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गरीबों को टुकड़ा फेंकना संप्रग सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को लोकसभा की मोहर लगवा दी है। राज्य सभा का अब इसे मोहर लगाना औपचारिकता है। किसी को भी इस बात से क्या आपत्ति हो सकती है भूखे के पेट की आग बुझ जाए। आखिर किसी भी सरकार के लिए इससे जरूरी क्या हो सकता है? इस विधेयक के कानूनी जामा पहनने के बाद देश की 67 फीसद आबादी यानी 82 करोड़ लोग इसके दायरे में होंगे। यानी गरीबी रेखा से नीचे (प्राथमिक या बीपीएल श्रेणी के परिवार) और सामान्य परिवार (गरीबी रेखा से ऊपर या एपीएल परिवार) की श्रेणियों में आने वाले परिवारों को सस्ते दर पर चावल और गेहूं मुहैया करवाया जाएगा।
पर बड़ा सवाल यह है कि जिन्हें सस्ता भोजन मिलेगा,उन्हें अगर किसी रोजगार के लायक तैयार किया जाता तो ज्यादा बेहतर नहीं रहता। पर इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया।
बहरहाल, खाद्य सुरक्षा विधेयक के कानून बनने के बाद 82 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो चावल, गेहूं या मोटा अनाज क्रमश: तीन, दो और एक रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से मिलेगा। ये सब करने के लिए देश को 500 लाख टन खाद्यान्नों की खरीद, भंडारण,एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने और अंत में उसे सही पात्रों को देना होगा। क्या देश इतनी बड़ी चुनौती को लेने के लिए तैयार है? ये सब करने के लिए फूड कारपोरेशन आफ इंडिया (एफसीआई) को अपनी क्षमता में 40 फीसद का इजाफा करना होगा।
अगले लोकसभा चुनावों में अपने हक में वोट गिरवाने के इरादे से इस योजना को लागू करने की चाहत रखने वाली सरकार अब खुद ही अपनी असलियत बता रही है। उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री के.वी. थामस राज्य सभा में बता रहे थे कि इसे लागू करने के लिए हर वर्ष 614़3 लाख टन अनाज की आवश्यकता का अनुमान हैं। जबकि एफसीआई की 2013 में भंडारण क्षमता 391़.79 लाख टन थी। इसके अलावा राज्य स्तरीय एजेंसियों के पास अनाज भंडारण क्षमता 354.28 लाख टन है। साफ है कि सरकार भोजन गारंटी कानून बनाने की तरफ बढ़ रही है, पर उसे लागू करने की उसके पास अभी योजना नहीं है।
यही नहीं, जिन पात्रों को अन्न देना है, उनकी आबादी साल 2035 तक बढ़ती जाएगी। तब हमारी आबादी हो जाएगी 160 करोड़। तब माना जा रहा है कि हमारी आबादी की रफ्तार थमने लगे। मनरेगा में जिस तरह की लूट हो रही है, उसकी पुनरावृत्ति इस योजना में भी होने की आशंका जाहिर की जा रही है। वजह बहुत साफ है। सरकार ने सार्वजिनक वितरण प्रणाली (पीडीए) को चुस्त किए बगैर ही इसे लागू करने की योजना बना ली। क्या ये दुबारा बताने की जरूरत है कि हमारी पीडीएस प्रणाली में कितनी खामियां हैं। लोकसभा में इस विधेयक पर चर्चा के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने बिल्कुल ठीक कहा था कि उसे इसे पारित करने की इतनी जल्दी क्यों है,जबकि उसकी तैयारी पूरी नहीं है।
अब जरा बात यह भी हो जाए कि देश को खाद्य सुरक्षा देने के नाम पर कितना वित्तीय स्तर पर बोझ उठाना पड़ेगा। एग्रीकल्चर कस्ट्स एंड प्राइसेज कमीशन के चेयरमेन डा़ अशोक गांगुली ने भी माना कि अब देश को बड़े वित्तीय बोझ को सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। सरकार को हर एक किलोग्राम गेहंू और चावल पर क्रमश 16 और 21 रुपये की सब्सिडी देनी होगी। ये सब्सिडी तब और बढ़ जाएगी जब अन्न का आयात करना होगा। क्या देश इतनी बड़ी आबादी के लिए इतनी सब्सिडी देने की स्थिति में है? सरकार भले ही करदाताओं पर कर और बढ़ा दे और कर के जाल का विस्तार कर दे पर उसके लिए वित्तीय बोझ का सामना करना कठिन होगा। प्रख्यात अर्थशास्त्री डा़ सुरजीत भल्ला कहते हैं कि मुफ्त भोजन गारंटी स्कीम की सालाना कीमत 3,14,000 करोड़ होगी। उधर, रायटर्स के स्तम्भकार एंडी मुखर्जी मानते हैं कि खाद्य सुरक्षा के नाम पर देश को खर्च करने होंगे सालाना 25 अरब