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गांव के मरीजों को स्वयं किसी प्रकार की कसरत करने से घृणा हो गयी थी। गांव के लगभग बीस प्रतिशत लोगों को चौधरानीजी के कारिंदों ने पहले ही समझा रखा था। कि योगिक आसन और प्राणायाम आदि उनके लिए नहीं। एक बार तो बाहर से भूला-भटका एक योगी गांव में आया तो इन कारिंदों ने उसे और उसके पास जानेवाले मरीजों की डंडे मार-मार कर बुरी गत बनायी थी। गांववालों का हाल अब ये था कि उनके मुंह पर मक्खियां भी भिनक रही होती थीं तो वे आशा करते थे कि कोई और उन्हें पंखा झेलकर उड़ाएगा। चौधरानीजी की गोलियों का स्वाद इतना मीठा होता था कि उन्हें चभलाते रहने से मक्खियों की भिनभिनाहट सुनायी ही नहीं पड़ती थी। बल्कि गोलियों के लती हो गए गांववालों को यह भिनभिनाहट संगीत लगती थी।
चौधरानीजी की लोकप्रियता का एक और मूलमंत्र था। वे अपनी गोलियों को समय-समय पर बिना महामारी फैले ही बांट देती थीं । ऐसे अवसरों पर पूरे गांव में मुनादी होती थी। बड़े-बड़े इश्तिहार लगवाये जाते थे। एक ऊंची मचान पर चढ़कर कुछ लोग आकाशवाणी करते थे जिनका गांव वाले दूरदर्शन भी कर पाते थे कि स्वर्गीय चौधरी जी की जन्मतिथि या सासू मां की बरसी पर चौधरानीजी मुफ्त में मीठी गोलियां बांटेंगी पर चौधरानीजी इतनी मूर्ख नहीं थी कि बिन मौसम बरसात करके सारे भण्डार खत्म कर दें और मनोवांछित फसल भी न काट सकें़,अत: वे कारिंदों की दो कतारें बनाती थीं। एक कतारवाले दूसरी कतार के कारिंदों को ये गोलियां बांटते और पाने वाले कारिंदे सारी गोलियां चौधरानीजी के भण्डार में वापस जमा कर आते थे ।
पर हमेशा सारी गोलियां वापस आ जातीं तो गांव वालों की अफीम चूसने की आदत ही न छूट जाती? अत: हर पांचवे वर्ष से कुछ महीने पहले अफीम की गोलियां वास्तव में बंटती थी। गांव वाले उन्हें पाकर खेत-खलिहान की चिंता से मुक्त हो जाते थे । हां, कुछ बिचारे मूर्ख जो अपने खेत, खलिहान, कार्यशालाओं आदि में काम में व्यस्त होते थे माले मुफ्त पाने में चूक जाते थे। फिर सारा गांव उन पर हंसता था। ऐसे मौकों के लिए एक विशेष कारिन्दा था जो बेचारा काफी पढ़ा लिखा था पर चौधरानीजी की जमीन्दारी में रहकर अपनी सारी विद्या भूल गया था। अब उसे केवल कठपुतली का अभिनय करना भाता था। चौधरानीजी परदे के पीछे से डोर खींचतीं और वह मुंह बंद रख कर खूब हाथ पैर हिलाता़ उसकी मदद के लिए पार्श्वसंगीत के अद्भुत कलाकारों की मंडली जो थी।
उस दिन भी ऐसा ही विशाल आयोजन था। कठपुतली कारिन्दा मंच पर खड़ा मुंह चला रहा था। पीछे पार्श्वगायक मुफ्त की अफीम की गोलियों का बखान कर रहे थे। तभी गांव का एक धृष्ट जवान अचानक आकर चिल्लाने लगा कि गांव में आग लगी हुयी है और उसे बुझाने के लिए गांव के कूएं में पानी समाप्त हो गया है गांव वालों को इस पावन अवसर पर उसका अनाधिकार प्रवेश और आवाहन ऋषि मुनियों के यज्ञ में आसुरी विघ्न सा लगा। कारिंदों ने उसकी जोरों से भर्त्सना की। कुछ को ऐसे पुनीत अवसर पर आग की चेतावनी भर्त्सनीय लगी। कुछ ने कहा उस गांव में उसके जैसे छब्बीस और जवान थे, जब उन्होंने ऐसा अशोभनीय शोर नहीं मचाया तो इस धृष्ट का चिल्लाना घोर उद्दंडता थी। कुछ ने कहा बिचारे मूक कारिंदे के सामने चिल्लाकर ये असभ्य केवल अपनी उजड़ता दिखा रहा था। तो इधर अफीम की गोलियां बंटती रहीं , उधर आग बढ़ते-बढ़ते पूरे गांव को राख कर गयी। कुछ नहीं बिगड़ा तो केवल चतुर चौधरानी जी का जिन्होंने ससुराल में केवल अफीम की गोलियां रखी थीं और अपना असली मालमत्ता मायके के निकट एक सुदूर गांव में। अरुणेन्द्र नाथ वमा
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