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भारत एक कृषि प्रधान देश है। अभी भी यहाँ की 70 प्रतिशत आबादी कृषि से ही गुजर-बसर करती है। इसके बावजूद यहाँ के कृषि विश्वविद्यालयों में यह पढ़ाया जाता है कि भारत की कृषि किसी काम की नहीं है। वर्षों से यह भी कहा जा रहा है कि यदि भारत को कृषि में विकास करना है तो पश्चिमी देशों यानी अमरीका और यूरोपीय देशों से तकनीक लेनी पड़ेगी। इस तकनीक में बीज,खाद सब कुछ शामिल है। उसी तकनीक के आधार पर यहाँ खेती की जाने लगी। इसी तकनीक को हरित क्रांति कही गई। इसमें कोई शक नहीं है कि शुरुआती दिनों में तो हरित क्रांति से बड़ा फायदा हुआ। हमारे यहाँ अन्न की उपज बढ़ी और हम खाद्यान्न में स्वावलंबी बने, किन्तु 10 साल बाद ही उसके दुष्परिणाम भी दिखने लगे। हरित क्रांति वाले इलाकों में जमीन की उर्वरा शक्ति खत्म हो गई है। रसायनिक खादों की वजह से जमीन बंजर होती जा रही है। बिना खाद कोई फसल नहीं हो पा रही है। किसान कुछ भी बोता है उसमें खाद देनी ही पड़ती है। इससे खेती की लागत बढ़ जाती है। दूसरा दुष्परिणाम यह हुआ है कि भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है। खेती के लिए अंधाधुंध पानी खींचा जा रहा है। जहाँ कभी – फीट में पानी मिल जाता था, वहाँ अब 100-150 फीट में पानी मिल रहा है। नासा ने आकलन किया है कि पानी का दोहन इसी तरह से होता रहा तो 2020 तक गंगा के क्षेत्र का भूजल खत्म हो जाएगा। तीसरा दुष्परिणाम यह हुआ है कि बहुत अधिक मात्रा में कीटनाशकों के इस्तेमाल से अनेक बीमारियाँ पैदा हुई हैं। कीटनाशकों ने न सिर्फ कीड़ों को मारा,बल्कि अन्न को भी प्रदूषित कर दिया है। उस अन्न को खाकर लोग बीमार हो रहे हैं। कैंसर जैसी बीमारी आम होती जा रही है। कृषि के क्षेत्र में जो सुधार होने चाहिए थे वे तो हुए नहीं। इस कारण हमारी समस्यायें बढ़ती जा रही हैं।
आज जो लोग खेती कर रहे हैं वे अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं। पहले किसान किसी भी फसल का बीज अपने घर में ही रखता था। किन्तु अब उसे हर फसल का बीज बाजार से लेना पड़ता है। बीज पर कम्पनियों की पकड़ हो गई है। करीब 500 कम्पनियां बीज का कारोबार करती हैं। इन कम्पनियों को हमारी सरकार ही बढ़ावा दे रही है। संकर बीज को बढ़ावा देने के लिए सरकार पूरे देश में एक विशेष अभियान चला रही है,बड़ी मात्रा में सब्सिडी दे रही है। धान,मक्का,गेहूँ आदि के संकर बीज को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। पंजाब में तो मक्के के बीज के लिए भी सब्सिडी दी जा रही है। मक्के के संकर बीज के लिए पायनियर,मन्सेंटो जैसी कम्पनियाँ काम कर रही हैं। पंजाब ही नहीं गुजरात,मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़,ओडिशा सहित कई राज्यों में भी मक्के के बीज पर सब्सिडी मिल रही है। केवल बीज ही नहीं उसकी खेती,उसका रखरखाव,उसके प्रसंस्करण इन सब पर भी पैसा दिया जा रहा है। इन सबका मकसद है धीरे-धीरे खेती को कारपोरेट घरानों को सौंपना। अब तो आनुवांशिक रूप से उन्नत किए गए बीज भी आने लगे हैं। जैसे कपास का बीज बी टी काटन है। अब 95 प्रतिशत कपास की खेती में इसी बी टी काटन का इस्तेमाल हो रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि किसान इस बीज को पसन्द कर रहे हैं। दरअसल कपास के देसी बीज को सरकार और बीज कम्पनियों ने साजिश के तहत खत्म कर दिया है। बाजार में सिर्फ बी टी काटन ही मिलता है। अब जो मिलेगा किसान तो वही लेगा। हर बीज के साथ यही हो रहा है। कहा जा रहा है कि कपास की खेती करने वाले जो किसान बी टी काटन बीज का इस्तेमाल कर रहे हैं उन्हें बहुत मुनाफा हो रहा है,पर यह भी सत्य है कि पिछले 15 साल में करीब 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। उनमें 70 प्रतिशत किसान कपास की खेती करने वाले हैं। इसका मतलब है कि बी टी काटन से किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ है। फायदा बीज कम्पनियों को हुआ है। किसान मर रहे हैं और बीज कम्पनियाँ मालोमाल हो रही हैं।
सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) में कृषि का योगदान लगभग 17 प्रतिशत है। यह भी दिनोंदिन घट रहा है। जी डी पी में कृषि का योगदान घटने का अर्थ है कि कृषि की ज्यादा जरुरत नहीं है। यह गलत धारणा है। यह धारणा भी साजिशन फैलाई जा रही है। अब अमरीका का उदहारण देखें। अमरीका के सकल घरेलू उत्पाद में वहाँ की कृषि का केवल 4 प्रतिशत योगदान है। इस आधार पर तो अमरीका को कृषि छोड़ देनी चाहिए थी। पर अमरीका अपनी कृषि का बचाव हर जगह करता है। अपने किसानों को सब्सिडी तो देता ही है,साथ ही हर विदेशी मंच पर अपनी कृषि के हितों की बात करता है। इसका मतलब है कि वह यह समझता है कि देश के लिए कृषि का क्या महत्व है। पिछले दिनों अमरीका में एक अध्ययन हुआ जिसमें कहा गया है कि अमरीकी जी डी पी में भले ही कृषि का योगदान 4 प्रतिशत है। पर अमरीकी अर्थव्यस्था में कृषि का 60 प्रतिशत योगदान है। बीमा या इसी तरह की अनेक कम्पनियाँ कृषि पर आधारित कई काम करती हैं। इसलिए कृषि का बहुत बड़ा योगदान किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में है। इस आधार पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 90 प्रतिशत से ऊपर है। इसलिए हमें यह नहीं देखना चाहिए कि हमारी कृषि का जी डी पी में कितना बड़ा योगदान है, हमें यह देखना चाहिए कि हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि का कितना योगदान है। किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं रहा है इसलिए कृषि की अवहेलना हो रही है। लोगों को कृषि से दूर करने का प्रयास हो रहा है,जबकि यह पूरी तरह गलत नीति है।
कृषि क्षेत्र आज भी सबसे ज्यादा रोजगार देता है। इसके बावजूद कृषि की उपेक्षा हो रही है। इसलिए लोग कृषि छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। किसान खेती छोड़कर किसी नगर में मजदूरी कर रहे हैं या रिक्शा चला रहे हैं। 2003-04 में यह आंका गया था कि देश में एक किसान परिवार की मासिक आय 2115 रु. है। एक परिवार में कम से कम 5 लोग ही माने जाएँ तो हिसाब लगाएं कि एक सदस्य की प्रतिमाह कितनी आय है। इसका अर्थ है कि देश के अधिकतर किसान गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं।
आज हमें आजादी की इस वर्षगाँठ पर खेती को लाभदायक बनाने का प्रण लेना चाहिए,क्योंकि खेती ही देश की इतनी बड़ी विशाल जनसंख्या को संभाल सकती है। 1996 में विश्व बैंक की एक रपट आई थी, जिसमें कहा गया था कि 2015 तक गाँव छोड़कर जितने लोग भारत के विभिन्न शहरों में बसेंगे उनकी संख्या इंग्लैण्ड,फ्रांस और जर्मनी की जनसंख्या से दुगुनी होगी। अभी इन तीनों देशों की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है। इसका मतलब है कि 2015 तक 40 करोड़ लोग अलग-अलग शहरों में बसेंगे। क्या इतने लोगों को शहरों में रोजगार मिल जाएगा? फिर हम खेतीनाशक नीति क्यों बना रहे हैं? हम कृषि को मजबूत बनाने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं?
हाल की जनगणना की रपट के अनुसार रोजाना 2358 किसान खेती छोड़ रहे हैं। ये लोग शौक से खेती नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति बना दी गई है कि खेती छोड़ने के लिए लोग मजबूर हैं। जब तक हम खेती को मजबूत नहीं करेंगे तब तक हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं हो पाएगी।
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