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अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने देश की अर्थव्यवस्था को पाताल में पहुंचाने का किया पुख्ता इंतजाम
पिछले मात्र तीन महीनों में 10 रुपए की गिरावट के साथ रुपए और डालर की विनिमय दर 64 रुपए पर पहुंच चुकी है। कहा जा रहा है कि थोड़े समय में रुपया 70 रुपए प्रति डालर तक भी गिर सकता है। उधर शेयर बाजार का सेंसेक्स भी कुल चार दिनों में 1461 अंक नीचे गिर गया। भारतीय स्टॉक मार्केट के कुल शेयरों का मूल्य 1 खरब डालर के आंकड़े से नीचे जा चुका है। गौरतलब है कि यह 2012 में 1़3 खरब डालर तक पहुंच चुका था। नीति-निर्माता, जो इस परिस्थिति को संकट नहीं मान रहे थे, अब चिंता में दिखाई दे रहे हैं। रिजर्व बैंक के गर्वनर का पद संभालने जा रहे प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रघु राजन का कहना था कि यह केवल भारत की चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि डालर के मुकाबले दूसरी मुद्राएं भी कमजोर हो रही हैं। यह सही है कि कुछ अन्य मुद्राएं भी कमजोर हो रही हैं, लेकिन अन्य देशों की तुलना में रुपया कहीं ज्यादा गिरा है। ह्यब्रिक्सह्ण देशों में से चीन और रूस अभी भी उस संकट में नही हैंै। हर देश की समस्याएं स्वयं की होती हैं और उनका समाधान भी उसे खुद खोजना होता है। भारतीय रुपए के अवमूल्यन की समस्या भारत की ही है।
बढ़ता भुगतान शेष और उसके कारण बढ़ता विदेशी मुद्रा संकट रुपए में कमजोरी का मुख्य कारण है। बढ़ता भुगतान शेष हमारे तेजी से बढ़ते आयातों और उसके मुकाबले पिछड़ते निर्यातों के कारण है। पिछले कई वर्षों से सरकार बढ़ते आयातों के मद्देनजर लगभग मूकदर्शक बनी हुई है। वर्ष 2011-12 में 50 अरब डालर सोने का और 10 अरब डालर चांदी का आयात हुआ। 2012-13 में भी सोने-चांदी का कुल आयात हल्का सा ही कम होकर 57 अरब डालर का रहा। इसी दौरान चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा 40 अरब डालर तक पहुंच गया। शेष दुनिया के साथ भी हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। उधर रुपए की कमजोरी के सामने सरकार असहाय महसूस कर रही है। भारतीय रिजर्व बैंक भी रुपए को थामने का खास प्रयास करता दिखाई नहीं दे रहा। सरकार और रिजर्व बैंक को डर है कि रुपए को थामने का कोई भी प्रयास हमारे विदेशी मुद्रा भंडारों को खतरे में डाल सकता है।
वापसी 1991 की
प्रधानमंत्री ने कुछ समय पहले राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में वर्ष 1991 की भीषण आर्थिक परिस्थितियों का हवाला दिया था और उनकी सरकार द्वारा उठाये गये कदमों की जरूरत को रेखांकित करने के लिए उन्होंने कहा था कि भारत की आर्थिक स्थिति इस हद तक खराब हो गई थी कि कोई भी देश भारत को छोटा ऋण देने के लिए भी तैयार नहीं था। देश को याद है कि उस समय विदेशी ऋण की वापसी हेतु पर्याप्त विदेशी मुद्रा के अभाव में भारत को अपना सोना विदेश भेजना पड़ा था। वह स्थिति देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो थी ही, हमारी प्रतिष्ठा को भी एक बड़ा धक्का उसके कारण लगा था। प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में यह कहा था कि हालांकि स्थिति इतनी खराब नहीं है, लेकिन कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे ताकि स्थिति बिगड़े नहीं। अभी हालात और बिगड़ने के बाद भी प्रधानमंत्री और उनके अन्य मंत्रीगण यही बात दोहरा रहे हैं कि स्थिति 1991 जैसी नहीं है।
गलत तर्क का सहारा
