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कांग्रेस का मीडिया प्रबंधन

by
Aug 24, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Aug 2013 16:37:08

कांग्रेस के सन्दर्भ में प्रकाशित लेख ह्यएक कलंदर बाकी बन्दरह्ण में अनेक कटु सत्य सामने आए हैं। कांग्रेस का मीडिया प्रबंधन बहुत तगड़ा है। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी की कौन सी खबर मीडिया में आए और कौन सी न आए इसका पूरा प्रबंध किया जाता है। जो मीडिया यह दावा करते हुए अघाता नहीं है कि उससे कोई खबर नहीं छूटती है राहुल गांधी और सोनिया गांधी के बारे में उसका मुँह बन्द कौन करता है? हम बड़े जोर-जोर से दुनिया में यह ढिंढोरा पीटते हैं कि हमारे देश में प्रजातंत्र प्रणाली है। पर देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में हावी वंशवाद और परिवारवाद पर चुप रहते हैं। क्या कांग्रेस में राहुल गाँधी के अलावा और कोई युवा नेता नहीं है जिसको राहुल गाँधी जैसा बड़ा दायित्व दिया जा सके? लेकिन ऐसा नहीं किया जाता है। पूरी कांग्रेस पार्टी राहुल के पीछे -पीछे चल रही है। क्या यह प्रजातंत्र है? इसी तरह पिछले 15 साल से कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद सोनिया गाँधी के पास गिरवी रखा हुआ है। उस पद के लिए कभी चुनाव नहीं कराया जाता है,केवल दिखावा किया जाता है। पार्टी के अन्य पदाधिकारियों का चयन भी खुद सोनिया करती हैं। कार्यकारिणी समिति की केवल मुहर लगती है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस को लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं है। वह केवल प्रजातंत्र का अपने हित में इस्तेमाल कर सत्ता का सुख भोगना चाहती है। पर देश का सेकुलर मीडिया खामोशी की चादर ओढ़कर तमाशा देखता रहता है। सेकुलर मीडिया कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की बेबुनियाद बातों को भी बड़ी प्रमुखता से छापता है। जानकारों का मानना है कि ऐसा 10, जनपथ (सोनिया का घर) के इशारे पर होता है। दिग्विजय सिंह 10, जनपथ के विचारों की मात्र अभिव्यक्ति करते हैं। कांग्रेस पार्टी और 10, जनपथ के विचारों में कोई तालमेल नहीं है। इसलिए दिग्विजय सिंह के कई बयानों पर कांग्रेस को कहना पड़ा है कि यह उनका व्यक्तिगत विचार था।
कांग्रेस को ह्यहिन्दू राष्ट्रवादी' शब्द पर घोर आपत्ति है, क्योंकि कांग्रेस को यह शब्द सेकुलरवाद के लिए खतरा प्रतीत होता है। इसी कारण कांग्रेस के महासचिव ने पहली बार यह कहा है कि ह्यसर्व धर्म समभाव ही सच्चा सेकुलरवाद है,जो कि इस देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की रग-रग में समाया हुआ है।ह्ण जबकि इस देश के गैर-हिन्दू समाज का सर्वधर्म समभाव में विश्वास ही नहीं है। वे अपने सामने और किसी के अस्तित्व को मानते ही नहीं हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी को ले सकते हैं। 1990 से पहले वहाँ 4-5 प्रतिशत हिन्दू थे। कश्मीर के कट्टरवादियों को उनका वहाँ रहना भी नहीं सुहाया और आतंकवाद की आड़ में उन्हें वहाँ से भागने के लिए मजबूर किया गया। अधिकांश हिन्दू भाग गए। जो वहाँ रह गए हैं वे किस प्रकार जी रहे हैं,यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। पाकिस्तान और बंगलादेश में भी हिन्दुओं के साथ क्या हो रहा है यह भी पूरी दुनिया को पता है,फिर भी कोई कुछ नहीं बोलता है। हमारे देश का सेकुलर मीडिया तो हिन्दुओं के मामले पर इस तरह चुप रहता है मानो उसे सांप सूंघ गया हो। चूंकि कांग्रेस इस मामले में चुप रहती है शायद इसलिए सेकुलर मीडिया भी चुप रहता है।
-परमानन्द रेड्डी
डी-19,सेक्टर-1,देवेन्द्र नगर
रायपुर-492001(छत्तीसगढ़)         
तो सरकार देगी प्रेस को लाइसेंस!
सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी गांधी परिवार के प्रेस को सरकार की कठपुतली बनाने के दशकों पुराने एजेंडे को ही छुपे दरवाजे से लाने की कोशिश कर रहे हैं। बड़बोले मनीष का कहना है कि डाक्टरों और वकीलों की तरह पत्रकारों के लिए भी एक साझा परीक्षा कराई जाए और इसके बाद ही उन्हें काम करने का लाइसेंस दिय जाना चाहिए। सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने यह ह्यसुझावह्ण देकर पहले से ही अपनी पैदा की तमाम मुश्किलों में फंसी सरकार को एक और झटका दिया है। लेकिन यह अनजाने में नहीं बल्कि सोच-समझकर दिया गया ह्यसुझावह्ण है। तिवारी ने इसे एक सेमिनार में इसलिए रखा ताकि यह उनका सरकारी बयान न लगे और इस तरह सरकार के विचार चर्चा के लिए जनता के बीच भी चले जाएं।
मनीष तिवारी अच्छी तरह जानते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 19(1) (अ) में साफ लिखा है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है और प्रेस की स्वतंत्रता भी इसी के तहत आती है। इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ जरूरी प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं जिनका उल्लेख अनुच्छेद 19 (2) में है। सरकार इस अधिकार पर प्रतिबंध तभी लगा सकती है जब वह भारत की एकता, अखंडता या सुरक्षा के खिलाफ हो। लोगों के लिए परेशानी पैदा करने वाला हो। जनता को उकसाने वाली कार्रवाई हो। साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने वाला हो। अदालत की अवमानना होती हो या किसी की मानहानि करने वाला हो। इसके अलावा किसी भी और तरीके से सरकार व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या प्रेस की आजादी पर और कोई भी प्रतिबंध नहीं लगा सकती है। और फिर अब तो ह्यसोशल मीडियाह्ण भी पत्रकारिता का हिस्सा है और उस पर तो किसी तरह की रोक संभव नहीं है। ब्लाग, फेसबुक, ट्विटर पर अपने विचार व्यक्त करने या फिर यू ट्यूब पर कोई वीडियो अपलोड करना- क्या इसके लिए भी सरकार लाइसेंस प्रणाली लागू कर सकेगी। किसी को दिवास्वप्न में भी क्या यह संभव दिखता है।
आज सरकार कानून से लेकर जनहित तक बड़े पैमाने पर खुद के पैदा किए संकटों से घिरी है। समाज में उसके खिलाफ व्यापक आक्रोश है।  ऐसे में यह सहज ही है कि वह मीडिया को नियंत्रित करने के मंसूबे पाले। ऐसा करके वह उस पर काफी हद तक रोक लगा लेगी। नि:संदेह यह सोच बचकानी है, पर 1975 में इमरजेंसी लगाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसकी राह पहले ही दिखा चुकी हैं। सरकार जाने का संकट सामने था। सरकार हर मोर्चे पर विफल हो चुकी थी और जनता में उसके खिलाफ भरपूर गुस्सा था।  ऐसे में उन्होंने चारों समाचार एजेंसियों यूएनआई, पीटीआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती को मिलाकर ह्यसमाचारह्ण नाम की संस्था बना दी थी। जो भी सामग्री अखबारों को दी जाती थी वह पहले सरकारी अधिकारियों की नजरों से गुजरती थी कि उसमें सरकार के खिलाफ तो कोई बात नहीं है। उस दौर में तमाम अखबारों ने संपादकीय छापने बंद कर दिए थे। पत्रकारों के खिलाफ सरकार ने तमाम दमनात्मक कार्रवाइयां की  थीं।
पर यह 1975 नहीं है। इसलिए अत्यंत सतर्कता बरतते हुए तिवारी ने पत्रकारों को एक परीक्षा कराकर काम करने का लाइसेंस दिए जाने का ह्यसुझावह्ण रखा है, जिसका मकसद पत्रकारिता  में गुणवत्ता में बढ़ोतरी लाना बताया जा रहा है। उनके इस ह्यसुझावह्ण पर विरोध जोर पकड़ रहा है। सरकार ने जरा भी जिद दिखाई तो यह उसके चुनाव में हारने का  खुला संकेत होगा, ऐसा मीडिया के विश्लेषक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता के लिए काम कर चुके प्रो़ एसके तिवारी का कहना है।                प्रतिनिधि

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