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यह शांतिवाद नहीं, कायरपन है
6अगस्त 2013 की भोर में पुंछ सीमा पर पाकिस्तानी सैनिकों ने सीमा के इस पार आकर गश्त कर रहे हमारे जवानों पर हमला बोला। हमारे बहादुर जवानों ने अचानक हुए हमले का सामना किया, लेकिन इस मुठभेड़ में हमारे 5 जवान शहीद हो गए। हमेशा की तरह पाकिस्तान ने ऐसी किसी घटना के होने से ही पल्ला झाड़ लिया। लेकिन हैरानी की बात है कि हमारे रक्षा मंत्री ए.के. एंटोनी ने पहले उन हमलावर सैनिकों को ह्यसैनिक वर्दी में आए आतंकवादीह्ण बताकर ऐसा शर्मनाक बयान दिया जो एकबारगी लगा जैसे भारत के रक्षा मंत्री ने नहीं, बयान पाकिस्तान के रक्षामंत्री ने दिया हो। इतना ही नहीं, सेना ने इस हमले में पाकिस्तानी सैनिकों का साफ हाथ बताने वाली अपनी विज्ञप्ति में साफ तौर पर किसी दबाव के चलते, कुछ ही घंटों में बदल करते हुए रक्षा मंत्री के बयान को ही दोहरा दिया। लेकिन देशवासियों में जबरदस्त आक्रोश को देखकर एंटोनी को हमले में ह्यपाकिस्तानी सैनिकह्ण शब्द जोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। देशवासी चाहते हैं कि पाकिस्तान की इस हरकत का उचित जवाब अविलम्ब देना चाहिए। लेकिन यूपीए सरकार ने संसद में सिर्फ मिमियाने का ही काम किया।
केन्द्र की ऐसी दब्बू मानसिकता आज की नहीं, नेहरू के काल से ही है क्योंकि स्वतंत्रता के एकदम बाद पंडित नेहरू ने देश में यह दुष्प्रचार किया था कि, भारत एक खास तरह का देश है, जिसकी आजादी की बुनियाद अन्य देशों की तरह ताकत एवं सैन्य शर्तों पर नहीं, अपितु अहिंसा, सत्याग्रह एवं शांति पर डाली गई थी। इतिहास के दृष्टिकोण से यह सरासर गलत था। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि ब्रितानवी सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज से डरकर भारत छोड़ा था।
स्मरणीय है कि बोस ने 60,000 संख्या की आजाद हिंद फौज का गठन किया और जापानी सेनाओं के साथ 1944 में भारत में ब्रिटिश हुकूमत पर धावा बोला था। ये सेनाएं इम्फाल-कोहिमा तक आ गई थीं। दुर्भाग्यवश तब लड़ाई का पैंतरा बदल गया और भीषण संघर्ष के बाद मित्र राष्ट्रों की सेनाएं जापानी और आईएनए की फौजों को पीछे धकेलने में कामयाब हुईं। परंतु आईएनए की सेना का हौव्वा उन्हें चिपट गया था। द्वितीय महायुद्घ के पश्चात आईएनए के बारे में जानकारी सार्वजनिक हुई। ब्रितानवी सरकार ने आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों के खिलाफ लालकिले में कोट मार्शल की कार्रवाई प्रारंभ की। पूरे देश में आक्रोश की लहर फैल गई। किंतु ब्रितानवी सरकार के होश तब उड़े जब रॉयल इंडियन नेवी (नौसेना) और भारतीय सेना की कुछ यूनिटों में विद्रोह फूट पड़ा। ब्रितानवी सरकार भारतीय सेनाओं में पनपते विद्रोह को देखकर हक्की-बक्की रह गई। उसने भारत को आजादी देने में ही समझदारी समझी।
एटली को बोस का भय
