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इच्छा, आत्मा और मस्तिष्क का एक मिश्रण है

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Aug 30, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Aug 2013 15:27:39

यदि मैं मिट्टी के एक टुकड़े को जान लूं तो मैं मिट्टी की सम्पूर्ण राशि को जान लूंगा।’ सारा विश्व इसी योजना पर बना है। व्यक्ति तो मिट्टी के एक टुकड़े के समान केवल एक अंश है। यदि हम मानव आत्मा के जो कि एक अणु है, प्रारम्भ और सामान्य इतिहास को जान लें तो हम सम्पूर्ण प्रकृति को जान लेंगे। जन्म, वृद्धि , विकास, जरा, मृत्यु-सम्पूर्ण प्रकृति में यही क्रम है और वनस्पति तथा मनुष्य में समान रूप से विद्यमान है। भिन्नता केवल समय की है। पूरा चक्र एक दृष्टांत में एक दिन में पूर्ण हो सकता है और दूसरे में 70 वर्ष में, पर ढंग एक ही है। विश्व के विश्वसनीय विश्लेषण तक पहुंचने का एकमात्र मार्ग स्वयं हमारे मन का विश्लेषण है। अपने धर्म  को समझने के लिए एक सम्यक् मनोविज्ञान आवश्यक है। केवल बुद्धि  से ही सत्य तक पहुंचना असम्भव है, क्योंकि अपूर्ण बुद्धि स्वयं अपने मौलिक आधार का अध्ययन नहीं कर सकती। इसलिए मन को अध्ययन करने का एकमात्र उपाय तथ्यों तक पहुंचने का है, तभी बुद्धि  उन्हें विन्यस्त करके उनसे सिद्धान्तों को निकाल सकेगी। बुद्धि को घर बनाना पड़ता है, पर बिना ईंटों के वह ऐसा नहीं कर सकती, और वह ईंटें बना नहीं सकती। ज्ञानयोग तथ्यों तक पहुंचने का सबसे निश्चित मार्ग है।
मन के शरीर-विज्ञान को लें। हमारी इन्द्रियां हैं, जिनका वर्गीकरण ज्ञानेद्रियों और कमेरेन्द्रियों में किया जाता है। इन्द्रियों से मेरा अभिप्राय बाह्य इन्द्रिय-यंत्रों से नहीं है। मस्तिष्क में नेत्र सम्बन्धी केन्द्र दृष्टि का अवयव है, केवल आंख नहीं। यही बात हर अवयव के सम्बन्ध में है, उनकी क्रिया आभ्यंतरिक होती है, केवल मन में प्रतिक्रिया होने पर ही विषय का वास्तविक प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्षीकरण के लिए पेशीय और संवेद्य नाड़ियां आवश्यक हैं।
उसके बाद स्वयं मन है। वह एक स्थिर जलाशय के समान है, जो कि आघात किए जाने पर, जैसे पत्थर द्वारा, स्पन्दित हो उठता है। स्पन्दन एकत्र होकर पत्थर पर प्रतिक्रिया करते हैं, जलाशय भर में वे फैलते हुए अनुभव किए जा सकते हैं। मन एक झील के समान है, उसमें निरन्तर स्पन्दन होते रहते हैं, जो उस पर एक छाप छोड़ जाते हैं। और अहं या व्यक्तिगत स्व या मैं का विचार इन स्पन्दनों का परिणाम होता है। इसलिए यह ‘मैं’ शक्ति का अत्यन्त द्रुत संप्रेषण मात्र है, वह स्वयं सत्य नहीं है।
मस्तिष्क का निर्णायक पदार्थ एक अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक यंत्र है, जो प्राण धारण करने में प्रयुक्त होता है। मनुष्य के मरने पर शरीर पर मर जाता है, किन्तु अन्य सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद मन का थोड़ा भाग, उसका बीज बच जाता है। यही नए शरीर का बीज होता है, जिसे सन्त पाल ने ‘आध्यात्मिक शरीर’ कहा है। मन की भौतिकता का यह सिद्धान्त सभी आधुनिक सिद्धान्तों से मेल खाता है। जड़ व्यक्ति में बुद्धि  कम होता है, क्योंकि उसका मस्तिष्क-पदार्थ आहत होता है। बुद्धि भौतिक पदार्थ में नहीं हो सकती और न वह पदार्थ के किसी संघात द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। तब बुद्धि  कहां होती है? वह भौतिक पदार्थ के पीछे होती है, वह जीव है, भौतिक यंत्र के माध्यम से कार्य करने वाली आत्मा है। बिना पदार्थ के शक्ति का संप्रेषण सम्भव नहीं है, और चूंकि जीव एकाकी यात्रा नहीं कर सकता, मृत्यु के द्वारा और सब कुछ ध्वस्त हो जाने पर मन का एक अंश संप्रेषण के माध्यम के रूप में बच जाता है।