हालांकि प्रधानमंत्री यह दावा कर रहे हैं कि परिस्थिति 1990-91 जैसी नहीं है, लेकिन आंकड़े बयान करते हैं कि उनका तर्क सही नहीं है। देश का भुगतान घाटा, जो 1990-91 में जीडीपी का मात्र 3़3 प्रतिशत ही था, 2012-13 में जीडीपी के 6 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। 2008 में हमारे विदेशी मुद्रा भंडार 3 वर्षों के आयात के लिए काफी थे, अब 6 महीनों के आयात के लिए भी नाकाफी हैं। देश पर कर्ज, जो मार्च 2009 में मात्र 224.़5 अरब डालर ही था, बढ़कर 400 अरब डालर तक पहुंच गया है। सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि इनमें से काफी बड़ी मात्रा में विदेशी कर्ज अल्पकालिक है अथवा उसकी अदायगी एक साल के भीतर होने वाली है। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि देश की भुगतान स्थिति लगातार कमजोरी की ओर आगे बढ़ रही है। उधर हमारे विदेशी कर्ज के ऋण और मूल की अदायगी भी लगातार बढ़ती जा रही है, जो 2011-12 में 31़5 अरब डालर रही। विदेशी निवेशकों से आज हमें विदेशी मुद्रा के रूप में कुछ प्राप्त नहीं हो रहा। गौरतलब है कि 2012-13 में कुल 21 अरब डालर की एफडीआई देश में आई, जबकि इन विदेशी निवेशकों द्वारा ब्याज, डिविडेंट और रॉयल्टी के रूप में 31़2 अरब डालर विदेशों को अंतरित कर दिए गए।
ह्यसरप्लसह्ण से भुगतान घाटे की ओर
1990-91 में बनायी गयी नयी आर्थिक नीति में विदेशी निवेश पर ज्यादा जोर दिया गया। इसके लिए एफडीआई को आसान बनाया गया और आयात को पूरी तरह से खोल दिया गया। उस समय देश के कमजोर विदेशी मुद्रा भंडार को देखते हुए ये कदम उठाये गये थे। देखा जाये तो पिछले 20-22 वषोंर् में देश को किसी तरह के आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा। गौर करने वाली बात यह है कि ऐसा क्या हो गया कि इस दौरान रुपया 18 के स्तर से गिरते हुए 64 रुपये के स्तर पर आ गया और जानकारों का तो यहां तक मानना है कि यह 70 रुपये के स्तर तक भी जा सकता है? मौजूदा समय में देश में 200 अरब डलर का व्यापार घाटा और 100 अरब डलर का भुगतान घाटा हो गया है। वर्ष 2000-01 से 2003-04 के दौरान भुगतान शेष ह्यसरप्लसह्ण में चले जाने से देश के विदेशी मुद्रा भंडार में व्यापक बढ़ोतरी हुई थी। भंडार बढ़ने से हमें कुछ हद तक नुकसान भी होने लगा था। हालांकि, लंबी अवधि के कजोंर् को उनकी शर्तों की वजह से नहीं चुकाया जा सका, फिर भी काफी विदेशी कर्जे चुकाये गये।
बढ़ती महंगाई
देश में बढ़ती कीमतें आम आदमी की मुश्किलें लगातार बढ़ाती जा रही हैं। औद्योगिक उत्पादन की बढ़त लगभग शून्य पर पहुंच चुकी है। कृषि उत्पादन के बढ़ने की अपनी सीमाएं हैं। पिछली लगभग सात तिमाहियों से औद्योगिक उत्पादन में उठाव के कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहे। महंगाई केवल इसलिए नहीं है कि उत्पादन में वृद्घि नहीं हो पा रही है। यह इसलिए भी है कि सरकार के खर्चे लगातार बढ़ते जा रहे हैं और इसके चलते राजकोषीय घाटा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। जब इस घाटे की भरपाई उधार लेकर की जाती है, तो इससे सरकार पर ब्याज का बोझ बढ़ता है और इससे अगले वर्षों में राजकोषीय घाटा बढ़ता रहता है। यदि सरकार रिजर्व बैंक से उधार लेकर इस घाटे की भरपाई करती है, तो उससे देश में मुद्रा की पूर्ति बढ़ती है और महंगाई भी। पिछले वर्षों में देखने में आया है कि हर वर्ष मुद्रा की पूर्ति 20 प्रतिशत से भी अधिक गति से बढ़ रही है।
महंगाई बढ़ने का दूसरा कारण आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ना है। आयातित वस्तुओं, खासतौर पर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। लेकिन पिछले लगभग एक वर्ष से रुपए के अवमूल्यन के कारण भी कीमतें बढ़ रही हैं। रुपए का अवमूल्यन इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारा व्यापार घाटा और भुगतान शेष का घाटा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में जहां व्यापार घाटा मात्र 130 अरब डालर था, 2011-12 में वह बढ़कर 190 अरब डालर और 2012-13 में 200 अरब डालर तक पहुंच गया। रुपए पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते रुपया कमजोर हो रहा है और आयात महंगे होते जा रहे हैं।