ब्रितानिया के उस समय के प्रधानमंत्री क्लेमंट एटली ने बंगाल प्रांत के गवर्नर को 1948 में साफ बताया था कि अंग्रेजों ने भारत इसीलिए छोड़ा कि वे भारतीय सशस्त्र सेनाओं में व्यापक विद्रोह को लेकर गंभीर रूप से चिंतित थे। जब सीधा सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस के अहिंसावादी आंदोलन का ब्रितानवी सरकार पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा था। वे गए तो बोस की आजाद हिंद फौज के डर से थे। इस आईएनए के हौव्वे ने तो भारतीय सशस्त्र सेनाओं में विद्रोह की आग लगा दी थी। 25 लाख सैनिकों के आक्रोश से भयभीत होकर अंग्रेजों ने भारत छोड़ा था ना कि अहिंसावादी सत्याग्रहों की वजह से। क्लेमंट एटली ने उस वक्त व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहा था कि इनका असर ह्यमिनिममह्ण यानी नहीं के बराबर था। अपनी सत्ता जमाने के लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने आजाद हिंद फौज और नेताजी के अभूतपूर्व योगदान का नामोनिशान मिटाने की भरसक कोशिश की। यही नहीं, उन्होंने एक सफेद झूठ फैलाया कि भारत को आजादी केवल और केवल अहिंसा एवं सत्याग्रह की बुनियाद पर मिली थी और उनकी अपनी भूमिका निर्णायक थी। जाहिर है भारतीय सेनाओं के प्रति नेहरू का रुख तिरस्कारपूर्ण था। अपने अहिंसावादी फैशन को लेकर वह सशस्त्र सेनाओं से बुरी तरह चिढ़ते थे। शुरू शुरू में तो सरदार पटेल ने उन पर अंकुश रखा और भारतीय सेनाओं का कश्मीर और हैदराबाद में पूर्ण रूप से इस्तेमाल किया। किंतु सरदार पटेल की अकस्मात मृत्यु के बाद तो उस अहिंसावादी विचारधारा ने खूब जोर पकड़ा। तब से हमारी सशस्त्र सेनाओं को नीचा दिखाने की प्रथा शुरू हुई। उनका रक्षा बजट कम किया गया। उन्हें जानबूझकर आधुनिक शस्त्रों से विहीन रखा गया।
सेना की अनदेखी
1960 में जनरल थिमैया को इतना अपमानित किया गया कि तंग आकर उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। भारतीय सेनाओं को कमजोर और खोखला करने की व्यापक सरकारी नीति का दुष्परिणाम हमें 1962 में मिला, जब चीनी सेनाओं के हाथों हमें करारी हार का सामना करना पड़ा। नेहरू तो इस सदमे से चल बसे। उनके उत्तराधिकारियों, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी ने सही सबक सीखा और इन अहिंसावादी, सेना विरोधी नीतियों में पूर्ण रूप से फेरबदल किया। रक्षा बजट बढ़ाया गया और सशस्त्र सेनाओं का आधुनिकीकरण हुआ। फलस्वरूप हमें 1965 और खासकर 1971 के युद्घ में शानदार जीत हासिल हुई।
अफसोस यह है कि उस नेहरू काल की ह्यअहिंसा की मानसिकताह्ण दिल्ली में आज फिर से पूरा जोर पकड़ चुकी है। मौजूदा सरकार हाथ धोकर पिछले सेनाध्यक्ष के पीछे पड़ गई थी। पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता को अपने आप में इसने एक ध्येय सा बना लिया है। पाकिस्तान के छेड़े आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को इन्होंने पूर्ण रूप से घरेलू राजनीति के साथ जोड़कर सुरक्षा सेनाओं के मनोबल पर बुरा आघात किया है। माओवादियों के खिलाफ भी अभियान में इन्होंने सुरक्षा सेनाओं के हाथ बांध दिए हैं। चीन के सामने तो यह सरकार मानो थर थर कांपने लगी है तथा पैरवी और खुशामद के स्तर पर आ गई है। राष्ट्रीय सुरक्षा की इस पूर्ण रूप से शर्मनाक अवहेलना के पीछे यही अहिंसावादी परंपरा है जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति अब एक भारी खतरा बन गई है। इसकी ऐतिहासिक जड़ें हमारी आजादी के संग्राम में उठे विवादों तक जाती हैं।
