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सम्पादकीय : और कितना गिरोगे!

by
Aug 24, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Aug 2013 15:57:06

कहते हैं, स्याही की एक बूंद आपको विचारों के सागर में डुबो सकती है। ठीक, परंतु इसके साथ ही यह जोड़ लेना चाहिए कि इतिहास की स्याही कभी सूखती नहीं, समय आने पर पुराने संदर्भ हरे हो जाते हैं।
ह्यइंडियाज एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड द प्रोस्पेक्ट्स ऑफ सेल्फ सस्टेंड ग्रोथह्ण, यह शीर्षक लिखने में एक बूंद स्याही ही लगी होगी परंतु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के परास्नातक शोध प्रबंध पर आधारित इस प्रकाशन में ऐतिहासिक तथ्य और आत्मघाती नीतियों के उस भंवरजाल का जिक्र है जिनमें देश तब भी फंसा था, आज भी फंसा है और डूबता ही जा रहा है।
मगर गौर से देखें तो यहां सिर्फ स्याही नहीं है, भ्रष्टाचार की कालिख भी है। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की कलंक कथा रसातल में जाते सिक्के का ही एक पहलू है। 2जी, कोयला, राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर दामाद जी के जमीन घोटाले तक सूची बहुत लंबी है।
वैसे भी, कोयला मंत्रालय के लिए ह्यघपलाह्णऔर ह्यगायबह्ण नए शब्द नहीं हैं। सरकार के सबसे साफ चेहरे पर कोयला घोटाले के स्पष्ट आरोप लगते ही मामले की फाइलें गुम हो जाने की अंतर्कथा को समझने के लिए एक घटना का जिक्र जरूरी है।
वर्ष 1986 में चुर्चा कोलियरी चर्चा में थी। जहां दिन-दहाड़े भारी भरकम बेहद महंगी कन्वेयर बेल्ट ही गायब हो गई थी। अब कन्वेयर बेल्ट के सामने इन फाइलों की क्या बिसात!
वैसे, छींटों और छवि की रस्साकशी में फंसे प्रधानमंत्री का जीवन अजब संयोगों से भरा रहा है। यह सबके साथ नहीं होता कि आप जो सपना देखें, संकल्प व्यक्त करें, नियति आप को ठीक वही अवसर प्रदान कर दे। परंतु डॉ. मनमोहन सिंह को यह मौका मिला। छात्र जीवन में उन्होंने भारत की वित्त व्यवस्था को दिशा देने का सपना संजोया था। सत्ता के महलों से दूर, शोध प्रबंध लिखते हुए मनमोहन सिंह ने तब उलाहना दिया था कि ह्यदेश के नीति-निर्माता इस तरह काम कर रहे हैं कि मानो निर्यात से हुई आय में ठहराव एक असंभव समस्या है।ह्ण तब का तर्क आज उन्हीं पर ताने की तरह टिक गया है।
छीजते विदेशी मुद्रा भंडार और रुपए की दुर्गति की पटकथा को समझने के लिए ऐतिहासिक संदर्भ खंगालने में चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं। उदाहरण के लिए यह तथ्य कि आजादी के वक्त खुद ब्रिटेन भारत का कर्जदार था। एक अरब तीस करोड़ स्टर्लिंग पाउंड का वह कर्ज आज के हिसाब से करीब 1,30,80,86,65,000 रुपए बैठता है।
डॉलर और रुपए की अंतरराष्ट्रीय कीमत में तब कोई फर्क नहीं था। एक तोला सोना, डॉलर में लो या रुपए में, 88.62 रु. बैठता था। मगर फिसलन या चूक शुरू कहां हुई? दरअसल, राजकोषीय तंगहाली और कंगाली की पटकथा बचत, व्यापार और समृद्धि से जुड़े परंपरागत भारतीय प्रतीकों से छल और कल्पनातीत सरकारी भ्रष्टाचार की कहानी है।
बचत भारत के मानस में पीढि़यों से जमा विचार है। स्वर्ण क्रय क्षमता को समृद्धि के प्रतीक तौर पर देखने वाले देश में सोना गिरवी रखना अच्छा शगुन-संकेत नहीं माना जाता। मगर 1950 के जीप घोटाले के साथ-साथ ब्रिटिश स्टर्लिंग पूंजी को शुरुआती वर्षों में ही खर्च कर बैठी सरकारें 1991 आते-आते देश को इस हाल में ले आईं कि काफी सोना अन्य देशों को बेचने की नौबत आ गई। इसके अलावा भारतीय स्वर्ण भंडार का एक बड़ा भाग बैंक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखा गया।
विडंबना है कि तब देश के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ही थे जब विश्व बैंक से एक आपात ऋण पुनर्निर्धारण समझौते पर बातें चलीं। आर्थिक सुधारों के लिए पश्चिम ने बांह मरोड़ी तो मनमोहन इतना झुके जितनी विश्व बैंक को भी उम्मीद नहीं थी।
रुपए का रुतबा गिराने, नए विदेशी निवेश के लिए रास्ता बनाने और करों की कटौती तक सब कुछ फटाफट कर डाला गया। तब का लगा धक्का है कि रुपया आज तक नहीं संभला।
उस वक्त वित्तमंत्री रहते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने आपात बजट पेश किया था। विक्टर ह्यूगो को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा था, ह्यजिस विचार का वक्त आ चुका हो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती।ह्ण पूछने वाली बात यह कि रुपए के लिए हमारे प्रधानमंत्री के मन में क्या विचार है, कौन सी ताकत इस गिरावट और सत्ता के इस नैतिक पतन को रोकेगी!

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