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पृथ्वी की लाखों प्रजातियों में से केवल मानव जाति ही पृथ्वी को पूरी तरह से नष्ट करने में सक्षम है। विशेषज्ञों का मानना है कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने से धीरे धीरे सभी जीवरूपों का अंत निश्चित है। वर्तमान संकेत साफ करते हैं कि यह अब एक धीमी प्रक्रिया नहीं रह गयी है अपितु हम विनाश की ओर पूर्ण गति से भाग रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम इस विनाश की दौड़ को नए आर्थिक और औद्योगिक मॉडल के विकास का प्रतिबिम्ब मान रहे हैं।
यह समझना आवश्यक है कि कुछ लोगों के लालच के कारण पूरा विश्व किस तरह से विनाश के हाशिए पर खड़ा है। बैंकों, बहु-राष्ट्रीय कंपनियों और नए अर्थशास्त्र की अवधारणा के आवरण में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद से मानव जाति पर किस प्रकार खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, इसकी समीक्षा करनी भी आवश्यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम पूर्णत: तकनीक द्वारा संचालित यान्त्रिक युग में रहते हैं, परन्तु वास्तव में हम प्रकृति पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं। विशेषज्ञता के युग में चाहे मानव ने ज्ञान को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँट दिया हो, किन्तु, मूल रूप से सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और अत्यधिक अन्योन्याश्रित है।
गरीबों के नाम पर पर्यावरण की तबाही
पिछले एक सौ वषोंर् में हमने पूर्ववर्ती ज्ञात मानव अस्तित्व के सामूहिक वषोंर् की तुलना में पृथ्वी के अधिकतम संसाधनों का सेवन किया है। हम पृथ्वी को नष्ट और क्षतिग्रस्त करने की दहलीज को लांघते हुए उस स्तर पर पहुंच गए हैं जहा से वापसी का रास्ता अत्यन्त कठिन है। प्रकृति की उपासना के बजाय हमने ह्यबाजारह्ण, ह्यअर्थव्यवस्थाह्ण, ह्यबैंकोंह्ण, और ह्यकम्पनियोंह्ण को अपना इष्ट मान लिया है। हमने इन संस्थानों की इच्छाओं के अनुसार सब कुछ समायोजित करना शुरू कर दिया है। ह्यखपतह्णबढ़ाना और लाभ वसूलना ही सर्वप्रथम मंत्र बन गया है। नयी अर्थव्यवस्था का प्राथमिक उद्देश्य केवल उपभोग और खपत को बढ़ाना मात्र रह गया है ताकि धन कई गुणा किया जा सके और लाभ में वृद्घि हो सके। नये आर्थिक मॉडल को गरीबों के हित में होने के दावे के साथ उचित ठहराया जाता रहा है।
अगर इस तथाकथित आर्थिक विकास का प्रतिरूप लोगों की भलाई का संकेतक माना जाये तो पिछले पचास वर्षों में दुनिया एक बेहतर जगह बन जानी चाहिए थी। लेकिन तथ्य एक अलग कहानी बयान करते हैं। लंबे समय से दुनिया भर में भूख और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2008 में दुनिया में 90 करोड़ लोग भूख और कुपोषण के शिकार थे। अगले वर्ष 2009 में यह गिनती लगभग एक अरब लोगों तक पहुँच गयी। 1950 में अनाज का प्रति व्यक्ति उत्पादन 249 किलो था जो कि 2010 में बढ़कर 332 किलो प्रति व्यक्ति उत्पादन के स्तर तक पहुँच गया (जनसंख्या में हुई वृद्घि के बावजूद)। इस तथ्य के बावजूद भी भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या में कई-गुणा वृद्घि हुई है। आज भी भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के 44 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
