कल्पनातीत मन की महिमा अपार
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कल्पनातीत मन की महिमा अपार

by
Aug 24, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Aug 2013 13:52:43

 
एकं सत्-‘सत्य’ केवल एक है। मन के ही कारण यह ‘एक’ बहु रूपों में प्रतिभासित होता है। जब हमें बहुत्व का बोध होता है, तब एकत्व हमारे लिए नहीं रहता और ज्योंही हम एकत्व को देखने लगते हैं, बहुत्व अदृश्य हो जाता है। दैनिक जीवन का ही उदाहरण लो-जब तुम्हें एकता का बोध होता है, तब तुम्हें अनेकता नहीं दिख पड़ती। प्रारम्भ में तुम एकता ही को लेकर चलते हो। यह एक अनोखी बात है कि चीन का मनुष्य अमरीका निवासियों की आकृति के अन्तर को नहीं पहचान पाता, और तुम लोग चीन निवासियों की आकृति के अन्तर को नहीं जान सकोगे।
ईश्वर तर्क नहीं करता यदि तुम्हें किसी वस्तु का ज्ञान है तो तुम उसके लिए तर्क क्यों करोगे?यह तो दुर्बलता का लक्षण है कि हमें कुछ तथ्यों के संग्रह के लिए कीड़ों के समान इधर-उधर रेंगना पड़ता है- बड़Þा कष्ट उठाना पड़ता है, और बाद में हमारे सब प्रयत्न धूल में मिल जाते हैं। आत्मा ही मन तथा प्रत्येक वस्तु में प्रतिबिम्बित होती है। आत्मा का प्रकाश ही मन को चैतन्य प्रदान करता है। प्रत्येक वस्तु आत्मा का ही प्रकाश है, मन विभिन्न दर्पणों के समान है। जिन्हें तुम प्रेम, भय, घृणा, सद्गुण और दुर्गुण कहते हो, वे सब आत्मा ही के प्रतिबिम्ब हैं। जब दर्पण मैला रहता है तो प्रतिबिम्ब भी बुरा  आता है।
वास्तविक सत्ता (ब्रह्म) अव्यक्त है। हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि कल्पना हमें मन से करनी पड़ती है और मन स्वयं एक अभिव्यक्ति है। वह कल्पनातीत है, यही उसकी महिमा है। हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि जीवन में हम न तो प्रकाश का उच्चतम स्पन्दन ही देख पाते हैं, न निम्नतम, वे सत्ता के दो विरोधी ध्रुव है। कुछ ऐसी वस्तुएं हैं जिन्हें हम आज नहीं जानते, पर जिनका ज्ञान हमें हो सकता है। अपने अज्ञान के कारण ही हम उन्हें आज नहीं जानते। परन्तु कुछ ऐसी भी बातें हैं जिनका ज्ञान हमें कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वे ज्ञान के उच्चतम स्पन्दनों से भी उच्च है। हम सदा ही वही ‘सनातन पुरुष’ है, यद्यपि हम इसे जान नहीं सकते। उस अवस्था में ज्ञान असम्भव है। विचार की ससीमता ही उसके अस्तित्व का आधार है। उदाहरणार्थ, मुझमें अपनी आत्मा के अस्तित्व से अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं है, फिर भी, यदि मैं आत्मा के अस्तित्व से अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं है, फिर भी, यदि मैं आत्मा के बारे में सोचना चाहूं तो केवल यही सोच सकता हूं कि वह या तो शरीर है या मन, सुखी है या दु:खी, अथवा स्त्री है या पुरुष। यदि मैं उसे उसके यथार्थ स्वरूप में जानना चाहूं तो प्रतीत होता है कि इसके लिए उसे निम्न स्तर पर खींच लाने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है। फिर भी, आत्मा के यथार्थ अस्तित्व के बारे में मुझे पूर्ण निश्चय है। ‘‘हे प्रिये, कोई स्त्री पति को पति के लिए प्रेम नहीं करती, किन्तु इसलिए कि वही आत्मा पति में भी अवस्थित है। हे प्रिये, कोई मनुष्य पत्नी को पत्नी के लिए प्यार नहीं करता, किन्तु इसलिए कि वही आत्मा पत्नी में भी अव्यस्थित है।’