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शासन का वेस्टमिंस्टर ढांचा अपनाकर भारतीय मनीषियों का स्वराज स्वप्न पूरा हो तो कैसे?
15 अगस्त 1947 को महर्षि अरविन्द ने आल इण्डिया रेडियो से प्रसारित अपने संदेश में तीन बातों का जि़क्र किया था। उन्होंने कहा था कि देश स्वतंत्र तो हो गया, पर वह खण्डित भी हो गया। देश का विभाजन एक अस्थायी स्थिति है। एक समय आएगा जब भारत पुन: अखण्ड होगा। यह सपना भी अभी अधूरा है। महर्षि अरविन्द ने दूसरी बात यह कही थी कि अब वंचितों की समस्या हल हो जाएगी। तीसरी बात कही थी कि भारत अपनी आध्यात्मिकता के बल पर विश्व के देशों की मालिका में सर्वोच्च स्थान पर आसीन होगा। किन्तु भारत अपनी आध्यात्मिक संस्कृति भुलाकर पश्चिम की तेज बाढ़ में बह रहा है। महर्षि अरविन्द का स्वप्न पूरा नहीं हो सका है।
श्री सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था, ह्यह्यमेरी मान्यता है कि भविष्य में भारत एक सामाजार्थिक, राजनीतिक संरचना को विकसित करने में सक्षम हो सकेगा जो कि कई मामलों में विश्व के लिए एक सबक होगा।ह्णह्ण (26 मई, 1931 को मथुरा में दिया गया भाषण)
गांधी जी, महर्षि अरविंद और सुभाषचन्द्र बोस तथा ऐसे ही अन्य अनेक राष्ट्रवादी मनीषियों ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का नहीं, सर्वतोन्मुखी स्वतन्त्रता का स्वप्न देखा था। उनका जो आज भी पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
स्वतंत्र भारत की राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था को भारतीय संस्कृति और प्रकृति के आधार पर ढाला जाएगा, हमारे राजनेताओं ने देशवासियों की इस सहज अपेक्षा की घोर अनदेखी की और पश्चिम के मॉडल में भारतीय राजनीति को ढाल दिया। हमने न राजव्यवस्था का भारतीय मॉडल अपनाया और न ही आर्थिक विकास का। गांधी जी पश्चिम की बाढ़ से देश को बचाने के बारे में अपनी हिन्द स्वराज पुस्तक की रचना के समय से ही सावधान करते आए थे, पर गांधी जी की सलाह की अनदेखी कर देश की शासन-व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को नेहरूवादी मॉडल में ढाल दिया गया। गांधी जी ने कहा था कि मेरा स्वराज्य तो हमारी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है। वह चाहते थे कि उनके सपने के स्वराज्य पर शिक्षितों और धनवानों का एकाधिपत्य न हो और सच्ची लोकशाही को केन्द्र में बैठे हुए बीस आदमी न चलाएं।
कुछ दिन पूर्व राहुल गांधी ने कहा था कि देश की जनता बहुत गुस्से में है। राहुल गांधी का यह बयान इस सच्चाई की ही स्वीकृति है कि देश की जनता को स्वतन्त्र भारत का जो स्वप्न दिखाया गया था, वह पूरा नहीं हो सका है, परिणामत: लोगों में क्षोभ दिखाई पड़ता है।
लोकतंत्र लोकमत की स्वतन्त्र और निष्पक्ष अभिव्यक्ति का तन्त्र है। समय-समय पर होने वाले चुनाव के माध्यम से लोकमत की अभिव्यक्ति होती है। लेकिन यदि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष न हुए तो लोकमत की सच्ची अभिव्यक्ति कैसे हो सकेगी। हमारी चुनाव व्यवस्था विकृत हो चुकी है। धन, बल, बाहुबल, हिंसा, जातिवाद, आपराधिकता की बुराइयों ने चुनावों की शुद्घता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। ऊपर से सफल दिखने वाला यह तंत्र राष्ट्र के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का समाधान करने में कारगर सिद्घ नहीं हो पा रहा है। हमारी चुनाव प्रणाली की विकृति पर समय-समय पर न्यायालय ने टिप्पणी की है । 22 जुलाई 2013 के ह्यहिन्दूह्ण अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक, 30 प्रतिशत सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा के 82 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ, राजद के 64 प्रतिशत, समाजवादी पार्टी के 48 प्रतिशत, भाजपा के 31 प्रतिशत और कांग्रेस के 21 प्रतिशत संासदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। बिहार विधानसभा के 2010 में हुए चुनावों में जीते 58 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ और उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2012 में हुए चुनावों में जीते 47 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इतने बड़े पैमाने पर आपराधिक और दागी छवि के लोगों के सांसद या विधायक चुने जाने के कारण राजनेताओं के प्रति लोकतंत्र में जो सम्मान और आदर पैदा होना चाहिए वह लोकमानस में पैदा नहीं हो पा रहा है। राजनीति और राजनेताओं की विश्वसनीयता समाप्तप्राय: हो चुकी है।
