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एक दाग जिंदगी का
जीने नहीं देता
पर तुमने सैकड़ों कलंकितों को
गले लगाकर
हाथ थामा, आरोप सहे
आह तक न भरी
कभी सोचा नहीं
खुद की पीड़ा को
उलझनों को, उहापोह को
बांटा जाए किसी से
जिसे चाहते थे वो मन से
सब बात कहना
वह भी नहीं पास उनके
फिर भी वे मुस्काते रहे
क्या कहें तुम्हें कान्हा
सही अर्थों में
तुम नायक हो
अधिनायक हो
जन के, गण के, मन के
तुम पर नाज
बचायी लाज
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए नहीं
पर मर्यादा का किया रक्षण
लोकधर्म का संरक्षण
सचमुच तुम
पुरुषोत्तम।
प्रस्तुति : डॉ. राजेश लाल मेहरा
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