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शिक्षा में भारत की नई पीढ़ी को धुंधलके में धकेल रही सरकार
दुनिया के दो महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने हैं। एक ओर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1945 में जापान के दो प्रमुख शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीका ने परमाणु बम का प्रयोग करके जापान का सर्वनाश कर दिया था। वहीं दूसरी ओर 1947 में भारतीयों ने भारत को मुगलों और अंग्रेजों की लूट की श्रंृखला से मुक्ति दिलवायी थी। फिर भी 1947 में हम दुनिया के किसी देश के कर्जदार नहीं थे बल्कि कुछ देश हमारे कर्जदार थे। शिक्षा की दृष्टि से एशिया के चीन और कोरिया हमारे बराबर थे। अमरीका की मुद्रा डालर और भारत की मुद्रा रुपया समान स्तर पर थी। किन्तु आजादी के बाद जिन देशी लुटेरों का राज अधिकांश समय तक भारत पर रहा उन्होंने केवल अपनी और अपने खानदान की तिजोरियां ही भरी हैं तथा अपनी अवैध कमाई का कालाधन विदेशों में जमा करने पर ज्यादा जोर दिया है।
उन्होंने अपनी भारत विरोधी और भारतीयता को कमजोर करने वाली साजिशों पर पर्दा डालने के लिए जरूरी समझा कि यहां के युवकों को प्रगति के पथ पर ले जाने वाली शिक्षा से वंचित किया जाय। इसलिए यही काम इन शासकों ने किया और भारत विकास शिखर को स्पर्श नहीं कर सका। जबकि 1945 में राख के ढेर में से तनकर खड़ा हुआ जापान हमसे कई गुना आगे निकल गया। इसके कुछ छोटे-मोटे कारण भी हो सकते हैं किन्तु मूल कारण यह है कि जापान ने अपनी शिक्षा पर बहुत जोर दिया। जबकि भारत केवल अंग्रेजों की बनायी गयी शिक्षा नीति के आधार पर पिछलग्गू बनकर चलने पर ही ध्यान देता रहा है। हमने भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने के स्थान पर अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने पर ज्यादा जोर लगाया।
इसका दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि अंग्रेजी भाषा भारत और भारतीयता के प्रति श्रद्धा का निर्माण नहीं कर सकती, क्योंकि उसकी पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस से ज्यादा मेल खाती है। अंग्रेज वैज्ञानिक, अंग्रेज साहित्यकार, अंग्रेज व्यक्तित्व उस पाठ्यपुस्तक में महत्वपूर्ण दर्शाये जाते हैं। भारतीयता का स्पर्श नाममात्र का होता है। फिर ऐसी अंग्रेजी को पढ़ने वाला दो प्रतिशत का अभिजात्य वर्ग अपने को ज्यादा कुलीन, अंग्रेजों की लुटेरी वंशावली का रक्षक, उनके शासन का उत्तराधिकारी तथा भारत के 98 प्रतिशत आम आदमी को शासित तो मानेगा ही। उसका सौ प्रतिशत भारतीयों से प्यार होने का कोई उपाय हमने शिक्षा में नहीं खोजा।
गांधी जी ने हिंद स्वराज में लिखा है कि सामूहिक रूप से गिरे वे ही लोग हैं जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा पायी है। इसलिए पश्चिमी सभ्यता को निकालकर फेंक दो बाकी सब अपने आप ठीक हो जायेगा। आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में तमाम आयोग और समितियां बनीं किन्तु उनकी रपटों का सारतत्व कूड़ेदान में फेंक दिया गया, केवल वाहवाही लूटने की कोशिश की गयी, शिक्षा को प्रयोगवाद का शिकार बना दिया गया।
1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने धार्मिक और नैतिक शिक्षा पर बल दिया। 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने मूल्य परक शिक्षा एवं मुदालियर आयोग ने नैतिकता और आध्यात्मिक शिक्षा पर जोर दिया। 1959 में शिक्षा के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड द्वारा गठित श्रीप्रकाश कमेटी ने प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक मूल्य परक नैतिक शिक्षा के पठन-पाठन की सिफारिश की। 1964-66 में कोठारी आयोग ने केन्द्र और राज्य सरकारों को अपनी अधीनस्थ शिक्षण संस्थाओं में नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबंध करने की संस्तुति की। 1967 में संसद सदस्यों की शिक्षा संबंधी उपसमिति ने कोठारी आयोग की सिफारिशों पर अपनी सहमति व्यक्त की। 