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कर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की

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Aug 12, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Aug 2013 15:32:10

'इंडिया' के विकास ने हर आम आदमी पर 33 हजार रु. का ऋण लादा
अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत आर्थिक क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर था। यहां आने के बाद अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक और व्यापारिक नीतियों के द्वारा भारत का जमकर शोषण किया था।  इसलिए स्वाधीनता आन्दोलन की एक प्रेरणा यह थी कि हम यहां से अंग्रेजों को भगाकर स्वाधीन भारत में विकास का एक ऐसा रास्ता बनाएंगे जिससे देश में भूख, गरीबी, विषमता एवं बेरोजगारी समाप्त होकर एक स्वावलम्बी, समृद्धशाली आर्थिक व्यवस्था का निर्माण हो सकेगा।
सिर्फ निराशा का परिदृश्य
किन्तु आजादी के लगभग 66 साल बीत जाने के बाद आज जब भारत की स्थिति पर निगाह डालते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। स्वाधीनता के बाद देश के आम व्यक्ति ने यह आशा की थी कि गरीबी मिटेगी, विषमता कम होगी और सब लोगों को रोजगार मिलने से हम एक सुखी,सम्पन्न नागरिक के रूप में अपना जीवन-यापन कर सकेंगे। किन्तु भारत ने विकास का जो रास्ता अपनाया है उसमें विकास की बजाय विनाश ही ज्यादा हुआ है। समस्याएं सुलझने की बजाय उलझती जा रही हैं। इसलिए आज तक हम किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर पाए हैं। पर्यावरण ह्नास के कारण हमारे आस्तिव को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। अभी हाल ही की उत्तराखण्ड की त्रासदी काफी कुछ इस बात का संकेत है।
आज भी भारत में दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग रहते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार  2010 में यह आंकड़ा साढ़े 35 करोड़ हो गया है।  (बदली परिभाषा के तहत) यानी गरीबों की संख्या घटने की बजाए बढ़ रही है। देश के कुछ अर्थशास्त्रियों का तो यहां तक कहना है कि भारत में 45 से 50 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही है। कई राज्यों में तो और भी खराब स्थिति है। बिहार में 54 प्रतिशत और असम में 38 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। गरीबी तब और अधिक चुभती है जब देश के कुछ लोगों की तो आय और धन के संसाधन बढ़ते चले जाते हैं और गरीब को अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने लायक भी आय प्राप्त नहीं हो पाती है। ऐसा अनुमान है कि विकास के जिस रास्ते को हमने अपनाया है उसके परिणामस्वरूप अमीर और अमीर हुए हैं और गरीब और गरीब। इस कारण विषमता की खाई और अधिक चौड़ी हो गई है। देश के उच्चस्थ 10 प्रतिशत लोगों के पास सम्पूर्ण देश की कुल क्रयशक्ति का 34 प्रतिशत हिस्सा है। इसका अर्थ है कि देश के शेष लोग अत्यन्त दयनीय दशा में जीने के लिए मजबूर हैं। रोजगार नहीं बढ़ पा रहा है। बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है या कम नहीं हो पा रही है। इसलिए देश का नौजवान हताश है, निराश है।
बढ़ती बेरोजगारी
यदि पढ़ाई-लिखाई के बाद नौजवानों को सम्मानजनक रोजगार के अवसर नहीं मिलते हैं तो इससे ज्यादा दु:खदाई किसी देश के लिए और क्या हो सकता है? नवीनतम आंकड़ों के अनुसार 2008-10 में बेरोजगारी की दर 6.6 दर ़प्रतिशत आंकी गई थी। ऐसा अनुमान है कि देश में 2009-10 में लगभग 2.8 करोड़ लोग बेरोजगार थे। देश में अल्पकालीन बेरोजगारी,मौसमी बेरोजगारी और गुप्त बेरोजगारीभी बढ़ रही है। इन सब प्रकार की बेरोजगारियों का आकलन करेंगे तो मालूम होगा कि देश की करीब आधी आबादी बेरोजगार है या अल्प बेरोजगार है या उनकी योग्यता के हिसाब से उन्हें काम नहीं मिल पा रहा है। इसका अर्थ है कि इतने वर्ष बाद भी हम देश की युवा पीढ़ी की प्रतिभा और क्षमता का उपयोग देश के उत्पादन के लिए,देश के विकास के लिए नहीं कर पा रहे हैं। कुल मिलाकर आज देश की अत्यन्त दु:खदाई अवस्था है।