बहु-राष्ट्रीय व्यापारसंघ और औद्योगीकृत देश भूखे लोगों की बढ़ती हुई संख्या के तर्क का उपयोग करके रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग को उचित ठहरा रहे हैं। इन जहरों के प्रयोग का औचित्य और पर्यावरण के गिरते स्तर की बहस भूख की समस्या के समाधान के तर्क के पीछे कहीं खो जाती है। परिणामस्वरूप हमारी पृथ्वी में मानव निर्मित जहर का स्तर पहले कभी न सोचे जाने वाले स्तर तक पहुंच गया है। भारत में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग वर्ष 1961 में 0.4 मीट्रिक टन था जो कि वर्ष 2010 में बढ़ कर 28.2 मीट्रिक टन पहुँच गया । जहाँ रासायनिक उर्वरकों की खपत बढ़ी वहीं उनकी उत्पादकता घटी है। प्रति टन रासायनिक उर्वरक के प्रयोग से, प्रति टन अनाज की उत्पादकता (टन-प्रति-टन) वर्ष 1961 में 166 टन थी जो घट कर वर्ष 2010 में केवल ़7.8 टन-प्रति-टन रह गयी। इस अवधि के दौरान चीन में भी रासायनिक उर्वरकों की खपत एक मीट्रिक टन से बढ़ कर 50 मीट्रिक टन तक पहुँच गयी।
उर्वरकों और कीटनाशकों के रूप में रसायनों के प्रयोग के बढ़ने के विनाशकारी परिणाम पर्यावरण क्षरण, गिरते जल-स्तर, उच्च कार्बन उत्सर्जन और ह्यग्लोबल वार्मिंगह्ण के रूप में दिखाई दे रहे हैं। इस आनुक्रमिक प्रक्रिया ने एक ऐसे दुष्चक्र को जन्म दिया है जो लाखों लोगों की अकारण मौत के साथ ही खत्म होता प्रतीत होता है।
दोषपूर्ण प्रणाली
सम्पूर्ण आर्थिक नीति एवं पूरी अवधारणा और योजना जिस उपभोक्तावाद और बाजारवाद की बुनियाद पर खड़ी है, और जो पर्यावरण क्षरण के लिए जिम्मेदार है, अत्यधिक दोषपूर्ण है। नया आर्थिक डिजाइन कंपनियों और बैंकों की एक कृत्रिम रचना है जो प्रकृति के विरुद्घ प्रतिस्पर्धा कर रही है। यह प्रकृति और पर्यावरण के शोषण पर आधारित है किन्तु इसमें उपभोग की लागत निर्धारित करते समय प्रकृति और पर्यावरण के पुनर्जनन की लागत का आकलन नहीं किया जाता। वर्तमान प्रणाली मनुष्य के अस्तित्व को सब जीवों में सर्वोच्च और धन संचय को मानव का एकमात्र लक्ष्य बनाने की कल्पना पर आधारित है। यह प्रक्रिया मनुष्य के सीमित ग्रहणबोध के अनुसार, मनुष्य के लिए कथित उपयोगिता को आधार मान कर और अन्य सभी जीवन-रूपों और कारकों को नजरअंदाज करते हुए, बहुत ही संकीर्ण तरीके के मूल्यांकन पर आधारित है। परिणामस्वरूप हजारों पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और हजारों अन्य निकट भविष्य में विलुप्त हो जाएँगी। प्रश्न उठता है कि, क्या यह जीव अनावश्यक हैं? इन मारे गए जीवों को यदि मनुष्य को फिर से उत्पन्न करना हो तो उसकी आर्थिक लागत क्या होगी? इस लागत को निर्मित माल की कीमत में जमा करने के बाद ही उस वस्तु का असल मूल्य निर्धारित हो सकता है।
वर्तमान आर्थिक मॉडल प्रकृति के चेतावनीपूर्ण संकेतों को पहचानने में भी विफल रहा है। सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की उपज में वृद्घि की एक सीमा है जिसका सम्मान करना आवश्यक है। यह सीमा लांघने से पैदावार में बढ़ोत्तरी का कोई औचित्य नहीं रह जाता, क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत खतरनाक होते हैं। यह नियम प्रकृति के हर शोषण पर लागू होगा, चाहे वह धरती से जल निकालना हो, फसलों के कीड़ों का नाश करना हो, ड्रिलिंग से नए कुएँ खोदने हों, जंगल काटना हो, समुद्र का विस्तार करना हो या ऐसी कोई अन्य प्रक्रिया हो। नयी व्यवस्था इस सीमा का सम्मान करने और इसको समझने में पूरी तरह से विफल रही है।
पिछली सदी में विश्व अर्थव्यवस्था का विस्तार बीस गुणा से भी अधिक हुआ है। विश्व बैंक और गोल्डमैन द्वारा यह अनुमानित है कि वर्ष 2035 तक विश्व की अर्थव्यवस्था फिर से दुगुनी हो जाएगी। ऐसे आंकड़े विकास की काल्पनिक परिभाषा और उसके विस्तार का आकलन, गलत गणना और मान्यताओं पर आधारित हैं। पृथ्वी के शोषण की कीमत, असली आर्थिक लागत में न लगाने के परिणामस्वरूप चीजों का मूल्य कम रहता है और लोगों की खरीदने की क्षमता में रहता है। इससे उत्पादन बढ़ता रहता है और प्रकृति का शोषण भी। ऐसे आर्थिक विकास को निरंतर बनाए रखना असंभव है जोकि वनों की कटाई, घटती पानी-तालिका, पिघलती बर्फ, लुप्त होती प्रजातियों, ह्यग्लोबल वामिंर्गह्ण आदि पर निर्भर है। निश्चित रूप से वर्तमान आर्थिक प्रक्रियाओं के पीछे कोई भी सोच नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार मानव द्वारा किये गए अधिकांश परिवर्तनों ने धरती का बेहद नुकसान किया है। पिछले वषोंर् में जैविक विविधता में हुए परिवर्तन मानव इतिहास में सबसे अधिक तेजी से हुए परिवर्तन हैं।
