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आजादी… एक शब्द, और दिमाग में कई चित्र तैर जाते हैं। खुला आसमान, टूटी हुई बेडि़यां, चहकते पक्षी…। ऊर्जा से भरी तस्वीर जोरदार है मगर क्या इसमें उजास की अतिरंजना दिखती है? इस बार विशेषांक की योजना बनाते हुए तय किया कि आम नागरिकों की कल्पना में उमड़ते आजादी के इन चित्रों की वास्तविकता तलाशी जाए। 66 बरस बाद परखा जाए अपनी इस स्वतंत्रता को। विविध विषयों पर पैनी दृष्टि रखने वाले विश्लेषकों की नजर से देखी जाए नीति, उसकी नियति और नियंताओं की नीयत। होने को विमर्श के मुद्दे हजार हो सकते हैं, परंतु हमने इस 15 अगस्त पर पंद्रह क्षेत्रों की पहचान और पड़ताल का फैसला किया। रक्षा से शिक्षा और साहित्य से संविधान तक 66 बरस पुरानी पगडंडियों से गुजरते हुए इस यात्रा में कदम-कदम पर सवाल मिले। राष्ट्र मानस को मथते यक्ष प्रश्नों की यह पोटली राजपथ के नाम। कड़वी मगर सच बात यह कि लोकतंत्र और सच्चे जनप्रतिनिधित्व की आस बांधे लोगों को मुट्ठीभर लोगों ने ऐसी राह पर हांक दिया कि छह दशक बाद तिरंगे का शुद्ध देशी सूत तक नहीं बचा। कपास किसानों की कंगाली और विदेशी बीटी कॉटन का बीज परोक्ष रूप से सतत गुलाम बने रहने के उसी अंखुए से फूटा है जिसे 14 अगस्त, 1947 की आधी रात चुपके से रोप दिया गया था।
ट्रांसफर ऑफ पावर या सत्ता हस्तांतरण के दस्तावेज को हमारी स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी होना था, मगर जब इसके पन्ने पलटते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में जहां आजादी की मुनादी होनी थी वहां एक संप्रभु राष्ट्र के आत्मसम्मान और अधिकारों को विदेशियों का बंधक रख छोड़ा गया। छह दशक से टीसती हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी (जिसका कि गठन ही अंग्रेजी राज को बचाने और भारतीय भावनाओं के ज्वार को तिरोहित करने के लिए हुआ था) ने ब्रिटिश राज को यह लिखित गारंटी दे दी थी कि स्वतंत्रता संग्राम की ध्वजवाहक रही आजाद हिंद फौज और इसके अधिकारियों पर चले मुकदमों की हर खबर सन् 2021 तक जनता से छिपाकर रखी जाएगी। जाहिर है, देश पर जान न्यौछावर करने वाले अनगिनत सपूत जनता की आंखों से ओझल हो गए और भीड़ में चमकते चंद चेहरे स्वतंत्रता का श्रेय ले उड़े।
यह सत्ता समझौता द्वितीय विश्व युद्ध में हारे-टूटे ब्रिटेन के लिए विदाई का उपहार था। ऐसा प्रत्यक्ष उपहार जिसके जरिए औपनिवेशिक शोषण के सपने अगले दशकों तक परोक्ष रूप से पूरे होने थे। विदेशी गए, मगर उनके हितों को पोसने वाला तिलिस्म नहीं टूटा। संविधान जब बना तब बना, सभी ब्रिटिश कानून उसी रूप में जिंदा रहेंगे, पं.नेहरू ने यह जिम्मा गोरों से सत्ता की चाबी लेते वक्त ही ओढ़ लिया था।
अंग्रेजी का रुतबा, पीढि़यों को ब्रिटिश शिक्षा से सींचने का वादा और महात्मा गांधी की मतान्तरण को गैर कानूनी घोषित करने की सीख के उलट ईसाई मिशनरियों को अपना काम करते रहने देने की बेजा शर्तें स्वतंत्रता का सूरज उगने से पहले ही मान ली गई थीं।
पंद्रह सदी की लम्बी गुलामी में देश का इतना नुकसान नहीं हुआ जितना पिछले 500 सालों में हुआ। इसमें भी पिछले 250 वर्ष में जो आर्थिक चोट लगी उस पर अंत के 50 साल भारी हैं। अब यदि पिछले एक दशक में सत्ताधीशों का भ्रष्टाचार आंकें तो सदियों की लूट और विदेशी लुटेरे इन 'अपनों' के आगे बौने नजर आते हैं। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित, 'हम भारत के लोग' 66 बरस पहले किस राह पर बढ़े और आज कहां खड़े हैं? शासक जन-गण के साथ है या अधिनायक के पाले में। सच यह है कि देश और समाज में आज तक बंधे हाथों की कुछ वैसी ही छटपटाहट जिंदा है।
इस विशेषांक का हर आलेख खास है। सहज शब्दों में ऐसी बात कि लोगों को साफ समझ में आ सके कि आजादी मिलने के बाद भी कितने मोर्चों पर संग्राम जारी है। (हितेश शंकर)
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