रुपये। इनमें थोड़ा बहुत फर्क हो सकता है, पर ये आंकड़े बहुत डरावनी तस्वीर पेश करते हैं। सरकार इस योजना की कुल सालाना लागत 1़25 लाख करोड़ रुपये लगा रही है। यह रकम देश के सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसद है। बेशक, लोकतंत्र में सियासी दल लोकलुभावन वादे करते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आखिर वे कोई साधुओं की जमात नहीं होते। पर उन्हें वादे सोच-समझकर करने होंगे। वादे और उनका क्रियान्वयन इस तरह से न हो जिससे कि देश की अर्थव्यवस्था ही तार-तार हो जाए। अफसोस कि यूपीए सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। चूंकि यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी की चाहत थी कि मुफ्त भोजन गारंटी योजना को लागू किया जाए तो उसे आधे-अधूरे और अधकचरे तरीके से लागू करने की तरफ कदम बढ़ा दिए गए। सुरजीत भल्ला कहते हैं कि पहल से ही वित्तीय घाटे के बोझ से हाफ्ते देश के खजाने पर इस कार्यक्रम से और भार बढ़ेगा। सरकार इस योजना को लागू करने के लिए धन कहां से जुटाएगी ?
यह भी कम अफसोसजनक बात नहीं है कि लोकसभा ने देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को सस्ता अनाज देने का वादा तो कर लिया, पर कृषि क्षेत्र की बदहाली को दूर करने के लिए कोई क्रांतिकारी पहल नहीं की। नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) से जुड़े अर्थशास्त्री डा़ दिलीप कुमार कहते हैं, हम भले ही अपने को कृषि प्रधान देश कहें पर हमारी खेती की भूमि लगातार कम हो रही है। वजह, खेती की जमीन में एसईजेड, उद्योग, आवासीय कलोनियां, हवाई अड्डे और सड़कें बना दी गईं या बन रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों के बाद खेती की जमीन का तेजी से गैर कृषि कार्यों के लिए उपयोग होने लगा। 1980-90 के दौरान प्रतिवर्ष 1़96 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि घट रही थी, वहीं पिछले दशक में यह रफ्तार बढ़ कर 2़25 हेक्टेयर प्रतिवर्ष हो गई है। यदि एक हजार हेक्टेयर कृषि भूमि कम होती है तो 100 किसानों एवं 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिन जाती है। अन्तरराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एजेंसी एफएओ के अनुसार खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी की सालाना रफ्तार 2़6 फीसदी होनी चाहिए, लेकिन यह 1़7 फीसदी पर ही स्थिर है। भारत को लेकर इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च अन इंटरनेशनल इकोनमिक रिलेशंस का अध्ययन चौंकाने वाला है। इसके अनुसार भारत में दलहन, तिलहन की तो छोडि़ए गेहूं, चावल एवं गन्ने का उत्पादन भी जरूरत के हिसाब से नहीं बढ़ रहा है। जब कृषि क्षेत्र की यह तस्वीर है तो हम कहां से अन्न उगाएंगे गरीबों को देने के लिए। आयात करने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। आयात करेंगे तो देश वित्तीय बोझ के तले दबता जाएगा।
भारत के कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती 2020 तक देश के अन्न उत्पादन को 2900 लाख टन तक पहुंचाने की है। इस समय हमारा अन्न उत्पादन 2500 लाख टन है। इसका अर्थ है कि हमें 400 लाख टन अन्न हर वर्ष बढ़ाना होगा, तभी बढ़ती आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान कर पाएंगे। कृषि वैजानिक डा. केएस खोखर कहते हैं कि भविष्य में हमारा देश दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है। कृषि योग्य भूमि निरंतर घट रही है। इसलिए कृषि उत्पादन प्रति एकड़ बढ़ाना तो दूर की बात है वर्तमान दर को बनाए रखना भी कठिन हो रहा है।
चलते-चलते यह सवाल अपनी जगह पर खड़ा है कि जो देश 82 करोड़ जनता को सस्ता अनाज दे रहा है, क्या उसे इन लोगों को रोजगार प्रदान करने अथवा आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल नहीं करनी चाहिए थी ? वोट की खातिर गरीबों को टुकड़ा फेंकना शर्मनाक है। विवेक शुक्ला
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