हमारे चुनावों के कई और नकारात्मक पक्ष भी हैं। इनमें एक है चुनावी हिंसा। हाल ही के बंगाल के पंचायत चुनावों में 30 से अधिक लोग चुनावी हिंसा में मारे गए हैं। राजनीतिक दल बाहुबलियों को या तो टिकट देते हैं या फिर चुनाव जीतने के लिए उनकी मदद लेते हैं। सरकार की कैश योजनाएं वोटों को खरीदने का भोंडा तरीका है। हाल ही में न्यायालय ने इस प्रवृत्ति पर कड़ी टिप्पणी की है। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश तथा अन्य कैश योजनाएं एक प्रकार का चुनावी भ्रष्टाचार ही है। जातिवाद और तुष्टीकरण की राजनीति ने भी हमारी चुनाव व्यवस्था को विकृत बनाया हुआ है। आज़ादी के संघर्ष के दौरान के हमारे अनेक नेताओं ने जातिवाद मुक्त भारत का स्वप्न देखा था। किन्तु राजनीतिक दल जाति भावना को उभार कर और पंथ-सम्प्रदाय का तुष्टीकरण कर अपना वोट बैंक पक्का करने की प्रतिस्पर्द्घा में लगे हैं।
देश के आजाद होने पर हमने अपने देशवासियों को सुखी और समृद्घ बनाने का स्वप्न देखा था। लेकिन आजादी के साढ़े 6 दशक बीत जाने पर भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। हमारी राज्य व्यवस्था और शासन-प्रशासन व्यवस्था गरीबी दूर करने, कुपोषण पर नियंत्रण रखने, लोगों को पक्के आवास उपलब्ध कराने, सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने, बेरोजगारी दूर करने और शिक्षा प्राप्त करने के सभी इच्छुक व्यक्तियों के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने की चुनौतियों का समाधान करने में असफल रही हैं।
हमारा क्रियान्वयन तन्त्र भ्रष्ट और कमज़ोर है। परिणामत: अच्छी नीतियां और कार्यक्रम भी क्रियान्वयन के स्तर पर असफल हो जाते हैं। मिड-डे-मील योजना, सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा, पी़ डी़ एस. जैसी अनेक योजनाएं और कार्यक्रम भ्रष्ट और कमजोर क्रियान्वयन तन्त्र के कारण इच्छित परिणाम नहीं दे सके हैं।
प्रशासनिक कामकाज में राजनीतिक दखल ने हमारी राजनीतिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाई है। हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी आई़ए़एस. अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित कर दिया क्योंकि उसने भूमाफियाओं के खिलाफ कार्रवाई की थी। हमारे राजनेताओं के भूमाफियाओं से रिश्ते जगजाहिर हैं और जब कोई ईमानदार और साहसी प्रशासनिक अधिकारी इन भूमाफियाओं के खिलाफ कार्रवाई करने की जुर्रत करता है तो ये राजनेता भूमाफियाओं को संरक्षण देने के लिए बीच में कूद पड़ते हैं। ऐसे में भला सत्ता व्यवस्था का भ्रष्ट चरित्र कैसे मिटे? राजनीति को जनाभिमुखी और मूल्यों पर आधारित बनाने का नैतिक साहस हमारी राजव्यवस्था नहीं जुटा पा रही है। यू़पी़ए. सरकार का विगत नौ वर्षों का कार्यकाल एक-के-बाद-एक बड़े़-बड़े घोटालों का कार्यकाल रहा है। विकास में लगने वाला अरबों-खरबों रुपया भ्र्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। भ्र्रष्टाचार से घिरे राजनेताओं की सूची बहुत लम्बी है।
लोकसभा के चुनाव 2014 में होने वाले हैं। इन चुनावों का केन्द्रीय मुद्दा विकास होगा या कुछ और? यदि विकास मुद्दा होगा तो सरकार की ओर से विकास के बड़े-बड़े दावे किए जाएंगे और विपक्ष उन दावों को खोखला सिद्घ करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। आँकड़ों के आधार पर विकास का दावा करना एक बात है और विकास का जमीन पर दिखाई पड़ना दूसरी बात। और फिर विकास और भ्रष्टाचार दोनों की संगति कैसे बिठाई जा सकती है? हो सकता है कि विकास के मुद्दे पर कांग्रेस ह्यडिफेंसिवह्ण स्थिति में हो और वह विकास के स्थान पर पंथनिरपेक्षता बनाम संप्रदायवाद को मुद्दा बनाने की कोशिश करे। सेकुलरवादी हर ऐसी बात को, जिसका संबंध हिन्दुत्व से, धर्म से, देश की पंरपरा से और संस्कृति से है संप्रदायवाद का रंग देने की कोशिश करते हैं। पंथ निरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की घटिया राजनीति प्रेरित व्याख्या ने देश का बहुत अहित किया है।
प्रो. ओम प्रकाश कोहली
वरिष्ठ भाजपा नेता
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