लेकिन पिछले लगभग 3-4 वर्षों से (अपनी दूसरी पारी के दौरान), यह सरकार आर्थिक संकटों से घिरी हुई है। 2009 में आम चुनाव से पहले यूपीए-1 सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 9 रुपये की कमी थी, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए, उसके कुछ ही समय बाद दो किश्तों में पेट्रोल का दाम उससे ज्यादा बढ़ा दिया गया। 2010 में पेट्रोल की कीमतें कई बार बढ़ाई गईं। पहले से भारी मुद्रास्फीति की मार झेल रहा आम आदमी सरकार की इस नीति से बिल्कुल असहाय सा हो गया है।
लगातार बढ़ती पेट्रोल कीमतों के चलते दिल्ली में पेट्रोल लगभग 71.़5 रुपये प्रति लीटर हो गया। रसोई गैस पर 50 रुपये प्रति सिलेण्डर, डीजल पर 3 रुपये और कैरोसिन पर 2 रुपये प्रति लीटर बढ़ोतरी की गई और हाल ही में डीजल की कीमत में और वृद्घि की गई है। उल्लेखनीय है कि जुलाई 2010 में दिल्ली में पेट्रोल 43 रुपये प्रति लीटर बिकता था। इसी प्रकार डीजल और रसोई गैस भी आज के मुकाबले बहुत सस्ती थी। हालांकि पेट्रोलियम पदार्थों का बढ़ना कोई नई बात नहीं है। नया यह है कि पहले ये कीमतें सरकारी नियंत्रण में थीं, लेकिन जून 2010 से ये बाजारी नियंत्रण में चली गई।
एनडीए का कालखंड स्वर्णिम
आज महंगाई और ह्यग्रोथह्ण के बीच टकराव आ गया है। यूं कहें कि महंगाई ह्यग्रोथह्ण में ब्रेक लगा रही है। दूसरी ओर ग्रोथ में कमी का मतलब है, वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में कम वृद्घि। और इस कारण कीमतें थम नहीं पा रहीं। कह सकते हैं कि ग्रोथ बढ़ाने के लिए कीमतों को थामना जरूरी है और कीमतों को थामने के लिए ह्यग्रोथह्ण जरूरी है। चूंकि दोनों में एक विरोधाभास आ गया है, इसलिए अर्थव्यवस्था थम सी गई है और आम आदमी का जीवन दूभर हो रहा है। एनडीए सरकार के समय, देश में जीडीपी ह्यग्रोथह्ण की दर लगातार बढ़ रही थी। 1999 में राजग के शासन संभालने के बाद अगले पांच वर्ष में जीडीपी ह्यग्रोथह्ण औसतन 6़8 प्रतिशत रही। उधर महंगाई की दर भी मात्र 3़5 प्रतिशत ही रही। कीमतों और जीडीपी ह्यग्रोथह्ण के संतुलन की दृष्टि से वह कालखंड स्वर्णिम कहा जा सकता है।
आज भी देश को अनिवासी भारतीयों द्वारा 65 से 70 अरब डालर मिलते हैं, जिसमें कोई कमी नहीं आई है। उसी तरह से सॉफ्टवेयर निर्यातों से भी आमदनी पहले की तरह जारी है। लेकिन आज तेजी बढ़ते आयात और निर्यातों में ठहराव के चलते देश भयंकर भुगतान संकट में फंसता जा रहा है।
विदेशी निवेश नहीं इलाज
यह सही है कि भारत में आर्थिक हालात बिगड़े हुए हैं, लेकिन उसका इलाज विदेशी निवेश नहीं, अर्थव्यवस्था का सही प्रबंधन है। हम देख रहे हैं कि देश का विदेशी व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में विदेशी व्यापार घाटा 130 अरब डॉलर था, जबकि अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली विदेशी मुद्रा और सॉफ्टवेयर बीपीओ निर्यात इत्यादि से प्राप्तियां कुल 86 अरब डॉलर की थीं। इस भुगतान शेष को विदेशी निवेश से पाटा गया। सरकार द्वारा विदेशी निवेश के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वह है हमारे बढ़ते भुगतान शेष को पाटने की मजबूरी। कच्चा तेल और कुछ अन्य प्रकार के आयात करना देश की मजबूरी हो सकती है। लेकिन वर्ष 2011-12 में व्यापार घाटे में अभूतपूर्व वृद्घि देखने में आई, जबकि हमारा व्यापार घाटा बढ़कर 190 अरब डालर तक पहुंच गया। इतना बड़ा व्यापार घाटा पाटने के लिए विदेशी निवेश भी अपर्याप्त रहा और इसका असर यह हुआ कि देश में विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ने लगा। इसका सीधा-सीधा असर रुपये के मूल्य पर पड़ा और रुपया फरवरी 2012 में 48.7 रुपये प्रति डालर से कमजोर होता हुआ अब 64 रुपये प्रति डॉलर के आसपास पहुंच गया है।