गिरता रुपया ढहते उद्योग
हाल के दिनों का घटनाक्रम तो और भी चिन्ताजनक है। रुपए की विनिमय दर लगातार गिर रही है। 1947 में जब देश आजाद हुआ था उस समय इतनी लूट के बावजूद डालर और रुपया लगभग बराबर के स्तर पर था। 1990 में भी डालर 16 रुपये के बराबर था। अब हालत यह है कि एक डालर के मुकाबले हमें 60 रु. से अधिक देने पड़ रहे हैं। यह हमारे लिए चिन्ता की बात है। कभी-कभार रुपया थोड़ा-बहुत सुधरता भी है तो सेंसेक्स गिर जाता है और कभी सेंसेक्स ऊपर उठता है तो रुपया नीचे गिर जाता है। ऐसी स्थिति में सरकार  कुछ कर नहीं पाती, जनता भी  हतप्रभ है।
डालर के मुकाबले जब रुपया गिरता है तो हमारे आयात महंगे हो जाते हैं। आयात महंगे हो जाते हैं तो आयात आधारित उद्योग संकट में पड़ जाते हैं। आज रंग-रसायन से लेकर लोहे के कारखाने तक कंगाली के स्तर पर पहुंच रहे हैं। निर्यात की दृष्टि से ज्यादा से ज्यादा माल  बाहर भेजकर भी हम डालर कम कमा पा रहे हैं। अधिक माल बाहर भेजने से देश के लोगों के लिए वस्तुओं और सेवाओं की कमी हो जाती है। इस कारण महंगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। चाहे किसान हों, उद्योग चलाने वाले हों या छोटे-मोटे काम करने वाले अन्य लोग, सब परेशान हैं। रोजमर्रा की चीजें गरीब की क्रयशक्ति से बाहर होती जा रही हैं। दालें,दूध, फल-सब्जी और खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं। आम लोगों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खाने-पीने में ही खर्च हो रहा है। इस हालत में आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। ऊपर से सरकार जब चाहती है तब पेट्रोल,डीजल,गैस की कीमतें भी बढ़ा देती है। गत 15 जून को पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा कि देश में पेट्रोलियम पदार्थ आयात करने वाली कम्पनियों की लाबी हर पेट्रोलियम मंत्री को धमकाती है कि पेट्रोलियम का आयात कम न किया जाए इससे उन कम्पनियों का मुनाफा मारा जाता है। यदि यह बात सही है तो इस पर सरकार को सफाई देनी चाहिए। यह बहुत ही गंभीर बात है। यह मामला सरकार पर ही सवाल खड़ा करता है। 

घुटनाटेक नीतियां
यह एक कटु सत्य है कि भारत में पेयजल की स्थिति भी चिन्ताजनक हो गई है। अधिकांश लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिलता है। नगरों में पेयजल की आपूर्ति का जिम्मा निजी हाथों में दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति में देश का आम आदमी पानी खरीदकर पीने के लिए मजबूर है। जो लोग पानी खरीद नहीं सकते हैं उनका क्या होगा? कई राज्यों में तो लोग नदी या नालों का, बिना निथारा हुआ पानी पीते हैं। इस कारण वे लोग अनेक बीमारियों से ग्रस्त हैं।
अभी हाल ही में सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफ.डी.आई.) की सीमा बढ़ाई है। सरकार परेशान है कि देश में विदेशी पूंजी का निवेश नहीं हो रहा है। इसलिए उसने विदेशी कम्पनियों और कुछ धनी देशों के सामने घुटने टेक कर कई संवेदनशील क्षेत्रों के द्वार भी उनके लिए खोल दिए हैं। रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत,दूरसंचार क्षेत्र में  74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100  प्रतिशत,बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत आदि। कुछ क्षेत्रों में तो निवेश के लिए किसी विदेशी कम्पनी को सरकार से प्रारंभिक मंजूरी भी नहीं लेनी पड़ेगी। इस कारण देश की संप्रभुता और सार्वभौमिकता खतरे में है। पिछले दिनों हमारी सरकार ने खुदरा क्षेत्र में भी सबके विरोध के बावजूद एफ.डी.आई. को मंजूरी दी थी। सरकार ने लोगों को सब्जबाग दिखाया था कि इससे विदेशी पैसा भारत में आएगा और रोजगार के साधन बढ़ेंगे,पर खुदरा क्षेत्र में भी विदेशी निवेशक नहीं आ रहे हैं।         
