने घृणित कायोंर् में कोई कसर न रखी।
नकारात्मक इतिहास विवेचन
उदाहरण के लिए दो देशों में मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा रामायण के प्रसंग को लें। भारत के कुछ मार्क्सवादी तथा सेकुलर इतिहासकारों ने दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास में स्नातक पूर्व परीक्षा में किसी गैर इतिहासकार ए.के. रामानुजम नामक लेखक के एक तीस पृष्ठ के ह्यतीन सौ रामायण, पांच उदाहरण तथा तीन विचार बिन्दुह्ण लेख को योजनापूर्वक पाठयक्रम का भाग बनाया। गत 9 अक्तूबर, 2008 को वहां की अकादमिक परिषद के उसे भारी बहुमत से हटाये जाने पर उनके समर्थकों ने हंगामा कि या। इसमें जे.एन.यू., जामिया मिलिया तथा जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता के छात्रों को भी भड़काया गया। इसी भांति गोमांस, भक्षण को लेकर जे.एन.यू. तथा उस्मानिया विश्वविद्यालयों में उत्पात मचाया गया।
अमरीका में इन्हीं गुटों के घृणित प्रयासों से हिन्दुत्व विरोधी इतिहास पुस्तकों को प्रोत्साहन मिला। इसी प्रकार की पुस्तकों में शिकागो विश्वविद्यालय की पंथशास्त्र की प्रोफेसर बेंडी डोनियर ने ह्यद दिन्दुत्व-एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीह्ण लिखी जो मूलत ईसाई मान्यताओं को सुदृढ़ करने तथा हिन्दुत्व को बदनाम करने का प्रयास है। इसमें सभी हिन्दू देवी-देवताओं को कामुक बताया गया तथा रामायण की मनमानी व्याख्या की गई है। इसी भांति भारत के मार्क्सवादियों के प्रत्यक्ष सहयोग से पोला रिचमैन ने एक पुस्तकह्यमैनी रामायणह्ण (आक्सफोर्ड 99-92) तथा दूसरी पुस्तक ह्यक्येश्चनिंग रामायणह्ण (आक्सफोर्ड, 2000) लिखी। दोनों का ह्यफोरर्वडह्ण रोमिला थापर ने लिखा। इसमें हिन्दुओं की वाल्मीकि ह्यरामायणह्ण तथा तुलसीदास की ह्यरामचरितमानसह्ण के विचित्र निश्कर्ष निकालकर प्रस्तुत किए जो किसी ने भी स्वीकार न किए। अच्छा होता, यदि अहंकार तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लेखकों ने कुछ प्रसिद्ध विभूतियों जैसे महर्षि वेदव्यास, शंकराचार्य, वाल्मीकि या आधुनिक लेखकों तथा विद्वानों में स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, डा. बी.आर. अम्बेडकर, महात्मा गांधी या डा. राधाकृष्ण के ग्रन्थों को पढ़ लिया होता। भारत के नहीं तो अमरीका के विश्वविख्यात विद्वानों विल ड्यूरेंट, डमर्शन, हेरनी डेविड थोरो या ब्रिटिश लेखकों हरबर्ट स्पेंसर, एच.जी. वैल्स, अथवा आरनोल्ड टायनबी का ही अध्ययन कर लिया होता। सम्भवत: इन्हें पढ़कर उनका मत हिन्दू धर्म, संस्कृति, दर्शन तथा विश्व की अन्य सभ्यताओं से तुलना में भिन्न होता।
छोटी कक्षाओं के पाठ्यक्रम
सरकारी तौर पर यदि भारत तथा अमरीका के केवल कक्षा छह के पाठयक्रमों का अध्ययन करें तो दोनों पाठ्यक्रमों में हिन्दुत्व विरोध में समानता दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि दोनों के लेखक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे के सहयोगी रहे हैं। दोनों की हिन्दुत्व के सन्दर्भ में दृष्टि भी समान रही है। सही बात तो यह है भारत में छोटी कक्षाओं में ह्यसामाजिक अध्ययनह्णके आवरण में इतिहास को ही गायब कर दिया है। भारत के कुछ प्रांतों में स्नातक स्तर पर इतिहास नामक विषय ही नहीं है।
