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जो नियम हमारे सांसारिक जीवन में लागू होता है, वही हमारे धार्मिक जीवन तथा विश्व-जीवन में भी लागू होता है। वह एक और सार्वभौम है। यह बात नहीं कि धर्म एक नियम द्वारा परिचालित होता हो और संसार एक दूसरे द्वारा। मानव और दानद-ये दोनों ही भगवान के रूप हैं- भेद है केवल परिमाण के तारतम्य में। पाश्चात्य देशों के धर्मज्ञ, दार्शनिक और वैज्ञानिक यह सिद्ध करने के लिए कि मृत्यु के बाद जीवन होता है, बाल की खाल खींच रहे हैं। छोटी सी बात के लिए कितनी उछल-कूद मचा रहे हैं! सोचने के लिए इससे ऊंची और भी कितनी बातें हैं मेरी मृत्यु होगी- यह सोचना कितना मूर्खतापूर्ण अंधविश्वास है! हमें यह बतलाने के लिए कि हम नहीं मरेंगे, किसी पुजारी, देव या दानव की आवश्यकता नहीं। यह तो एक प्रत्यक्ष सत्य है-सभी सत्यों से सर्वाधिक प्रत्यक्ष है। कोई भी मनुष्य अपने स्वयं के नाश की कल्पना नहीं कर सकता। अमरत्व का भाव प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है।
जहां कहीं जीवन है, वहां मृत्यु भी है। जीवन मृत्यु की छाया है, और मृत्यु जीवन की। जीवन और मृत्यु के बीच की अत्यंत सूक्ष्म रेखा का निश्चय ग्रहण और धारण कर सकना दु:साध्य है।
मैं शाश्वत उन्नति-क्रम में विश्वास नहीं करता, मैं यह नहीं मानता कि हम निरन्तर एक सीधी रेखा में बढ़ते चले जा रहे हैं। यह बात इतनी अर्थहीन है, कि उस पर विश्वास किया ही नहीं जा सकता। गति कभी एक सरल रेखा में नहीं होती। यदि एक सरल रेखा अनन्त रूप से बढ़ा दी जाए तो वह वृत्त बन जाती है। कोई भी शक्ति-निक्षेप वृत्त पूरा करके प्रारम्भ ही के स्थान पर लौट आता है।
कोई भी उन्नति सरल रेखा में नहीं होती। प्रत्येक जीवात्मा मानो एक वृत्त में भ्रमण करती है, और उसे वह मार्ग तय करना ही पड़ता है। कोई भी जीवात्मा इतना अधोगामी नहीं हो सकती, उसे एक न एक दिन ऊपर उठना ही होगा। भले ही वह पहले एकदम नीचे जाती दिखे, पर वृत्त-पथ को पूरा करने के लिए उसे ऊपर की दिशा में उठना ही पड़ेगा। हम सभी एक साधारण केन्द्र से निक्षप्ति हुए हैं-और यह केन्द्र है परमात्मा। अपना -अपना वृत्त पूरा करने के बाद हम सब उसी केन्द्र में वापस चले जाएंगे जहां से हमने प्रारम्भ किया था।
प्रत्येक आत्मा एक वृत्त है। इसका केन्द्र वहां होता है जहां शरीर, और वहीं उसका कार्य प्रकट होता है। तुम सर्वव्यापी हो, यद्यपि तुम्हें जान पड़ता है कि तुम एक ही बिन्दु में केन्द्रित हो। तुम्हारे उस केन्द्र ने अपने चारों ओर पंचभूतों का एक पिण्ड (शरीर) बना लिया है, जो उसकी अभिव्यक्ति का यंत्र है। जिसके माध्यम से आत्मा अपने को प्रकट या प्रकाशित करती है, वह शरीर कहलाता है। तुम सर्वत्र विद्यमान हो। जब एक यंत्र या शरीर काम के योग्य नहीं रह जाता तो केन्द्र वहां से हटकर पहले की अपेक्षा सूक्ष्मतर अथवा स्थूलतर पंचभूतकणों को एकत्र करके दूसरा शरीर निर्माण कर लेता है और उसके द्वारा अपना कार्य करता है। यह तो हुआ जीवात्मा का वृत्तान्त-और परमात्मा क्या है? परमात्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है और केन्द्र सर्वत्र है। उस वृत्त का प्रत्येक बिन्दु सजीव, चैतन्य और समान रूप से क्रियाशील है। हमारी बद्ध आत्माओं के लिए केवल एक ही बिन्दु चैतन्य है, और वही आगे या पीछे बढ़ता या घटता रहता है।