1975 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद ने ऐसे पाठ्यक्रमों की रचना पर बल दिया जो चरित्र निर्माण में सहायक हों। 1978 में माध्यमिक बोर्डों के नवम् वार्षिक सम्मेलन में भी यही बात स्वीकार करते हुए कहा गया कि इससे व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होगा। 1979 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम तथा पाठ्येतर क्रियाकलापों के अन्तर्गत नैतिक शिक्षा पर बल दिया गया। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम परिवर्तन करके सामाजिक और नैतिक मूल्यों वाली शिक्षा देने की सिफारिश की गयी। उसमें यह भी कहा गया कि जीवनमूल्यों की शिक्षा का स्रोत भारतीय संस्कृति होनी चाहिए।
किन्तु नैतिक शिक्षा तो विद्यालयीन शिक्षा तक ग्रेडिंग की नौटंकी के रूप में बची भी है जबकि विश्वविद्यालयीन शिक्षा में इसे कोई स्थान नहीं मिल सका, बाकी सिफारिशों की तो बात ही छोड़ दीजिए। आजादी के 7वें दशक में हमने मूल्यपरक शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ ही भुला दिया। यही शिक्षा का भी वास्तविक उद्देश्य है। मूल्यपरक शिक्षा इस यात्रा में मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करती है। व्यक्तिगत जीवन की श्रेष्ठता और सिद्धता से आगे बढ़कर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन की संवेदनशीलता तथा विवेक सम्मत ज्ञान की प्राप्ति आध्यात्मिक शिक्षा है।
भारत का तमाम प्राचीन ज्ञान वेद, उपनिषद, पुराण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में छिपा है, जिसे जानने के लिए संस्कृत का ज्ञान जरूरी है। किन्तु भारत में ऐसी हवा फैला दी गयी है कि संस्कृत तो केवल पूजा पाठ की भाषा है। अभी कुछ दिन पहले तक उ.प्र. के राज्यपाल थे टी.वी. राजेश्वर। वे कुलाधिपति के रूप में सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के दीक्षांत सामरोह में गये। वहां उन्होंने संस्कृत के विद्वानों से कहा कि संस्कृत पढ़ने का अर्थ है बैलगाड़ी युग में जीना। यदि प्रगति करनी है तो अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है। इतना सुनते ही वहां उपस्थित छात्र भड़क गये और मंच की तरफ कुर्सियां फेंकनी शुरू कर दीं। किसी तरह राज्यपाल पुलिस की सुरक्षा में निकले। भारत में यही ज्ञान सोनिया गांधी के चहेते तथा राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने भी परोसते हुये कहा कि प्राथमिक शिक्षा से अंग्रेजी अनिवार्य कर देनी चाहिए। इटली, जापान, चीन, रूस, जर्मनी आदि महाशक्ति बनने वाले देशों ने अपनी मातृभाषाओं में प्रगति के सारे सोपान पार किये, लेकिन भारत न जाने कौन सी मतिभ्रम का शिकार बन गया है कि बिना अंग्रेजी हमारी प्रगति हो ही नहीं सकती।
विद्वान मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बालक को जिस भाषा में सपना आता है यदि उसी भाषा में प्रारंभिक शिक्षा दी जाय तो वह ज्यादा प्रगति कर सकता है। पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि ह्यमैं वैज्ञानिक इसीलिए बन पाया क्योंकि मेरी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होने से मेरी नींव मजबूत थी।ह्ण यही बात प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु के पिता भगवान चन्द्र बसु, जो ब्रिटिश हुकमूत में डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, कहा करते थे कि अंग्रेजी जानने से पहले मातृभाषा में अपना धरातल मजबूत होना चाहिए। लेकिन स्वतंत्रता के बाद केवल अंग्रेजी पर जोर होने के कारण हम बहुआयामी शिक्षा नहीं दे सके। यहां तक कि रोजगार सृजक शिक्षा देने की तरफ दृष्टि ही नहीं उठायी, केवल बेरोजगारों की फौज तैयार करने में जुटे हैं। भारत में जो लोग रोजगार या व्यवसाय में लगे हैं उसमें से केवल 5 प्रतिशत ही प्रशिक्षित हैं जबकि कोरिया में 95 प्रतिशत, जापान में 80 प्रतिशत, जर्मनी में 75 प्रतिशत प्रशिक्षित लोग रोजगार या व्यवसाय में लगे हैं। यहां पर कभी तो यौन शिक्षा के नाम पर युवाओं में