भारत में एन.सी.आर.टी. की कक्षा 6 की इतिहास पुस्तक ह्यप्राचीन भारतह्ण के संदर्भ में है, परन्तु उसमें जो भी वर्णन है वह भारत से इतर के बारे में अधिक है। इतिहास का आरम्भ हड़प्पा सभ्यता से बताया गया है। आर्य का अर्थ, स्थिति तथा वेदकालीन सभ्यता का वर्णन प्राय: गायब है। जैन तथा बौद्ध धर्म के बारे में अवश्य बताया गया पर हिन्दू धर्म के बारे में एक भी शब्द नहीं है। न तो प्राचीन भारत के प्रथम राष्ट्रीय शासक चन्द्रगुप्त मौर्य का वर्णन है और न ही गुप्तकाल के किसी भी शासक का। भारत के प्राचीन इतिहास को यूरोपीय इतिहास के फ्रेम में रखा गया है। इंग्लैण्ड के जूलियस इंगलिश, आर्थर एंथोनी मैक्डानल अथवा मोरिज विंटरनिट्ज की भांति उन्हें भारत के प्राचीन साहित्य अथवा शास्त्रों में इतिहास का ज्ञान न लगकर उपाख्यान, कल्पित तथा परंपरागत लगता है। पुराणों का रचनाकार व्यास को बताया गया है (पृ. 121)। लेखक ने केवल आधे पृष्ठ में रामायण तथा महाभारत का अनमने ढंग से वर्णन किया है। पहले महाभारत तथा बाद में रामायण का वर्णन है (पृ. 121)। दोनों को काव्य बतलाया है। लेखक ने भारत के सामाजिक जीवन का वीभत्स चित्रण किया है। उसने महिला की दशा, जाति प्रथा, अछूत आदि के सन्दर्भ में अंग्रेजी की विकृत धारणाओं का समर्थन किया है। वेदों के जानने वालों को ह्यआर्यह्ण तथा उसके विरोधियों को ह्यदासह्ण या ह्यदस्युह्ण बताया है (पृ. 147) विदेशी परम्परा के अनुसार युद्ध बंदियों को दास या दासियां बतलाया है। (पृ. 471)
अमरीका में पाठ्यक्रम
अमरीका में कक्षा 6 के इतिहास पाठ्यक्रम में विश्व की पुरानी सभ्यताओं का अध्ययन है। इसमें इस्लाम को छोड़कर, यहूदी, ईसाई, बौद्ध तथा हिन्दू सभ्यताओं का वर्णन है। केलीफोर्निया में इसके अध्ययन के लिए नौ पाठ्य पुस्तकों को चुना है। इसमें मैक्डुयल लीटेल, हाउटन मिफितलीन, हरबर्ट, रिनचार्ट हाल्ट तथा पीयर्सन की पुस्तकें हैं। एक पुस्तक रीचर्स करिकूलम इंस्टीट्यूट की भी है। प्राय: कम या अधिक सभी ने यहूदी, ईसाइयत की तुलना में हिन्दू धर्म को निम्न बतलाया है।
प्रस्तावित पुस्तकों में तथ्यात्मक अशुद्धियों की भरमार है। उदाहरण के लिए केवल आक्सफोर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित ह्यद एंशियेंंट साउथ एशियन वर्ल्डह्ण को ही लें। इसमें रामायण में महाराजा दशरथ की दो पत्नियां बताई हैं (पृ. 87)। शिव को सृजन का देवता बतलाया है (पृ. 91)। जैन तीर्थंकरों वर्धमान को वरदमान (पृ. 91) तथा ह्यपार्श्वनाथह्ण को पारथर्वनाथह्ण बतलाया है (पृ. 96)। पुस्तक में अधिकतर नेपाली को बौद्ध बताया है। (पृ. 155) इसी भांति केरल के फसल बुवाई के उत्सव ओणम को दिल्ली के पर्व से जोड़ दिया है। वस्तुत: इस प्रकार की अनेक तथ्यात्मक गलतियां विभिन्न पुस्तकों में हैं।