गरीबी के साथ ह्यग्लोबल वामिंर्गह्ण का संबंध
प्रकृति हमें निरंतर खतरे का आभास करा रही है और लगातार संकेत दे रही है। 1880 के बाद इतिहास के दस सबसे गरम वर्ष पिछले 15 वषोंर् में, यानी 1998 के बाद दर्ज हुए हैं। यह एक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए।
जब फसलों की पैदावार के दौरान तापमान में वृद्घि होती है, तब अनाज की उपज में गिरावट आती है। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा निर्दिष्ट नियमों के अनुसार प्रत्येक एक डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्घि से हम अनाज की पैदावार में 10 प्रतिशत गिरावट की उम्मीद कर सकते हैं।
चावल परागण पर तापमान के प्रभाव का फिलीपींस में विस्तार से अध्ययन किया गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि जहाँ 93 डिग्री फारेनहाइट पर चावल का परागण 100 प्रतिशत था, वहीं 104 डिग्री फारेनहाइट तापमान पहुँचने पर परागण लगभग शून्य हो जाता है और पूरी फसल खराब हो जाती है।
अनाज और खाद्य उत्पादन में कमी सीधे-सीधे खाद्य कीमतों की बढ़ोत्तरी में रूपांतरित होती है। दुनिया के गरीबों के लिए भोजन की उपलब्धता में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कटौती होती है। ऐसी स्तिथि में बड़े पैमाने पर अकाल पड़ने और मृत्यु-संख्या बढ़ने की सम्भावना रहती है। पिछले लगातार बीस साल से विश्व के तापमान में वृद्घि के परिणामस्वरूप हिमनद (ग्लेशियर) सिकुड़ने लगे हैं।
बढ़ते तापमान से समुद्र के जल-स्तर में भी वृद्घि होगी जो दुनिया भर में एक नए प्रकार के ह्यपर्यावरण शरणार्थियोंह्ण को जन्म देगी। एक अनुमान के अनुसार 63 लाख भारतीय और 62 लाख बंगलादेशी सीधे प्रभावित होंगे और उन्हें बेघर होना पड़ेगा।
गिरता जल-स्तर
विश्व सिंचाई पानी का उपयोग अपनी अधिकतम सीमा पर पहुंच गया है और अब हम जल संसाधनों के लिए तीव्र प्रतिस्पर्धा के युग में प्रवेश कर रहे हैं।
विश्व बैंक के अनुसार भारत में 18 करोड़ भारतीय जलभृत पर आधारित कृषि और उससे उत्पादित अनाज पर निर्भर हैं। जब चीन और भारत जैसे बड़े देशों में जल-आधारित बुलबुले फटेंगे तब खाद्य कीमतें दुनिया भर में ऊपर जाएँगी, ऐसे में जो लोग पहले से ही अपनी आय का सबसे बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च कर रहे हैं उनको और अधिक खर्चना पड़ेगा जिससे प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता और कम हो जाएगी।
पिछली आधी सदी में पानी की मांग तीन गुणा बढ़ी है और विश्व भर में पानी का संकट खड़ा हो गया है। शक्तिशाली डीजल और विद्युत चालित पंपों के चलते हमने दुनिया भर में जरूरत से ज्यादा कुएं खोद दिए। आज अरबों रुपए खर्च करके भी हम इससे पर्यावरण को पहुंची क्षति को सुधार नहीं पा रहे हैं।
समस्याएँ और समाधान
यह कहना गलत ना होगा कि हमारे पर्यावरण की हर समस्या का आधार दोषपूर्ण आर्थिक मॉडल ही है। हमें हर हाल में कृत्रिम रूप से खपत में वृद्घि करने वाले इस आर्थिक मॉडल के जाल से बाहर निकलना पड़ेगा। भारत की जो आध्यात्मिक और शैक्षिक उत्कृष्टता की एक लंबी परंपरा है उसी मार्ग का अनुसरण करके हम इस संकट से भी उबर पाएंगे।
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