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भावनाएं दबा जाना और बात है परंतु क्या सच को दबाया जा सकता है? स्वतंत्रता दिवस पर हर बार की तरह राजपत्रित अवकाश था, आसमान में पतंगें थीं, सरकारी परिसरों में तिरंगा था, मगर फिर भी हर तरफ एक खालीपन पसरा था। यह एक ऐसा खाली दिन था जब खबरिया चैनलों से लाल किले तक ह्यसत्यह्ण भी छुट्टी पर था।
पहले बात प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम उद्बोधन की। इस भाषण से साफ हो गया कि प्रधानमंत्री का भाषण तैयार करने वालों का जोर सच की बजाय सुविधाजनक विकल्प परोसने पर है। लालकिले की प्राचीर सिर्फ गुलाबी तस्वीर दिखाने के लिए नहीं बल्कि देश को सूत्र वाक्य और दिशा देने के लिए है, यह सच स्वतंत्रता दिवस पर भुला दिया गया।
पाकिस्तान मसले पर पिटी हुई विदेश नीति, देश विरोधी दंगों पर चुप्पी और गरीबी की समस्या को पी जाने वाले इस अभिभाषण में सच कितना था यह विमर्श का विषय है, लेकिन भविष्य के लिए दृष्टि तो शून्य ही थी। कहा गया कि देश को अभी बहुत फासला तय करना है मगर यह दूरी कैसे नापी जाएगी इसे लेकर कोई योजना सामने नहीं रखी गई। सीमा पर छद्म युद्ध की सी स्थिति को देखते हुए इस संबोधन को खास होना चाहिए था मगर यहां तेवर ही गायब थे, देश की भिंची मुट्ठियों का आक्रोश नदारद था, सुलगते किश्तवाड़ की कसक भी इस भाषण में कहीं नहीं थी।
अनिर्णय के लिए जानी जाने वाली केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखान, महंगाई में पिसते, भ्रष्टाचार से कुढ़ते लोगों को खुशहाल भारत का सपना दिखाकर डॉ. मनमोहन सिंह ने सुभीते भर के तथ्य सामने रखे और यूपीए के लिए एक विचित्र स्थिति पैदा कर दी।
अब बात टीवी की। बॉलीवुड के बड़े-बड़े नाम चैनलों के स्टूडियो और सैट पर बादलों की तरह घुमड़ रहे थे। उत्तराखंड त्रासदी पर, दो माह बाद, सबके गले भर आए थे। कुछ-ठुमके, कुछ ठहाके, भावनाएं जगाने की कोशिश करती तान के बीच राहत चंदा अभियान बता रहा था कि मुहिम का सत्य ह्यटीआरपीह्ण और छुट्टी वाले दिन छिटक जाने वाले दर्शक को बांधे रखने की बेचैनी है।
बहरहाल, इस स्वतंत्रता दिवस अपने-अपने हित का ह्यसचह्ण बेचने वालों के लिए एक संदेश साझा है। मुट्ठी में रिमोट दबाए लोग दिल में क्या दबाए हैं, यह बात मीडिया से लेकर सत्ताधीशों तक अगर नहीं समझी गई तो चैनल बदलने वाली अंगुलियां ईवीएम का बटन दबाकर देश की सत्ता भी बदल सकती हैं।
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