नग्नता फैलाने के षड्यंत्र रचे जाते हैं और कभी बालिग होने की उम्र 16 वर्ष करने पर जोर दिया जाता है। कभी विकृत इतिहास पढ़ाकर क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताने की कोशिश होती है, कभी आर्य बाहर से आये, यह भ्रम फैलाया जाता है। चन्द्रगुप्त, चाणक्य, पृथ्वीराज, राणा प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मीबाई ही नहीं रामायण, महाभारत तक को भुलाकर भारत की गौरवशाली परम्पराओं के प्रति अविश्वास और उपहास का भाव निर्माण करने की कोशिश की जाती है। इसी दुरावस्था के चलते प्रथम पंचवर्षीय योजना में शिक्षा पर 7.6 प्रतिशत बजट में खर्च करने का प्रावधान था किन्तु अब तो बारहवीं पंचवर्षीय योजना में मात्र 2.6 प्रतिशत ही कम हो रहा है। स्वतंत्रता के बाद हमने शिक्षा के क्षेत्र को ऐसी दुर्गति में पहुंचाया है।
1949 में चीन में 205 विश्वविद्यालय थे, जबकि आज 2000 हैं। भारत में 1947 में 26 विश्वविद्यालय थे आज 538 हैं जिनमें से 153 में बुनियादी सुविधाएं ही नहीं हैं। 26478 अन्य उच्च शिक्षा संस्थान हैं जिनमें से 9875 में बुनियादी जरूरतें पूरी नही हैं। केन्द्रीय विवि, आईआईएम, आईआईटी तथा एम्स जैसी 100 संस्थाएं हैं। अनेक निजी संस्थान तथा डीम्ड विश्वविद्यालय हैं जिनके कोई मानक ही नहीं हैं। इसी के चलते गत वर्ष 2012 में तकनीकी कालेजों में लगभग 2.5 लाख सीटों पर कोई प्रवेश लेने के लिए ही तैयार नहीं था। जबकि दूसरी ओर भारत से बड़ी मात्रा में छात्र-छात्राएं यूरोपीय देशों, अमरीका, आस्ट्रेलिया तथा सिंगापुर में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रतिवर्ष जाते हैं। यह केवल छात्रों के जाने भर का मामला नहीं है इससे खरबों रुपये की विदेशी मुद्रा फीस के रूप में दूसरे देशों को चली जाती है और हमारी अर्थव्यवस्था मुंह ताकती रहती है। हमारी प्रतिभाएं पलायन करके दुनिया के देशों के काम आ रही हैं। लेकिन हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में इन बातों की कोई चिंता नहीं की। 60 करोड़ के युवा भारत में हम प्रतिवर्ष पौने दो करोड़ से ज्यादा छात्रों की उच्च शिक्षा नहीं दे पाते। दुर्भाग्यवश क्यू.एस. वर्ल्ड रैकिंग में विश्व के 200 विश्वविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में भारत का एक भी नहीं है। एशिया के शीर्षस्थ 200 विश्वविद्यालयों में 100 तो चीन और दक्षिण कोरिया के ही हैं। इसमें भी सम्मिलित संख्या के आधार पर भारत पांचवें स्थान पर है। जब दुनिया का हर छठा व्यक्ति हिन्दुस्थान में रहता है तो भी हमारी शिक्षा की दुरावस्था देश को किस दिशा में धकेल रही है? आजादी का 7वां दशक इस सवाल का उत्तर जरूर चाहता है।
भारत की प्राथमिक शिक्षा के हालात भी कम चिंताजनक नहीं हैं। सन् 2012 में गैर सरकारी संगठन ह्यप्रथमह्ण ने अपनी ऐनुअल स्टेटस एजूकेशनल रपट में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये हैं। पहली कक्षा के 50 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कोई भाषा नहीं जानते। 57 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे अंग्रेजी नहीं जानते, जबकि जोर अंग्रेजी पर ही दिया जा रहा है। पांचवीं कक्षा के 58.3 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तक नहीं पढ़ सकते। पांचवीं कक्षा के 46.5 प्रतिशत बच्चों को घटाना तथा 75.2 प्रतिशत बच्चों को भाग करना नहीं आता। इस संगठन की गुणवत्ता परीक्षा में सरकारी स्कूलों के 47 प्रतिशत तथा निजी स्कूलों को 40 प्रतिशत बच्चे अऩुत्तीर्ण पाये गये।
दुर्भाग्य से, प्रतिभावान, विद्वान तथा नूतन ज्ञान के सृजनकर्ता शिक्षक और शिक्षाविदों को देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी नहीं दी गयी। शिक्षक को न तो हमने व्यवस्था का जनक बनने दिया और न ही नीतियों का निर्धारक। इसी कारण आजादी के सातवें दशक में हमारे नेताओं व सरकारों के पास इस बात का उत्तर नहीं है कि भारत महाशक्ति क्यों नहीं बना?
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