आत्मा के द्वारा और आत्मा के लिए ही प्रेम किया जाता है।’’ और आत्मा ही एकमात्र ऐसी सत्ता है जिसे हम जानते हैं, क्योंकि उसी में से और उसी के द्वारा हमें अन्य सब वस्तुओं का ज्ञान होता है, परन्तु फिर भी हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते। विज्ञातारमरे केन विजानीयात्? ज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं। यदि हम उसे जान जाएं तो वह ज्ञाता नहीं रह जाएगा।-ज्ञेय हो जाएगा, वह विषय हो जाएगा।
जिसे सर्वोच्च अनुभूति हो गयी है, वह कह उठता है,‘मैं राजाधिराज हूं, मुझसे बड़ा राजा और कोई नहीं है। मैं देवदेव हूं, मुझसे बड़ा देवता और कोई नहीं है। केवल मैं ही वर्तमान हूं-एकमेवाद्वितीयम्।’ वेदान्त का यह अद्वैत भाव बहुतों को बड़ा भयानक दिखता जरूर है, परन्तु वह केवल अंधविश्वास के कारण है।
हम आत्मा हैं, सर्वदा शान्त और निष्क्रिय हैं। हमें रोना नहीं चाहिए। आत्मा के लिए रोना कैसा! हम अपनी कल्पना में सोचते हैं कि भगवान करुणाभिभूत हो अपने सिंहासन पर बैठे हुए रो रहे हैं। ऐसे भगवान की प्राप्ति से क्या लाभ? भगवान रोयें ही क्यों! रोना  तो दुर्बलता का चिह्न है-बन्धन का लक्षण है।
सर्वोच्च को खोजो, सर्वदा सर्वोच्च को ही खोजो, क्योंकि सर्वोच्च में ही शाश्वत आनन्द है, यदि मुझे शिकार करना ही हो तो मैं शेर का शिकार करूंगा। यदि मुझे डाका डालना ही हो तो किसी धनिक के खजाने में डाका डालूंगा। सदा सर्वोच्च को ही ढूंढ़ो।
अहा! जिन्हें सीमाबद्ध    नहीं किया जा सकता, मन और वाणी जिनका वर्णन नहीं कर सकती, हृदय में ही जिनका अनुभव किया जा सकता है, जो समस्त तुलना से परे हैं, सीमा के अतीत हैं और नीलाकाश की भांति अपरिवर्तनशील हैं, हे साधो, उन्हीं सर्वस्वरूप को- उन्हीं ‘एक’ को जानो, और कुछ न खोजो!
हे साधो, प्रकृति के परिणाम जिन्हें स्पर्श नहीं कर सकते, जो विचार से भी परे हैं, जो अचल और अपरिवर्तनशील हैं, समस्त शास्त्र जिनका निर्देश कर रहे हैं और जो ऋषि-मुनियों के आराध्य हैं, केवल उन्हीं को खोजो!
वे अनन्त एकरस हैं, तुलनातीत हैं। वहां कोई तुलना सम्भव नहीं। ऊपर जल, नीचे जल, दायीं ओर जल, बायीं ओर जल, सर्वत्र जल ही जल है, उस जल में एक भी तरंग नहीं, एक भी लहर नहीं, सब शान्त-नीरव, सब शाश्वत आनन्द! ऐसी ही अनुभूति तुम्हारे हृदय में होगी। अन्य किसी की चाह न रखो!
तू क्यों रोता है, भाई? तेरे लिए न मृत्यु है, न रोग। तू क्यों रोता है, भाई? तेरे लिए न दु:ख है, न शोक। तू क्यों रोता   है, भाई ये तेरे विषय में परिणाम या मृत्यु की बात कही ही नहीं गयी। तू  तो सत्स्वरूप है।
मैं जानता हूं कि ईश्वर क्या है- पर मैं तुम्हें बतला नहीं सकता। मैं नहीं जानता कि परमात्मा है- अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जा।
तू ही हमारा पिता, माता एवं प्रिय मित्र है। तू ही संसार का भार वहन करता है। अपने जीवन का भार वहन करने में हमें तू सहायता दे। तू ही हमारा मित्र है, हमारा प्रयितम है, हमारा पद्धति है-तू ही ‘हम’ है!

 

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