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ह्यकह्ण से कबूतर को फुर्र करने की चाल
भारत एक बहुभाषी देश है। अत: भाषा का विषय हमारे देश के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसके लिए संविधान मे उपबंध किया गया है। अनुच्छेद 343 द्वारा देवनागरी लिपि में हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त अनेक क्षेत्रीय भाषाओं को राज्य की भाषाओं के रूप में मान्यता दी गई है। इन भाषाओं का उल्लेख संविधान की आठवीं सूची में किया गया है।
संपूर्ण भारत संघ की राजभाषा को राष्ट्रभाषा कहा जा सकता है। अनुच्छेद 351 के द्वारा हिन्दी भाषा के विकास के लिए भारतीय संघ (केंद्रीय शासन) को तीन कर्त्तव्यों के निर्वाह का आदेश दिया गया है। ये कर्तव्य हैं-
पहला, हिन्दी भाषा के प्रसार को प्रोन्नति देना- इसका तात्पर्य है कि यह प्रयास करना कि अधिकाधिक लोगों की संवाद की भाषा हिन्दी हो तथा वे देवनागरी लिपि में हिन्दी पढ़-लिख सकें, कार्यालयों में कार्य हिन्दी में किया जाए और भारत में सभी छात्रों को हिन्दी का प्रारंभिक ज्ञान तो अवश्य कराया जाए।
दूसरा, हिन्दी का विकास करना- इसकी यह दिशा होगी कि हिन्दी भारत की संस्कृति के सभी तत्वों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन सके। भारत एक विशाल देश है, यहां पर अनेक जीवन शैलियां अर्थात् संस्कृतियां हैं। कुछ देशीय हैं कुछ विदेशी हैं। इससे भारत की संस्कृति एक रंगी या एक रूपी नहीं है बल्कि अनेक रंगों और रूपों की मिश्रित या सामासिक संस्कृति है। इस सामासिक संस्कृति को हिन्दी के माध्यम से अनेक विधाओं में अभिव्यक्ति दी जा सकती है।
तीसरा, हिन्दी भाषा की समृद्घि सुनिश्चित करना- इसके लिए हिन्दुस्थानी और आठवीं सूची में उल्लिखित भाषाओं के रूप, शैली तथा पदों को हिन्दी में आत्मसात किया जाना चाहिए। हिन्दी के शब्द भण्डार को धनी बनाने के लिए जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द लिए जा सकते हैं। अन्य भाषाओं में विदेशी भाषायें भी हो सकती हैं।
अन्य भाषाओं का संबल लेने पर एक प्रतिबंध भी बताया गया है जो सदैव ध्यान में रखना आवश्यक है। प्रतिबंध यह है कि इससे हिन्दी की अपनी प्रकृति या विशिष्टता में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। उदाहरण के लिए, मामला (उर्दू) शब्द का बहुवचन मामले (मामलों) बनाया जाए, मामलात नहीं एवं चैनल (अंग्रेजी) शब्द का बहुवचन चैनलों बनाया जाए, चैनल्स नहीं।
अपनी ही राष्ट्रभाषा में कार्य करना प्रत्येक देश के लिए सम्मान एवं अस्मिता की बात होती है। अत: हिन्दी के प्रसार, विकास एवं समृद्घि के जो कर्त्तव्य भारत के केन्द्रीय शासन को संविधान द्वारा दिए गए हैं उनका निर्वाह पवित्र कर्तव्य भाव से किया जाना चाहिए। इस विषय के विभिन्न आयाम हैं। यहां हम केवल एक ही आयाम-मीडिया पर चर्चा करने वाले हैं। देखने वाले हैं कि मीडिया में इन कर्त्तव्यों के निर्वाह की स्थिति क्या है।
आज मीडिया में हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू की खिचड़ी परोसने का यह औचित्य बताया जाता है कि यह हिन्दुस्थानी भाषा है। यह तर्क पूर्णत: निर्मूल है। यह आधिकारिक रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि भारत की राज भाषा हिन्दी है, हिन्दुस्थानी नहीं। अपने संविधान की आठवीं सूची में इस समय बाईस भाषाओं का उल्लेख है। उनमें हिन्दुस्थानी का नाम भी नहीं। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि केवल हिन्दी शब्दों का प्रयोग करने से मीडिया की भाषा क्लिष्ट हो जाएगी। यह तर्क पूर्णत: मिथ्या है। कोई शब्द भले ही पहली बार सुनने पर क्लिष्ट लगता हो, तीन-चार बार प्रयोग करने पर वह सरल हो जाता है। आज मुख्यधारा के कहे जाने वाले समाचारपत्रों के शीर्षक देखिए। उनमें हिन्दी कम, अंग्रेजी ज्यादा दिखाई देती है। दस शब्दों के शीर्षक में 5-6 शब्द अंग्रेजी के लिखकर वे क्या संदेश देना चाहते हैं?
