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कहावत है यथा राजा तथा प्रजा। नेता ईमानदार होंगे तो नागरिक ईमानदारी के रास्ते पर चलेंगे। किसी समय मुझे कोलकाता जाने का अवसर मिला था। वहां टैक्सी चालक ने मीटर से अधिक किराया लिया। मैंने विरोध किया तो उसने जवाब दिया, ह्यजब प्रधानमंत्री ही भ्रष्ट हैं तो मेरे भ्रष्ट होने में आपको क्या एतराज है।ह्ण देश को सुदिशा देने के लिए जरूरी है कि मंत्री ईमानदार हों-विशेषकर प्रधानमंत्री। कोयला घोटाले की फाइलों का गायब होना चिंताजनक है। चूंकि ये फाइलें उस समय की हैं जब मनमोहन सिंह कोयला मंत्री थे। मनमोहन सिंह के भ्रष्ट होने का संदेह मात्र होना देश के नागरिकों को भ्रष्टाचार की हरी झंडी देता है।
वास्तव में मंत्री के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त होना सहज होता है। मंत्री जी इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध धन के तालाब में तैरते रहते हैं कि कुछ निकाल लेने का प्रलोभन सहज ही उत्पन्न हो जाता है। इसीलिए कहा गया कि सरकारी कर्मियों द्वारा राजस्व की चोरी का पता लगाना उतना ही कठिन है जितना कि पता लगाना कि मछली ने तालाब में कितना पानी पिया है।
गांधी जी को इस समस्या का पूर्वाभास था। स्वतंत्रता के बाद उनके पास मंत्रियों के भ्रष्टाचार की शिकायतें आने लगी थीं। अपनी मृत्यु के दो दिन पहले उन्होंने कांग्रेस के लिए नए संविधान का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने जो लिखा उसका आशय इस प्रकार है: ह्यएआईसीसी प्रस्ताव पारित करती है कि वर्तमान कांग्रेस संगठन को भंग करके लोक सेवक संघ की स्थापना की जाए। लोक सेवक संघ के कार्यकर्त्ता मतदाताओं के बीच रहेंगे। वे मतदाता को दिशा देंगे कि ऐसे व्यक्ति को सरकार में भेजा जाए जो उसकी इच्छानुकूल हो। लोक सेवक संघ के कार्यकर्त्ता यदि स्वयं सरकार में जाएंगे तो वे सत्ता की भ्रष्ट गतिविधियों द्वारा प्रभावित होंगे। मैं चाहता हूं कि लोक सेवक संघ के कार्यकर्त्ता मतदाताओं को शिक्षित करके संसद को नियंत्रण में रखें।ह्ण गांधी जी ने देख लिया था कि जो व्यक्ति सत्ता में जाएगा उसके भ्रष्ट हो जाने की पूरी संभावना है। इसलिए वे ऐसी व्यवस्था खड़ी करना चाहते थे जो बाहर रहकर मंत्रियों पर दबाव बना सके, जिससे वे भ्रष्ट न हों।
लेनिन को भी इसी प्रकार की चिंता थी। उन्हें शंका थी कि बोलशेविक क्रांति के नेताओं का पतन हो सकता है। उन्होंने क्रांतिकारियों का आवाहन किया कि वे सरकार में हिस्सा लेने के स्थान पर कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ें। पार्टी के कार्यकर्त्ता के रूप में वे सत्ता से अलग रहें। जनता के बीच रहकर वे सरकार को दिशा दें। सरकार गलत दिशा में जाए तो पार्टी दबाव डाले। नेताओं द्वारा सही नीतियां एवं आचरण नहीं किया गया तो पार्टी द्वारा सरकार में बदलाव भी लाया जा सकता है। किन्तु स्तालिन ने लेनिन की इस सोच को नकार दिया। उन्होंने सरकार के मुखिया और पार्टी के सचिव दोनों पदों पर अपने को नियुक्त करा लिया। सरकार पर पार्टी का अंकुश समाप्त हो गया और सरकार गलत दिशा में चल पड़ी जिसका परिणाम तीन दशक बाद सोवियत रूस के विघटन के रूप में सामने आया।
इसी बात को मनुस्मृति में दूसरे ढंग से बताया गया है। कहा गया है कि ब्राह्मण ही क्षत्रिय पर नियंत्रण कर सकता है। यहां ब्राह्मण का अर्थ जन्मता पंडित से नहीं बल्कि फकीर से लेना चाहिए। मनुस्मृति का मानना है कि वह व्यक्ति ही सरकार पर अंकुश कर सकता है जिसकी जीविका सादी एवं स्वतंत्र हो। मैं समझता हूं कि भारतीय जनता पार्टी में जो थोड़ा संयम दिखाई देता है वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नियंत्रण के कारण ही है।
यूपीए सरकार ने आधे मन से इस फार्मूला को लागू करने का प्रयास किया है। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) का गठन किया गया है। एनएसी ने कई अच्छे सुझाव भी दिए हैं। परंतु एनएसी के पास सरकार को किसी दिशा में चलने को मजबूर करने की ताकत नहीं है। एनएसी केवल नीति के स्तर पर सुझाव दे सकती है। एनएसी की संगठनात्मक ताकत शून्य है। इसलिए सरकार पर नियंत्रण की जिम्मेदारी अध्यक्ष सोनिया गांधी पर आती है। पुन: स्तालिन वाली समस्या है। सोनिया सरकार की प्रमुख भी हैं और सरकार की नियंत्रक भी। दोनों जिम्मेदारियों का एक साथ निर्वाह करना असंभव है। पार्टी के अध्यक्ष के रूप में सोनिया के लिए प्राथमिकता गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान व्यक्तियों को बढ़ाने की रहती है। इसलिए उनके द्वारा भ्रष्ट व्यक्तियों को लगातार मुख्यमंत्री बनाया जाता रहा है। उनके परिवार पर बोफोर्स कांड के आरोप सिद्ध भले ही न हो सके हों परंतु संदेह बना रहता है। इसलिए भ्रष्टाचार के स्तर पर यूपीए अध्यक्ष का मंत्रियों पर अंकुश फेल है। बात बची मनमोहन सिंह की। उनकी स्थिति चोरों के गिरोह के ईमानदार ड्राइवर की है। ड्राइवर चाहे जितना कहे कि उसने ईमानदारी से अपने मालिक की सेवा की है, जनता उसे चोर ही समझेगी। मनमोहन सिंह को समझना चाहिए कि भ्रष्ट लोगों के गिरोह का मूक नेतृत्व करके वे समाज के नैतिक मूल्यों को अंदर से खोखला कर रहे हैं। भरत झुनझुनवाला
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