प्राय: सभी पुस्तकों में भारतीय शास्त्रों तथा साहित्य को हीन दृष्टि से देखा गया है। जबकि यहूदी या ईसाई या मुस्लिम ग्रंथों को ह्यपवित्रह्ण कहा गया है। पुराणों को मिथक बतलाया है तथा इसे विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करने का विधान वाला बताया है। वेदों को भी श्लोकों, कहानियों तथी वीर गीतों का संग्रह बतलाया है। एक लेखक ने लिखा कि ब्राह्मण को वेद कंठस्थ करने में एक लाख श्लोक रटने पड़ते थे जबकि कुल श्लोकों की संख्या इससे आधी भी नहीं है। एक लेखक ने गीता सम्वाद ईश्वर तथा एक व्यक्ति, दूसरे ने भगवान विष्णु तथा एक विजेता के बीच बलताया है। एक पुस्तक में सभी पुराणों के रचयिता वेदव्यास बतलाये हैं। कई ने महाभारत के पश्चात रामायण की चर्चा की। इसी भांति संस्कृत तथा हिन्दू भाषा के प्रति भी अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए संस्कृत को इण्डो-यूरोपीयन भाषा का अंग, तो हिन्दी का विकास ईसा बाद नौ में बताया तथा इसकी लिपि अरबी बताई। जहां अवसर मिला, उपरोक्त पुस्तकों में हिन्दू देवी-देवताओं तथा हिन्दू सांस्कृतिक प्रतीकों कोे हेय दिखलाने से बाज नहीं आए। प्राय: दुर्गा या काली को अत्यन्त वीभत्स तथा रक्त पिपासु दिखलाया। गाय को पवित्र बताया परन्तु उसका चित्र सड़कों पर अवारा घूमते, कूड़ा-कर्कट खाते छापा। साथ ही प्रश्न किया, गोमांस भक्षण क्यों नहीं? यह भी कहा गया, हिन्दू गाय को नहीं मारते चाहे आदमी भूखा मर जाए।
हिन्दू समाज को प्राय: सभी लेखकों ने ईसाई या यहूदी की तुलना में कमतर ही दिखाया। विशेषकर हिन्दू नारी को अज्ञानतावश लिखा कि महिलाएं वेद नहीं पढ़ सकती थीं। ऐसा ही चित्रण शूद्रों तथा अछूतों के बारे में बार-बार किया। संक्षेप में जातिवाद की जटिलता, स्त्री या पुरुष में अत्यधिक असमानताएं, अछूतों की दयनीय दशा, दासों पर अत्याचार, सभी का वीभत्स तथा नकारात्मक वर्णन किया। सार रूप में उन्हें हिन्दुत्व में एक भी बिन्दु अच्छा नहीं लगा।
हिन्दुत्व के प्रति षड्यंत्र
दोनों देशों के पाठयक्रमों को देखने से तथा उनमें परस्पर गहरे सम्बंध से दोनों के हिन्दुत्व के प्रति ओछे, घिनौने तथा नकारात्मक दृष्टिकोण का स्पष्ट पता चलता है, परन्तु यह भी सत्य है कि विश्व कल्याण, विश्व शांति तथा विश्व बंधुत्व के महान सिद्धानों पर आधारित सांस्कृतिक धरातल पर कोई इसे पराजित नहीं कर सका। परन्तु यह एक चेतावनी है, भारत तथा हिन्दुत्व की चिन्तन धारा को। भारत में केवल सुरक्षा के बाहरी तथा आन्तरिक मोर्चे पर ही संघर्ष नहीं हो रहे हैं, बल्कि विश्वव्यापी सांस्कृतिक संघर्ष के भी प्रयत्न हो रहे हैं। विश्व का कोई ईसाई देश या न मुस्लिम देश नहीं चाहता कि भारत उन्नतशील राष्ट्र के रूप में उभरे। इसका यह दुष्परिणाम भी हो रहा है कि अमरीका के हिन्दू छात्र-छात्राओं में धर्म के प्रति विस्मृति का भाव बढ़ाने की कोशिश हो रही है जो मतान्तरण की ओर एक कदम ही है। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा का पाठ्यक्रम भावी पीढ़ी के चिन्तन का आधार तथा अन्ततोगत्वा राष्ट्रहित, राष्ट्र निर्माण तथा राष्ट्र की सुदृढ़ता का मेरुदण्ड होता है। इसे देखते हुए, न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में पाठ्यक्रमों में संशोधन, परिवर्तन की अत्यंत आवश्यकता है ताकि विश्व एक सांस्कृतिक क्रांति के साथ विश्व कल्याण की ओर बढ़े। हमेंे इस विश्वव्यापी सांस्कृतिक चुनौती के रूप में शिक्षा में पाठ्यक्रमों का सूक्ष्म निरीक्षण तथा विश्लेषण करना चाहिए। डा. सतीश चन्द्र मित्तल
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