भारतवर्ष पर लगातार विदेशी कर्ज का  बोझ बढ़ता चला जा रहा है। इस समय यह कर्ज लगभग 400 अरब डालर तक पहुंच गया है। इस के अनुसार देश के हर व्यक्ति पर करीब 33 हजार रुपए का विदेशी ऋण है। यह भी हमारी संप्रभुता के लिए ठीक नहीं है। जब हम अपनी स्वाधीनता की वर्षगांठ मनाएं तब एक बार यह जरूर विचार करें कि हमारी यह स्थिति क्यों हुई है? विदेशी संस्थागत निवेशक भारतीय शेयर बाजार से अपनी पूंजी निकाल रहे हैं। यहां तक कि घरेलू निवेशक भी अपने देश में पूंजी नहीं लगा रहे हैं। वे विदेशों में निवेश कर रहे हैं। परिणामस्वरूप डालर की मांग बढ़ती जा रही है और रुपया कमजोर होता जा  रहा है। 
निर्यात बढ़े, आयात घटे
आयात तेजी से बढ़ने की वजह से हमारे घरेलू उद्योग खत्म हो रहे हैं। खासतौर से चीन से आने वाली वस्तुएं हमारी अर्थव्यस्था को गंभीर चोट पहुंचा रही हैं। चीन से आयातित सामान से भारतीय बाजार अटे पड़े हैं। बाजार में ऐसी कोई चीज नहीं जो चीन से न आई हो। चीन को निर्यात की तुलना में आयात बहुत अधिक है। परिणामस्वरूप चीन से भारत का व्यापार सन्तुलन घाटा 40  अरब डालर वार्षिक से भी अधिक हो गया है। हमारे देश का व्यापार सन्तुलन घाटा निरन्तर बढ़ता जा रहा है। 2013 में यह घाटा लगभग 191 अरब डालर का हो गया है और चालू खाते का घाटा करीब 100 अरब डालर तक पहुंच गया है। 2008 में विदेशी विनिमय कोष तीन वषोंर् के आयातों के बिलों को चुकाने के लिए पर्याप्त था, किन्तु अब केवल छह माह के आयातों के बिलों को चुकाने की क्षमता ही हमारे पास बची है। इस कारण देश के सामने बहुत विकट स्थिति खड़ी हो गयी है।
सरकार ने 1990-91 में बहुत ही धूम धड़ाके से नई आर्थिक नीति, नए आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण की नीति अपनाई थी। किन्तु इसके बाद से विश्व व्यापार और विश्व व्यापार संगठन में भारत की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। उस समय लोगों के सामने यह सिद्घान्त परोसा गया था कि नई आर्थिक नीति से देश में विकास का पहिया तेजी से घूमेगा। किन्तु हो क्या रहा है यह सबके सामने है। अब तो विकास की दर भी लगातार घट रही है और वह 5 प्रतिशत से भी कम हो गई है। भ्रष्टाचार और कालेधन की समस्या ने तो देश के अर्थतंत्र की कमर ही तोड़ दी है। सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के सहारे उनके साथ मिलीभगत से विदेशी कम्पनियाँ कई अनैतिक कामों में संलग्न हो रही हैं। ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय व्यापार नहीं होता है जो कि आन्तरिक और बाहरी दबावों से मुक्त हो। इसलिए जो देश इस भ्रम में रहते हैं कि विदेशी व्यापार विकास के इंजन के रूप में काम करता है वे आगे चलकर काफी बड़े खतरों का शिकार बनते हैं। दुनिया के बड़े देश बड़ी चालाकी से कमजोर देशों को व्यापार घाटा सहने को मजबूर कर देते हैं। भारत की कहानी भी ठीक इसी प्रकार की है।
विश्व के विकसित देशों, खासकर अमरीका और यूरोपीय देशों को पिछले दिनों जो वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा था उससे उबरने के लिए उन्होंने ह्यबेल आउट पैकेजेसह्ण, वीसा के नियमों में कड़ाई जैसी संरक्षण देने वाली नीतियां अपनाई हैं। इन नीतियों को अपनाकर उन्होंने विश्व व्यापार संगठन के मूल चरित्र और मूल भावना को ही खत्म कर दिया है। वर्तमान में भारत का राजकोषीय घाटा बढ़कर 5.3 प्रतिशत और चालू खाते का घाटा बढ़कर 5.4 प्रतिशत हो गया है। यह बहुत ही चिन्ता की बात है। यह बात सच है कि आजादी के बाद भारत ने कुछ मात्रा में विकास जरूर किया है, पर उस विकास का फल सम्पन्न लोगों को मिला है। इस विकास से आम आदमी का स्तर नहीं सुधरा है।  नीतियां बदलने की आवश्यकता है। हमारी आर्थिक नीतियाँ एवं विकास का मॉडल भारत की प्रकृति, प्रवृत्ति, संस्कृति, संसाधन और सवालों-समस्याओं को ध्यान में रखकर बने तभी हम सर्वसमावेशी सर्वमंगलकारी अर्थतंत्र का निर्माण कर सकेंगे।
66 साल में लुढ़के 62 सीढ़ी
1947 : आजादी के समय 1 डॉलर 1 रुपए में मिलता था।
1991 : उदारीकरण का पल्लू थामा। उस समय 1 डॉलर करीब 17 रुपए का था।
2013 : विदेशी निवेशकों के सामने सरकारी साष्टांग के बाद  1 डॉलर  की कीमत 61 रुपए।
डॉ़ बजरंगलाल गुप्त
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
 

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