शस्त्रापूर्ति में गंभीर विलम्ब
अहिंसा की मानसिकता में उलझी सरकार हमें महाशक्ति और क्षेत्रीय ताकत बनने के सिर्फ स्वप्न दिखाती है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य ताकत के आधार पर बने हैं। आर्थिक शक्ति को सैन्यशक्ति में परिवर्तित करना अनिवार्य है। तभी हम अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सकते हैं। दुख की बात है कि आजादी के 65 वर्ष बाद भी आज तक हम शस्त्रों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। हमारे 70 प्रतिशत हथियार और असला अभी भी विदेशों से खरीदा जाता है। यह पूरी प्रक्रिया घूस कांडों से प्रदूषित और त्रस्त है। कोई भी हथियार खरीदने के लिए बीस से तीस साल लग जाते हैं। यह विलम्ब अब हमारे सुरक्षा तंत्र के लिए घातक सिद्घ होना शुरू हो गया है। इस विषय को सही परिप्रेक्ष्य में समझना अनिवार्य है।
1962 में करारी हार के बाद हमें अपनी सशस्त्र सेनाओं का विस्तार और आधुनिकीकरण बड़ी जल्दबाजी में करना पड़ा था। अमरीका और ब्रिटेन ने छोटे हथियारों के अलावा कुछ भी देने से इनकार कर दिया था। यहां तक कि वायुसेना के लिए एफ 104 स्टारफाइटर्स, जो पाकिस्तान को दिये गए थे, हमें बेचने से साफ मना कर दिया। भारत के पास रूस जाने के अलावा और कोई विकल्प न रहा। स्मरणीय है कि रूस ने भारत को पूर्ण रूप से सहायता दी। मिग 21 सुपर सोनिक, टी 54 और टी 57 टैंक, 130 एमएम तोपें एवं रॉकेट और युद्घपोत बड़े सस्ते दामों में दिए। रूस भारत को चीन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में देखना चाहता था। रूस ने भारत को ़हवाई प्रतिरक्षा तोपें एवं प्रक्षेपास्त्र और भारतीय नौसेना के लिए युद्घपोत एवं पनडुब्बियां भी बेचीं। इस सैनिक सहायता के फलस्वरूप भारत दक्षिण एशियाई क्षेत्र में एक बड़ी ताकत के रूप में उभर कर आया। इसका परिणाम 1965 और खासकर 1971 के युद्घ में दिखाई दिया जब भारतीय सैन्य शक्ति ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए, 14 दिनों में बंगलादेश में भारत की शानदार जीत हुई। एक नए देश की सैन्य ताकत से स्थापना हुई। 93,000 पाकिस्तानी सिपाहियों ने आत्मसमर्पण किया। इस शानदार विजय में रूसी हथियारों की अहम भूमिका थी।
परंतु सस्ते रूसी हथियारों ने 1960 और 1970 के दशक में हथियारों में हमारी आत्मनिर्भरता को काफी झटका दिया। आत्मनिर्भरता के नाम पर हमने लाइसेंस उत्पादन शुरू कर दिया। इसके तहत हम ह्यसेमी नॉक्डडाउन किट्सह्ण एवं ह्यकम्प्लीटली नॉक्डडाउन किट्सह्ण की असेम्बली में जुट गए। इससे हमारी अपनी डिजाइन क्षमता को भारी नुकसान पहुंचा। 1990 तक यह समस्त रूसी हथियारों का जखीरा पुराना हो चुका था और इसे बदलने का समय आ चुका था।