हिन्दी भाषा पर अतिक्रमण का प्रभाव यह होगा कि जनमानस में यह संदेश जाएगा कि हिन्दी उन विचारों को अभिव्यक्त करने में अक्षम है जिनके लिए अंग्रेजी एवं उर्दू के शब्दांे की शरण ली जा रही है। यह तो हिन्दी का घोर अपमान है। हिन्दी का शब्द कोष उर्दू से कई गुना धनी है। जहां तक अंग्रेजी की बात है, तो केवल उन यंत्रों के लिए, जिनका आविष्कार अंग्रेजों द्वारा किया गया है, हिन्दी भाषा में शब्द नहीं हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि आविष्कारक अपने यंत्र का नाम तो उसी भाषा में देगा जिसका उसको ज्ञान है, तथापि उनके यंत्रों के लिए हिन्दी में सम्यक् शब्दों का निर्माण हो गया है। अनेक यंत्रों के अंग्रेजी नामों को हिन्दी में आत्मसात कर लिया गया है। जैसे ट्रेन, साईिकल,आटो, कार, मोबाईल, पेट्रोल, डीजल इत्यादि। अंग्रेजी भाषा की भी ऐसी ही स्थिति है। उसमें भी अनेक हिन्दी शब्दों को आत्मसात किया जा रहा है। उदाहरणत: आसन, साड़ी, कुर्ता, घेराव आदि। लेकिन जहां तक मानवीय भावनाओं और चिन्तन का प्रश्न है, दोनों भाषायें आत्मसम्पन्न मिलेंगी। कोई भी उन्नीस नहीं कही जा सकती है। अत: अंग्रेजी का ऐसे विषयों में भी प्रयोग अनावश्यक है। अंग्रेजी भाषा के जिन शब्दों का मीडिया में धड़ल्ले से प्रयोग होता है, किसी भी अंग्रेजी-हिन्दी शब्द कोष में उन सबके लिए सरल-सुबोध और कर्णप्रिय हिन्दी शब्द मिल जाएंगे। (देखें, बाक्स ह्यकह्ण)
वर्तमान स्थिति यह है कि इस समय टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों द्वारा हिन्दी भाषा की घोर उपेक्षा की जा रही है। कोई भी व्यक्ति दो या तीन दिन मीडिया पर लगातार ह्यआज तकह्ण ह्यसहारा समयह्ण, ह्यजनमतह्ण, ह्यइण्डिया टी.वी.ह्ण, ह्यचैनल 7ह्ण, ह्यई.टी.वी. न्यूजह्ण जैसे चैनलों को ही देखे, तो उसे यह ज्ञात हो जाएगा। हिन्दी के जो शब्द सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, उनका प्रयोग तो भूले भटके ही होता है, उनके स्थान पर अंग्रेजी एंव उर्दू के शब्दों का ही प्रयोग किया जा रहा है।
यह स्वीकार किया जा सकता है कि अंग्रेजी एंव उर्दू के कुछ शब्द हिन्दी में आत्मसात हो चुके हैं। उनका प्रयोग प्रसंगवश अधिक प्रभाव उत्पन्न करता है। अत: उनके प्रयोग पर आपत्ति करना उचित नहीं। परंतु जितनी अधिक संख्या में तथा जितने विचित्र रूप में उन भाषाओं के अगणित शब्दांे का प्रयोग हिन्दी भाषा के कार्यक्रमों में हो रहा है उससे यह अनायास अनुभूति होती है कि यह प्रयोग इस विचार से नहीं किया जा रहा कि उनकी आवश्यकता अधिक प्रभाव के लिए है बल्कि इस मनोभाव से किया जा रहा है कि अंग्रेजी एवं उर्दू के शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग करके हिन्दी की अस्मिता को दुर्बल किया जाए।
