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कहते हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान की तरह मनोरंजन भी मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। इसीलिए उसने गीत, संगीत, नृत्य, फिल्म, सरकस, नाटक आदि का आविष्कार किया है।
इन दिनों मनोरंजन का एक प्रमुख माध्यम है फिल्म और उसके गीत। कभी-कभी कुछ फिल्में और उनके गीत बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं। लगभग 40-50 साल पहले एक हरियाणवी लोकगीत बहुत प्रचलित हुआ था, ‘‘मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे कमला खड़ी-खड़ी।’’ आज भी यह गीत कभी-कभी कान में पड़कर हृदय के तार झंकृत कर देता है। जैसे हर मौसम के कुछ विशेष व्रत, पर्व, खानपान और व्यंजन होते हैं, वैसे ही हर मौसम के राग और गीत भी हैं। जिस गीत में छतरी और भीगने की बात हो, उसे सुनकर बरसात की याद आ ही जाती है।
पर इस गीत का महत्व केवल बरसात में ही नहीं, चुनावी मौसम में भी है। जब से लोकसभा चुनाव की आहट आने लगी है, तब से जिसे देखो, अपनी छतरी सजाने में लगा है। न जाने कब कोई कमला या विमला भीगने से बचने के लिए उसके नीचे आ जाए।
भारत में इन दिनों सर्वत्र दो छतरियों की धूम है। एक को नरेन्द्र मोदी संभाले हैं, तो दूसरे को मैडम इटली। इन दोनों के नाम क्रमश: राजग और सं़प्रग हैं, पर उसके नीचे लगा डंडा किसका है, यह सबको पता है।
आप चुनाव को भले ही विचारों का युद्घ कहें, पर शर्मा जी इसे स्पष्टत: ‘छतरी युद्घ’ बताते हैं। हल्ला भले ही मोदी का अधिक हो, पर कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड को अपनी छतरी में लाकर मैडम इटली ने भी अपने हाथ मजबूत किये हैं। और अब तो झारखंड भी उनके साथ आ गया है। इतना ही नहीं, तो बिहार को राजग की छतरी से निकाल लेना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
यह देखकर नमो-नमो का जाप करने वाले भी चिंतित हैं। यद्यपि ऊपर से वे सामान्य दिखने का प्रयास करे रहे हैं। वैसे कुछ लोगों का मत है कि झारखंड की छतरी का कपड़ा इतना कमजोर है कि दो-चार महीने में वह खुद ही फट जाएगा। बिहार में भी अंदर-अंदर खुदबुदाहट हो रही है। जहां तक उत्तराखंड की बात है, थोड़ा प्रयास करें, तो तीन नेताओं के आपसी झगड़े की आंधी में उलट गयी छतरी को भी सीधा किया जा सकता है।
यह सब माहौल देखकर नरेन्द्र मोदी भी खूब कोशिश कर रहे हैं। कभी वे अपनी छतरी जयललिता की ओर बढ़ाते हैं, तो कभी ममता और मायावती की ओर, पर किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘बूढ़ी नारी और वो भी कुंवारी, समझो है तलवार दुधारी।’’ इसलिए ये तीनों अभी पत्ते खोलने को तैयार नहीं हैं। वैसे इनका इतिहास-भूगोल देखकर छतरी वाले भी सदा शंकित ही रहते हैं।
कुछ लोग एक तीसरी छतरी के जुगाड़ में हैं। पहले भी इसके लिए कई बार प्रयास हो चुके हैंं। राष्टÑपति चुनाव में भी छतरी बदल का खेल हुआ ही था। उस समय वामपंथी अपना डंडा लिये खड़े रहे, पर मुलायम सिंह काले कपड़े से मुंह ढांपकर पतली गली से निकल गये। इस पर ममता बनर्जी ने भी अपने तार समेट लिये।
लोकसभा चुनाव को देखते हुए एक बार फिर यह कवायद हो रही है, पर छतरी के लिए डंडा कौन लाएगा और कपड़ा या तार कौन, इस पर ही लाठियां चलने को तैयार हैं। नीतीश कुमार से लेकर नवीन पटनायक तक, हर कोई खुद को तीसमार खां समझता है। छतरी बनने से पहले ये हाल है, तो बाद में क्या होगा ? इसलिए कुछ लोग इसे तीसरी छतरी की बजाय तीसरी ढपली कहते हैं।
शर्मा जी का विचार है कि छाते की असली शक्ति तो उसके डंडे में है। मजबूत डंडे पर ही लोहे की तार लगती हैं और फिर उसके ऊ पर बरसाती कपड़ा। इसलिए दोनों बड़े दल अपने डंडे को तेल पिला रहे हैं। अब किसका छाता कितना बड़ा, आकर्षक और मजबूत है, यह तो 2014 में ही पता लगेगा, पर इस बार सवाल सिर्फ कमला या विमला का नहीं, देश की सवा अरब जनता का भी है।
इसलिए शर्मा जी की सलाह है कि दोनों बड़े दल अगले एक साल तक इस गीत को कुछ ऐसे गाएं, तो अच्छा होगा।
‘‘मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे जनता खड़ी खड़ी।’’ विजय कुमार
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