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महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों को रोकने के लिए आत्मविश्वास जगाना जरूरी
पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं पर हुए अत्याचारों का आंकड़ा देखें तो वह न सिर्फ रोंगटे खड़े करने वाला है बल्कि उस सभ्य समाज के पुरुषों की मानसिकता पर सवाल पैदा करता है जो स्त्री को केवल भोग्या ही मानते हैं।
समाज कोई भी हो, स्त्री की स्थिति वही है जो बरसों पहले थी। पहले वह घरों की चौखट तक सीमित थी। आज शिक्षित है, घर से हजारों किलोमीटर दूर रहकर जीवन यापन कर रही है तब या तो पुरुष मित्रों द्वारा प्रताडि़त होती है या फिर बदला लेने के लिए तेजाबी हमले की शिकार होती है। स्त्री को जब चाहे, जैसा चाहे इस्तेमाल करने वाला पुरुष समाज का ही एक अंग है जो बलात्कार, अत्याचार करने के बाद भी खुलेआम उसी समाज में घूमता है क्योंकि उसे समाज का कोई खौफ नहीं है। यही स्थिति ग्रामीण महिलाओं की है जहां तथाकथित उच्चवर्गीय लोगों द्वारा इनका शोषण किया जाता है या बंधक बनाकर रखा जाता है। इन अत्याचारों की शिकार न सिर्फ युवतियां होती हैं बल्कि तीन वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक की वे बच्चियां भी जो अपने रिश्तेदारों या पड़ोसियों द्वारा शोषित
होती हैं।
कुल मिलाकर स्त्री हर पल प्रताडि़त एवं अपमानित होती है। कभी उसकी जन्म लेने से पहले तो कभी विवाह के बाद दहेज के लिए बली दी जाती है। इन सारी दिल दहला देने वाली घटनाओं के बाद भी महिलाओं को ही दोषी ठहराया जाता है। कभी उनके रहन-सहन या वस्त्रों पर छींटाकशी की जाती है तो कभी यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि कुछ क्षेत्र महिलाओं के लिए हैं ही नहीं, वहां तो केवल पुरुषों का ही अधिकार है।
परंपरावादी समाज केवल स्त्री में ही खामियां ढूंढता है, लेकिन पुरुष वर्ग कभी भी खुलकर इसका विरोध करता दिखाई नहीं देता। जिस समाज के पुरुष वर्ग द्वारा इन घटनाओं को अंजाम दिया जाता है, उन्हें समाज से निष्कासित करने का निर्णय कभी नहीं लिया जाता है जबकि स्त्री द्वारा जाति विरुद्ध विवाह करने पर ह्यऑनर किलिंगह्ण जैसी अनेक घटनाएं होती हैं, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इसी कारण स्त्री पर अत्याचारों की संख्या बढ़ती जा रही है। क्योंकि अपराधियों को शह मिलती है उसी समाज से जहां से उसे बार-बार पुरुष और उसके अधिकारों के बारे में जताया जाता है।
देश में स्त्रियों के विरुद्ध होने वालीं तमाम घटनाएं आम आदमी को झकझोर देती हैं, इसका विरोध वह कभी ह्यकेंडल मार्चह्ण तो कभी बंद के रूप में करता भी है, लेकिन परिणाम शून्य ही होते हैं। अपराधी पकड़े नहीं जाते हैं और पकड़े जाने पर भी लचर कानून व्यवस्था से परिणामों तक पहुंचते-पहुंचते पीडि़ता इस कदर टूट जाती है कि आत्महत्या करने का निर्णय ले बैठती है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि पीडि़त स्त्री के प्रति हम अपनी संवेदना ह्यसोशल मीडियाह्ण द्वारा तो व्यक्त करते हैं लेकिन उसे सामाजिक रूप से स्वीकारना नहीं चाहते। बहुत बार पीडि़ता शर्म से अपना नाम तक गुप्त रखना चाहती है, वह समाज से कट जाती है। ऐसे में इन महिलाओं को आत्मबल देना जरूरी है जो समाज एवं रिश्तेदारों द्वारा दिया जाना चाहिए। मानसिक संबल से स्त्री पुन: अपने भविष्य के प्रति आशावादी बन सकती है।
इसी संदर्भ में मुम्बई में अभी पिछले दिनों सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई युवती का निर्णय, कि वह जल्द से जल्द काम पर लौटना चाहती है, वास्तव में सराहनीय है। ऐसे निर्णयों का स्वागत होना चाहिए। आम नागरिकों एवं शासन द्वारा उसके इस साहस का सम्मान किया जाना चाहिए।
देश में रोज घटने वाली इन घटनाओं को रोकने के लिए स्त्री का शिक्षित होना तो आवश्यक है ही, लेकिन इससे भी अधिक जरूरी है आत्मविश्वासी बनाना। स्व सुरक्षा के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करना आज की जरूरत है।
दिल्ली में निर्भया कांड के बाद महिलाओं को यौन हिंसा से बचाने के लिए सख्त कानून बना मगर कानून लागू करने की प्रक्रिया अब भी लचर है। सन् 2012 में पूरे देश में बलात्कार के एक लाख से ऊपर मामले लंबित थे, जिनमें से पिछले वर्ष सिर्फ 14,700 का निपटारा हुआ है। इनमें सजा होने की दर और भी दयनीय है। अभियोग पक्ष सिर्फ 3563 लोगों पर आरोप साबित कर पाया, जबकि 11500 से ज्यादा बरी हो गए। इन तथ्यों से यही साबित होता है कि अनेक कारणों के चलते, जैसे महिला जजों की कमी, त्वरित निपटान अदालतों को चिन्हित करने में देरी या कहीं कहीं स्त्री विरोधी मानसिकता से भी, अपराधी पकड़े नहीं जाते हैं।
कोल्हापुर की डीएसपी वैशाली माने और एएसपी ज्योति प्रिया सिंह ताजा उदाहरण हैं, जिनके प्रयासों से महाविद्यालयों के आसपास पकड़े गए अपराधियों के विरुद्ध तुरंत सख्ती से कार्यवाही हुई है। कुछ वर्ष पूर्व नागपुर में एक बलात्कारी को महिलाओं के दल ने ही पीट-पीटकर मार डाला था। यह सब महिला आक्रोश का ही परिणाम है, जो अपराधियों को दंड दिलाना चाहता है। श्रीति राशिनकर
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