मीडिया में हिन्दी भाषी कार्यक्रमों में हिन्दी की दशा के उपर्युक्त तथ्यात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि मीडिया अपने भाषा संबंधी कर्त्तव्यों से पूर्णत: विमुख है। ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया में हिन्दी के प्रयोग की न्यूनता के मूल में एक सुविचारित षड्यंत्र है। यदि अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्द श्रोताओं के कानों में बारम्बार डाले जाएंगे, तो वे उन्हीं शब्दांे का व्यवहार करने लग जाएंगे। फलत: शनै: शनै: हिन्दी भाषा अप्रचलित और विलुप्त हो जाएगी। संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हिन्दी कार्यक्रम देने वालों को यह अनौपचारिक परंतु आधिकारिक निर्देश है कि हिन्दी के कार्यक्रमों में अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग करने का प्रयास करें। यह निर्देश उन पर दवाब का काम करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उर्दू भाषा का शिक्षण और प्रशिक्षण भी दिया जाता है, क्योंकि उर्दू शब्दों के उच्चारण में नुक्ते का बड़ा महत्व है। उससे शब्दों का अर्थ भेद हो जाता है। उदाहरण के लिए जलील और ज़लील शब्दों में अन्तर। सामान्यत: हिन्दी भाषी लोग नुक्ते की त्रुटि कर जाते हैं, परंतु मीडिया में उर्दू बोलने वालों का तखल्लुस (उच्चारण) अधिकांशत: शुद्घ होता है। जो शब्द पर्दे पर लिखकर आते हैं, उनमें भी नुक्ते की बिन्दी उचित स्थान पर रहती है। इतनी त्रुटिहीनता शिक्षण-प्रशिक्षण के अभाव में हो ही नहीं सकती। (देखें, बाक्स ह्यखह्ण)
मीडिया में इस प्रकार से हिन्दी भाषा की अवमानना का जो खुला खेल चल रहा है, इसमें बहुत हद तक दोष हिन्दी भाषा के अध्यापकों का है। कहीं पर भी सामूहिक रूप से उन्होंने इस समस्या को नहीं उठाया। यदि वे एक बार भी किसी भी नगर में सामूहिक प्रदर्शन कर दें तो संचार साधन अपनी त्रुटि को सुधारने में कोई विलम्ब नहीं करेंगे। सम्भव है कि वे इसके लिए उनका आभार भी मानें कि उनके ऊपर जो प्रच्छन्न दबाव है, जिसे वे पसंद नही करते, उससे उनको मुक्ति दिला दी गई।
हमारा विरोध अंग्रेजी और उर्दू से लेशमात्र भी नहीं है। उन भाषाओं के अपने चैनल हैं। उनमें पर्याप्त कार्यक्रम दिये जाते हैं। विरोध तो केवल हिन्दी विरोध का है।
अंग्रेजी सिखाने के वास्ते
अंग्रेजी तर्ज पर हिन्दी को ढालने के प्रयास में हिन्दी के सामने संकट खड़ा किया। अ से ऐ की पहचान, ब से बी, क से के और ड से डी। अब वर्णमाला अ, आ, इ, ई… की बजाय अ ब क ड की जा रही है यानी ए, बी, सी, डी।
मीडिया पर छाए अंग्रेजी शब्द (क)
प्रयोग में अंग्रेजी शब्द बहिर्गत हिन्दी शब्द
सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च न्यायालय
हाईकोर्ट उच्च न्यायालय
चीफ जस्टिस मुख्य न्यायाधीश कोल्ड डिं्रक्स शीतल पेय
प्राईवेट व्यक्तिगत
सर्वे सर्वेक्षण/निरीक्षण
हेडलाइंस शीर्ष समाचार
सस्पेंड निलम्बित
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बॉक्स आफिस टिकट घर
बार कौंसिल अधिवक्ता परिषद्
वेलफेयर कल्याण
एडवेंचर साहसिक कार्य/साहस
सुपरिटेंडेंट निरीक्षक
ट्रांस्फर स्थानान्तरण
परफेक्शन पूर्णता
म्युजिकल इस्ट्रूमेंट संगीत वाद्य
क्वालिफाई योग्य (पात्र) होना
एंकाउन्टर मुठभेड़
हाई अलर्ट पूर्ण सतर्कता
डॉ. रमेश चन्द्र नागपाल, पूर्व प्रोफेसर, विधि विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय
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