आत्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, पर जिसका केन्द्र शरीर में है। मृत्यु केन्द्र का स्थानान्तर मात्र है। शरीर के भीतर स्थित इस केन्द्र से बाहर निकलने में समर्थ हो सकेंगे, तभी हम परमात्मा की-अपने वास्तविक स्वरूप की उपलब्धि कर सकेंगे।
एक प्रचण्ड धारा सागर की ओर प्रवाहित हो रही है, जिसके ऊपर यत्र-तत्र कागज और तृण के छोटे-छोटे टुकड़े बहते चले जा रहे हैं। ये टुकड़े भले ही लौट जाने का प्रयत्न करें, पर अन्त में उन सबको सागर में मिल जाना ही होगा। इसी प्रकार, तुम, मैं और यह समस्त प्रकृति जीवन-प्रवाह की मतवाली तरंगों पर बहते हुए तिनकों की भांति हैं, जो चैतन्य सागर-पूर्णस्वरूप भगवान की ओर खींचे चले जा रहे हैं। हम भले ही पीछे जाने की कोशिशें करें, प्रवाह की गति के विरुद्ध हाथ पटकें और अनेक प्रकार के उत्पात करें, पर अन्त में हमें जीवन और आनन्द के उस महासागर में जाकर मिलना ही होगा।
ज्ञान मतवादविहीन होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञान मतवादों से घृणा करता है। इसका मतलब केवल इतना ही है कि ज्ञान मतवादों से परे की अवस्था है। यथार्थ ज्ञानी किसी का नाश नहीं करना चाहता, प्रत्युत् वह सबकी सहायता के लिए प्रस्तुत रहता है। जिस प्रकार सभी नदियां सागर में बहकर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार समस्त मतवादों को ज्ञान में पहुंचकर एक हो जाना चाहिए। ज्ञान संसार को त्याग देने की शिक्षा देता है, पर वह यह नहीं कहता कि उसको तिलांजलि दे दो- वह कहता है, उसमें रहो पर निर्लिप्त होकर। संसार में रहना, पर उसका होकर नहीं- यही त्याग की सच्ची कसौटी है।
मेरी धारणा है कि प्रारम्भ से ही हममें समस्त ज्ञान संचित है। मैं यह नहीं समझ सकता कि इसका विपरीत कैसे सत्य हो सकता है। यदि तुम और मैं सागर की लघु तरंगें हैं तो वह सागर ही हमारी पृष्ठभूमि है।
जड़ पदार्थ, मन और आत्मा में सचमुच कोई अन्तर नहीं। वे उस ‘एक’ की अनुभूति के विभिन्न स्तर मात्र हैं। इस संसार को ही लो-पंचेन्द्रियों को यह पंचभूतमय दिखता है, दुष्टों को नरक, पुण्यात्माओं को स्वर्ग और पूर्णत्व प्राप्त ज्ञानियों को ब्रह्ममय।
हम इन्द्रियों द्वारा यह प्रत्यक्ष नहीं करा सकते कि एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, पर हम यह कह सकते हैं कि इसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। उदाहरणार्थ, प्रत्येक वस्तु में-इस तक कि साधारण चीजों में भी- एक एकत्व का होना आवश्यक है। जैसे, ‘मानवीय सामान्यीकरण’ है। हम कहते हैं कि समस्त विभिन्नता नाम और रूप से सृष्ट हुई है, पर जब हम चाहते हैं कि इस विभिन्नता को पकड़ें, अलग करें तो यह कहीं दिखती नहीं। नाम या रूप या कारणों को हम कभी भी अपना अलग अस्तित्व रखते हुए नहीं देख सकते- बिना किसी आधार के उनका अस्तित्व रह ही नहीं सकता। यही प्रपंच या विकार ‘माया’ कहलाता है, जिसका अस्तित्व निर्विकार (ब्रह्म) पर निर्भर रहता है और जिसकी (इससे ब्रह्म से) पृथक कोई सत्ता नहीं। सागर की एक लहर को लो। उस लहर का अस्तित्व तभी तक है जब तक सागर का उतना पानी एक लहर के रूप में है, और ज्योंही वह रूप नीचे सिमटकर सागर में मिल जाता है, त्योंही लहर का अस्तित्व मिट जाता है। किन्तु सागर का अस्तित्व उस लघु लहर के रूप में उतना निर्भर नहीं रहता। केवल सागर ही यथार्थ रूप में बचा रहता है, लहर का रूप तो मिटकर एकदम शून्य हो जाता है।
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