प्रत्यक्ष कैसे होता है? सामने की दीवार एक प्रभाव-चित्र मुझे भेजती है, किन्तु जब तक कि मेरा मन प्रतिक्रिया नहीं करता, मैं दीवार नहीं देखता, अर्थात् मन केवल दृष्टि मात्र से दीवार को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्रिया मनुष्य को दीवार के प्रत्यक्ष की क्षमता देती है, वह एक बौद्धिक प्रक्रिया है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व हमारी आंखों और मन (प्रत्यक्षीकरण की आंतरिक शक्ति) द्वारा देखा जाता है, वह हमारी अपनी व्यक्तिगत वृत्तियों द्वारा निश्चित रूप से रंग जाता है।
विभेदरहित सत्ता मन को विभेदयुक्त क्यों प्रतीत होती है? यह उसी प्रकार का प्रश्न है, जैसा यह कि अशुभ और इच्छा-स्वातन्त्रय का स्रोत क्या है? प्रश्न स्वयं आत्मविरोधी और असम्भव है, क्योंकि प्रश्न कार्य और कारण को स्वयंसिद्ध मान लेता है। अविभेद में कारण और कार्य नहीं होता, प्रश्न यह मान लेता है कि अविभेद उसी स्थित में है, जिसमें कि विभेदयुक्त ‘क्यों’ और ‘कहां से' केवल मन में होते हैं। आत्मा कारणता से परे है और केवल वही स्वतंत्र है। यह उसी का प्रकाश है, जो मन के हर रूप से झरता रहता है। हर कार्य के साथ मैं कहता हूं कि मैं स्वतंत्र हूं, किन्तु हर कार्य सिद्ध करता है कि मैं बुद्ध हूं। वास्तविक आत्मा स्वतंत्र है, किन्तु मस्तिष्क और शरीर के साथ मिश्रित होने पर वह स्वतंत्र नहीं रह जाती। संकल्प या इच्छा इस वास्तविक आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है, अतएव इस वास्तविक आत्मा का प्रथम सीमाकरण संकल्प या इच्छा है। इच्छा, आत्मा और मस्तिष्क का एक मिश्रण है। किन्तु कोई मिश्रण स्थायी नहीं हो सकता। इसलिए जब हम जीवित रहने की इच्छा करते हैं, हमें अवश्य मरना चाहिए। अमर जीवन परस्पर विरोधी शब्द है, क्योंकि जीवन एक मिश्रण होने से स्थायी नहीं हो सकता। सत्य सत्ता अभेद और शाश्वत है। यह पूर्ण सत्ता सभी दूषित वस्तुओं, इच्छा, मस्तिष्क और विचार से किस प्रकार संयुक्त हो जाते है? वह कभी संयुक्त या मिश्रित नहीं हुई है। तुम्हीं वास्तविक तुम हो  तुम कभी इच्छा न थे, तुम कदापि नहीं बदले हो, एक व्यक्ति के रूप में कभी तुम्हारा अस्तित्व न था यह भ्रम है। तब आप कहेंगे कि भ्रम के गोचर पदार्थ किस   पर आश्रित हैं? यह एक कुप्रश्न है। भ्रम कभी सत्य पर आश्रित नहीं होता, भ्रम तो भ्रम पर ही आश्रित होता है। इन भ्रमों के पूर्व जो था, उसी पर लौटने के लिए, सचमूच स्वतंत्र होने के लिए, हर वस्तु संघर्ष कर रही है। तब जीवन का मूल्य क्या है? यह हमें अनुभव देने के निमित है। क्या यह विचार विकासवाद की अवहेलना करता है? नहीं, इसके विपरीत वह उसे स्पष्ट करता है। विकास वस्तुत: भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है, जिससे वास्तविक आत्मा को अपनी अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। वह हमारे और किसी अन्य वस्तु के बीच किसी पर्दे या आवरण जैसा है। पर्दे के क्रमश: हटने पर, वस्तु स्पष्ट हो जाती है। प्रश्न केवल उच्चतर आत्मा की अभिव्यक्ति का है।

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