तभी भारत को दूसरा झटका लगा। 1990 में सोवियत संघ टूट गया। भारत का एक बहुत सस्ता और विश्वसनीय हथियारों का स्रोत समाप्त हो गया। 1991 तक भारत की अपनी आर्थिक स्थिति दिवालियेपन की कगार तक आ चुकी थी। 1960 और 1970 के दशकों में खरीदे गए सोवियत हथियारों के बदले नए हथियार खरीदने की हमारी क्षमता ही खत्म हो चुकी थी। श्री नरसिम्हा राव के शासन काल में भारत ने अपनी आर्थिक सुरक्षा ठीक करने का दौर शुरू किया। तमाम शस्त्रों के आधुनिकीकरण की योजना स्थगित करनी पड़ी। एनडीए सरकार के शासनकाल में एसयू 30 और टी 90 टैंक खरीदे गए। परमाणु हथियारों का परीक्षण हुआ और उसके बाद कारगिल का युद्घ और फिर भारतीय संसद पर हमला हुआ। इसके जवाब में ऑपरेशन पराक्रम हुआ। सन् 2000 तक भारत की आर्थिक हालत में काफी सुधार हो गया था और अब सेनाओं को उम्मीद थी कि उनके 1960 और 1970 के दशकों के हथियार बदले जाएंगे। इस नाजुक मोड़ पर यूपीए सरकार में नेहरूवादी नीतियों और शांतिवाद का पुनर्जन्म देखने को मिला। यही नहीं, हथियारों की खरीद की प्रक्रिया चींटी की चाल से भी धीमी कर दी गई। पाकिस्तान हो, चीन या आतंकवाद, हमारे यहां एक नई आत्मसमर्पण की नीति उजागर हुई है। शांति के नाम पर हमारी वर्तमान सरकार रक्षा पर खर्च करना ही नहीं चाहती। वोटों की राजनीति के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले पूर्ण रूप से ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं। हमारे देश में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर एक अजीब उदासीनता है। तभी तो हम इस बढ़ते संकट काल में निश्चिंत होकर सो रहे हैं।
मौजूदा संकट
आज हालात ये हैं कि हमारी 45 स्क्वाड्रन्स वाली वायुसेना सिमटकर केवल 30 स्क्वाड्रन्स की रह गई है। 1960 के दशक के 40 वर्ष पुराने मिग 21 जहाज अब आएदिन दुर्घटनाग्रस्त होने लगे हैं। लेकिन अभी तक उनकी जगह राफेल एवं एलसीए जहाज कहीं दिखाई नहीं दे रहे। चीन की वायुसेना के पास 2020 तक करीब 2500 चौथी और पांचवीं पीढ़ी के आधुनिक लड़ाकू विमान (एसयू 27, एसयू 30, टी10 और टी 11) आ जाएंगे। हमारी वायुसेना की ताकत जवाब में कम होती जा रही है। वायु शक्ति की आधुनिक युद्घ में निर्णायक भूमिका होती है। इसके अभाव में हार निश्चित हो जाती है। कौन इसका जिम्मेदार होगा? हमारी थल सेना को 1987 के बोफर्स कांड के बाद दूसरी मध्यम श्रेणी की तोप नहीं मिली। याद रहे, पहाड़ों की लड़ाई में तोप खाने की अहम भूमिका होती है। कारगिल युद्घ ने इसे साबित किया था। आज के दिन हमारे 20 प्रतिशत टैंक रात में लड़ नहीं सकते। हमारी विमान भेदी तोपें और प्रक्षेपास्त्र 1960 के दशक के हैं। हमारे हेलीकाप्टर भी उसी दशक के हैं। इन्हें बदलना अनिवार्य है। पिछले सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने सरकार को इन सब गंभीर हालातों से अवगत कराया था। साफ कहा था कि सेना के टैंकों के लिए बारूद की गंभीर कमी है। जवाब में सरकार ने रक्षा बजट 10,000 करोड़ रुपए कम कर दिया। किसी और देश में राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति इस प्रकार के खिलवाड़ को लेकर बवाल खड़ा हो जाता। इस देश में तो किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। 