रुपये के अवमूल्यन के कारण देश में कच्चे माल की कीमतें और ईंधन की कीमतें बढ़ने लगीं। उद्योग, जो पहले से ही ऊंची ब्याज दरों के कारण लागतों में वृद्घि का दंश झेल रहा था, को कच्चे माल और ईधन के लिए भी ऊंची कीमतें चुकानी पड़ रही हैं। औद्योगिक उत्पादक की वृद्घि दर घटते-घटते ऋणात्मक तक पहुंच गयी। औद्योगिक क्षेत्र न केवल बढ़ती लागतों के कारण प्रभावित हुआ, देश में स्थायी उपभोक्ता वस्तुओं जैसे- कार, इलेक्ट्रानिक्स और यहां तक कि घरों की मांग भी घटने लगी। भारी महंगाई के चलते रिजर्व बैंक ब्याज दरों को घटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आर्थिक जगत में यह चिंता व्याप्त हो गई है कि कहीं भारत की आर्थिक संवृद्घि की गाथा में लंबा अवरोध तो नहीं आ जाएगा।
ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी
भारतीय रिजर्व बैंक ने मार्च 2010 से लगातार 13 बार ह्यरेपोरेटह्ण और ह्यरिवर्स रेपोरेटह्ण में वृद्घि के कारण अब ये ब्याज दरें क्रमश: 8.़25 प्रतिशत और 7़25 प्रतिशत तक पहुंच गयीं जिसे अब घटा कर क्रमश: 7़.25 प्रतिशत और 6.़25 प्रतिशत किया गया है। भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि यह कदम लगातार बढ़ती महंगाई के मद्देनजर उठाया गया है। ह्यरेपोरेटह्ण वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं। ह्यरिवर्स रेपोरेटह्ण वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा करते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा मात्र 21 से भी कम महीनों में 13 बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी सीधे तौर पर संकुचनवादी मौद्रिक नीति मानी जा सकती है। सामान्य तौर पर माना जाता है कि महंगाई का प्रमुख कारण मांग में वृद्घि होता है। वस्तुओं की कम उपलब्धता और बढ़ती मांग कीमतों पर दबाव बनाती है, इसलिए रिजर्व बैंक परंपरागत तौर पर ब्याज दरों में वृद्घि कर कीमतों को शांत करने का प्रयास करता है। लेकिन विडंबना यह है कि इतने कम समय में ब्याज दरों में भारी वृद्घि के बावजूद कीमत वृद्घि थमने का नाम नहीं ले रही। लेकिन रिजर्व बैंक की मृग-मरीचिका का कोई अंत नहीं है।
ऐसे में देश की सरकार अपनी कमजोरियों और कुप्रबंधन को छुपाने के लिए सारा दोष राजनीतिक परिस्थितियों को दे रही है और खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश खोलने और नए विधेयकों को पारित करने को ही समाधान बता रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था की दुर्दशा इन नई नीतियों के रुकने से नहीं है, वास्तव में सरकार के अभूतपूर्व कुप्रबंधन के कारण है।
क्या करे सरकार?
देश भयंकर विदेशी मुद्रा संकट की ओर बढ़ रहा है। निर्यातों को बढ़ाने के सभी प्रयास असफल होते दिखाई दे रहे हैं, जबकि आयतों की बढ़ने की गति और तेज होती जा रही है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार उपभोक्ता वस्तुओं, टेलीकॉम, पावर प्लांट और अन्य परियोजना वस्तुओं (खासतौर पर चीन से) के आयातों पर पाबंदी लगाए। सोना-चांदी के आयातों पर प्रभावी नियंत्रण लगे, विदेशी संस्थागत निवेशकों के निवेशों पर तीन साल का ह्यलॉक-इन पीरियडह्ण का प्रावधान लागू किया जाए और विदेशी कंपनियों द्वारा अनधिकृत रूप से किए जा रहे विदेशी मुद्रा अंतरणों पर प्रभावी रोक लगाई जाए। यदि सरकार ने ये कदम जल्दी नहीं उठाए तो देश भयंकर विदेशी मुद्रा संकट में फंस सकता है।
डॉ. अश्विनी महाजन (लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हैं
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