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ह्यआइ एम द किंग ऑफ रियासत बट दिस परसन इज द किंग ऑफ डेमोक्रेसीह्ण यानी मैं तो एक रियासत का राजा हूं लेकिन ये महानुभाव (जूदेव) लोकतंत्र के राजा हैं। इन्हें जनता चुनती है। राजस्थान के महाराजा ने अपने विदेशी मेहमानों से दिलीपसिंह जूदेव का परिचय कभी इसी अंदाज में करवाया था। रौबीले चेहरे की शान बन चुकी घनी मूंछों पर ताव देते शख्स के तौर पर, मेरी तरह हिन्दुस्थानियों को भी दो ही चेहरे नजर आते हैं। एक थे देश की आजादी के नायक चंद्रशेखर आजाद और दूसरे जशपुर नरेश दिलीप सिंह जूदेव, जो हमारे बीच अब नहीं रहे। 14 अगस्त 2013 को गुड़गांव (हरियाणा) के मेदांता अस्पताल में कई दिनों तक जिन्दगी और मौत से संघर्ष करने के बाद उन्होंने अंतिम सांसें लीं।
इस दु:ख भरे क्षण में ना चाहते हुए भी यह बात कहनी पड़ रही है कि बीते कुछ समय से जशपुर राजघराने पर अपशकुनों की छाया मंडरा रही है। हम भूले नहीं हैं कि चंद महीने पूर्व ही उन्होंने अपने बड़े बेटे शत्रुंजय प्रताप सिंह को अकाल मृत्यु के हाथों खोया था और चंद महीने बाद ही माँ जयादेवी का हाथ भी उनके सर से उठ गया था। ढलती उम्र और छोटी-मोटी बीमारियों से जूझ रहे जूदेव को बड़े बेटे की मौत ने हिला कर रख दिया था। दरअसल वे उनमें अपना राजनीतिक वारिस खोज रहे थे। सब कुछ ठीक-ठाक रहता तो बिलासपुर का अगला सांसद जूदेव नहीं बल्कि उनके सुपुत्र शत्रुंजय बनते। खुद जूदेव के जनाधार का आलम देखिये कि उनके नाम पर ह्यजूदेव सेनाह्ण तक बनाई गई, लेकिन इसका इस्तेमाल उन्होंने अन्य राजनीतिज्ञों की तरह कभी भी पार्टी को ब्लैकमेल करने या किसी को सबक सिखाने के लिये नहीं किया।
भाजपा के लिये अपूरणीय क्षति और हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीति का कभी ना भरा जाने वाला शून्य। देश की सियासत से लेकर छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार तैयार करने वालों में जिन नेताओं को खासा याद किया जायेगा, जूदेव उनमें से एक होंगे। शरीर पर फौजी वर्दी, हाथ में हिन्दुत्व का झंडा और मतान्तरणवादी ईसाई मिशनरियों के पुराने प्रतिद्वंद्वी, लेकिन हिन्दू हृदय सम्राट के तौर पर अपनी पहचान कायम रखने वाले दिलीपसिंह एक ऐसे नेता थे जिनके परिवार ने पहले जनसंघ और फिर भाजपा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। यह कहते हुए सुकून होता है कि संघर्षशील जनसंघ से लेकर भाजपा के युग तक जूदेव की तीसरी पीढ़ी पार्टी की सेवा में निष्ठा के साथ लगी है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1970 के दशक में, जब देश में एक ही पार्टी, कांग्रेस का राज था-जूदेव के पिताजी ने मात्र एक रात के फैसले में जनसंघ की तरफ से संसद का चुनाव लड़ने का फैसला केवल स्वीकार किया बल्कि पूंजी लगाकर दूसरे प्रत्याशियों का हौसला भी बढ़ाया। जूदेव पर कितने ही राजनीतिक आरोप लगे हों लेकिन आईना दिखाता सच यह है कि उन्होंने कई गरीब-गुरबों को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाया और मंत्री, विधायक व सांसद की कुर्सी दिलवाई।
एशिया का सबसे प्राचीनतम चर्च जशपुर में है तो अंदाजा लगाइये कि यहां पर चर्च की जड़ें कितनी मजबूत होंगी, लेकिन जूदेव होश संभालते ही उनके लिए हमेशा अजेय चुनौती बने रहे। हिन्दू से ईसाई बने लाखों लोगों को पुन: हिन्दू धर्म में लाने के लिये उन्होंने लम्बी लड़ाइयां इतने प्रभावी ढंग से लड़ीं कि 1988 के आसपास जशपुर की एक नन को अदालत ने जिलाबदर कर दिया था। वनवासियों के पैर धोकर उन्हें पुन: घर-वापसी कराते देखने पर यकीन नहीं होता था कि एक राजा के मन में हिन्दुत्व के प्रति कितनी श्रद्घा और विश्वास था।
जशपुर नरेश जूदेव ताउम्र राजा की तरह जिए, राजा की तरह दहाड़े और उनकी विदाई भी राजा की तरह हुई। राजनीतिक नुमाइंदे भूले ना होंगे कि अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में उन्होंने पहला चुनाव अर्जुनसिंह के खिलाफ दमदारी से लड़ा था। यह कतई छुपा नहीं है कि जोगी और जूदेव परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बनकर एक-दूसरे को पछाड़ते रहे, लेकिन राजनीतिक कड़वाहट के लिये जूदेव के मन और जुबान पर कोई स्थान ना था। पिछले लोकसभा चुनाव में जब उन्होंने ड़ा रेणु जोगी को हराया तो भावनाओं के प्रगटीकरण में वे यह कहना नहीं भूले कि ह्ययदि मैं हार भी जाता तो रेणु जोगी जैसी महिला से हारने का संतोष होता।ह्ण
जूदेवजी दिल से राजा थे। सड़क से लेकर संसद तक, आम से लेकर खास तक से खुद आगे बढ़कर हाथ मिलाने की उनकी अदा लोगों का दिल जीतती थी। दोस्ती निभाने या मेहमाननवाजी करने में उनका कोई मुकाबला नहीं था। सिद्घांतों और पार्टी की इज्जत के लिये जूदेव ह्यसिंहह्ण की तरह लड़े। सन् 2003 में जोगी सरकार के खिलाफ ताल ठोंकने की बारी आई तो उन्होंने अपनी पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलवाई।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार दस सालों से चल रही है। मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक से कई बार कई मुद्दों पर मतभेद होते थे, मगर पार्टी की खातिर दिलीप सिंह जूदेव ने सार्वजनिक तौर पर कभी कुछ नहीं कहा।
दिलीप सिंह जूदेव तो चले गये, लेकिन युद्घवीर सिंह के लिये एक निर्मम सच्चाई यह है कि वे एक ऐसे कुरुक्षेत्र में खड़े हैं जहां परिवार से लेकर क्षेत्र की जनता के लिए, अपने राजनीतिक कैरियर और पिता के सपनों को पूरा करने के लिए हर मोर्चे पर लड़ना-जीतना होगा। युद्घवीर इस महासमर में विजयी होकर निकलेंगे, ऐसी अपेक्षा है।
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