1962 की करारी हार के बाद अब तक हम सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़कें नहीं बना पाए हैं। यह तो उदासीनता की हद है। पर्वतीय आक्रमण टुकड़ी का सुझाव पिछले दो वर्षों से ठंडे बस्ते में था। अब भी इसे बनने में सात वर्ष लगेंगे। तब तक यह ह्यबहुत देर से बहुत कमह्ण की संज्ञा में आ चुका होगा। हमारी नौसेना की समस्त पनडुब्बियां अगले कुछ वर्षों में सेवामुक्त हो जाएंगी। इनके बदले में स्कॉरपियोन पनडुब्बियां कहीं क्षितिज पर दिखाई नहीं दे रहीं। हमारा एकमात्र विमानवाहक पोत कई साल पहले सेवामुक्त हो जाना चाहिए था। हमारे युद्घपोतों के निर्माण का कार्य भी वर्षों पिछड़ गया है। हमारे रक्षा मंत्रालय के बाबुओं पर इसका रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा। 1962 की तरह इसकी भारी कीमत हमारे देश को चुकानी पड़ेगी।
शांति की इसी मानसिकता के तहत हमारी सुरक्षा सेनाओं के पीछे कुछ सेकुलर गैर सरकारी संगठन छोड़ दिए गए हैं। तमाम कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी मामले थोपकर उनका मनोबल पूर्ण रूप से तोड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है। आतंकवाद के पनपने के लिए एक माहौल तैयार किया जा रहा है। क्या वजह है कि म्यांमार में रोहिंग्या और बौद्घों के बीच दंगे होते हैं और प्रतिक्रिया होती है बोधगया में? वजह सिर्फ यह है कि राजनीतिकरण के कारण हमने अपने सुरक्षातंत्र की कमर ही तोड़ दी है।
राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विषयों के प्रति इस खतरनाक उदासीनता के पीछे है एक पार्टी विशेष का सेनाओं के प्रति ऐतिहासिक वैमनस्य। जैसा प्रारंभ में बताया कि स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी बोस, आईएनए और भारतीय सेनाओं के योगदान को नकारने का पूरा प्रयास किया गया। एक मनगढ़ंत कहानी गढ़ी गई कि ह्यहमें स्वतंत्रता मिली शांति और अहिंसा के कारणह्ण। यह सफेद झूठ है। इस झूठ को स्थापित करने के लिए सशस्त्र सेनाओं को लताड़ा गया। उन्हें जानबूझकर शस्त्रों इत्यादि से वंचित रखा गया। उनका रक्षा बजट काट दिया गया। जवाब में मिली बुरी तरह हार। 1962 के बाद पूर्ण रूप से बदलाव आया। श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में सेनाओं को पर्याप्त साधन दिए गए और उन्होंने देश को शानदार जीत दिलाई। कारगिल युद्घ में भी उन्होंने अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया।
परंतु अफसोस यह है कि यूपीए के शासनकाल में ह्यशांतिवादह्ण का एक दूसरा चरण शुरू हो गया है जिसमें सशस्त्र सेनाओं के प्रति नेहरू युग का वैमनस्य साफ झलकता है। यह वैमनस्य हमें तब भी बहुत भारी पड़ा था और एक बार फिर हमारे देश, हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह भारी खतरा पैदा कर रहा है। अगर हमने यह बुनियादी रवैया जल्दी नहीं बदला तो देश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। वक्त बहुत कम है।
किस पर कितने परमाणु बम
देश संख्या
रूस 8500
अमरीका 7700
फ्रांस 300
चीन 250
ब्रिटेन 225
भारत 90-100
पाकिस्तान 90-100
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