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आर्यभट्ट, कणाद और सुश्रुत को भुलाया, न्यूटन को अपनाया
गांधी जी ने जब कहा था अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जो शिक्षा थी वह बाद में घटी है तो सर जॉन फिलिप ने उन्हें चुनौती दी थी। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दो पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। संुदरलाल जी की पुस्तक ह्यभारत में अंग्रेजी राजह्ण में एक अध्याय है- ह्यभारतीय शिक्षा का सर्वनाश।ह्ण धर्मपाल जी ने जो पुस्तक छापी है, उसमें वे पूरे आंकडे़ हैंं जो यह बताते हैं कि 18वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा का ढांचा क्या था?
विलियम एडम के द्वारा किया गया सर्वेक्षण यह स्पष्ट करता है कि सन् 1830-40 के वर्षों में बंगाल और बिहार के गांवों में लगभग एक लाख पाठशालाएँ थीं। चैन्नई प्रदेश के लिए टोमस मनरो ने बताया था कि ह्ययहां प्रत्येक गांव में एक पाठशाला थी।ह्ण इसी प्रकार मुंबई प्रेसीडेन्सी के जी़एल़ ऐन्टरगास्ट नाम वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा है कि ह्यगांव बड़ा हो या छोटा, यहां शायद ही ऐसा कोई गांव होगा जहां कम से कम एक पाठशाला न हो। बड़े गांवों में तो एक से अधिक पाठशालाएं थीं।ह्ण
श्री धर्मपाल जी ने 18 वीं शताब्दी में इस भारतीय शिक्षा को रमणीय वृक्ष कहा था और गांधी जी ने आगे इंग्लैण्ड में जाकर यह चुनौती दी थी कि आपने हमारे इस रमणीय वृक्ष की जड़ें काट दी हैं और हमारी शिक्षा के स्वरूप को बिगाड़ दिया है।
अंग्रेजों का अंधानुकरण
मैकॉले के निम्नलिखित विचार ध्यान देने योग्य हंै ह्यहमें एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जिसका रक्त और रंग दिखने में भारतीय हो, परन्तु उनका आचरण, व्यवहार और शैली अंग्रेजियत में रंगी हो।ह्ण
मैकॉले ने इस देश की शिक्षा प्रद्घति में आमूलचूल परिवर्तन किया और अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व स्थापित किया। अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारे में हीनता का भाव आ गया और हम अपने महापुरुषों, ज्ञानवेत्ताओं और वैज्ञानिकों को भूल गए। हम न्यूटन को तो जानते हैं परन्तु आर्यभट्ट को नहीं जानते। हम यह नहीं कहना चाहते, कोपरनिक्स से बहुत पहले हमारे देश में सूर्य के केन्द्र की व्यवस्था को हमने जान लिया था। हम अपने विद्यार्थी को यह भी नहीं बताना चाहते कि परमाणु के सम्बन्ध में सबसे पहले संकल्पना हमारे देश में हुई। ज्योमैट्री में जिस परिमेय को पाईथागोरस के नाम से पढ़ाया जाता है, वह बौद्धायन ने हमें दी थी। सुश्रुत एक बहुत ही प्रसिद्घ शल्य चिकित्सक हुए। कणाद ऋृषि ने अणु का आविष्कार किया था। इस ऋृषि परम्परा को हम भूल गए और अंग्रेजी शिक्षा का हमने अंधानुकरण किया। इसलिए जो भी प्राचीन है उसको हम हीन मानते हैं और जो आधुनिक है उस पर गर्व करते हैं।
अतीत काल में विेदेशी यात्रियों और पर्यटकों ने भारतीयों की नैतिक उत्कृष्टता के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा की है। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व एरियन ने कहा था,ह्यकभी किसी भारतीय के मिथ्यावादी होने की शिकायत सुनने में नहीं आती।ह्ण लगभग 1500 वर्ष पूर्व भारत की यात्रा पर आए बौद्घ मतावलम्बी चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मगध अंचल की अद्भुत समृद्घि तथा वहां के लोगों की उच्च नैतिकता-बोध की बड़ी प्रशंसा की है। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने लिखा, ह्यये लोग बताते हैं कि इन्होंने कभी अकाल या भुखमरी नहीं देखीह्ण।
मार्कोपोलो ने कहा था, ह्यभारतीय व्यापारी संसार में सर्वोत्तम और सर्वाधिक सत्यनिष्ठ हैं। किसी भी कारण से वे कभी झूठ नहीं बोलते।ह्ण
देश की स्वतन्त्रता के 66 वर्ष पश्चात् भी पाश्चात्यीकरण का प्रभाव अभी भी बना हुआ है। हाल ही में घटित गुड़गांव की घटना से स्पष्ट होता है कि जहां 125 बालक उस मनोरंजक स्थल पर गए जिसके मालिक ने वहां यौन क्रीड़ाएं तथा हुक्का पीने का प्रबन्ध किया। प्रवेश शुल्क 600 रुपये था। यह एक उदाहरण ही नई पीढ़ी की दशा और दिशा स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
शिक्षा का व्यापारीकरण
व्यापारीकरण, व्यवसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है। मण्डी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है। परिणामत: शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है। धन के आधार पर छात्र आई़आई़टी, एम़बी़ए़, सी़ए़ एम़बी़बी़एस आदि उपाधियों के लिये प्रवेश पाकर उच्च भावना से ग्रस्त ओैर धनाभाव के कारण प्रवेश से वंचित हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं। दोनो ही श्रेणियों के छात्र भावातिरेक से ग्रस्त हैं। असमानता की खाई बढ़ रही है। सामाजिक असंतुलन और विषमता इसी का परिणाम है।
शिक्षा पर धन और बल का अधिकार रहेगा, भेदभाव बढ़ेगा। स्पष्ट है निजीकरण के माध्यम से कभी भी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोचिंग के बाजार में कई घटिया, गैरमान्यता प्राप्त, फर्जी शिक्षा की दुकानंे खुलती जा रही हैंं। इन सबको रोकना बहुत बड़ी चुनौती है। देश में 125 मानद (डीम्ड) विश्वविद्यालय हंंै। इनके 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। इन्होंने उच्च शिक्षा को मुनाफे का धन्धा बना दिया है। आन्ध्र प्रदेश में 600 से अधिक निजी इन्जीनियरिंग महाविद्यालय हैं। कर्नाटक में यह संख्या 170 है, उड़ीसा में 81, राजस्थान में 80 है। इस परिदृश्य से जो स्थिति उपस्थित हुई, इस कारण आर्थिक व सामाजिक आधार पर भी शिक्षा विभाजित हुई है।
मेडिकल का कालाधंधा
निजी मेडिकल विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर बहुत ही घटिया है। दक्षिण भारत में ऐसे अनेक विश्वविद्यालय हैं। उन विश्वविद्यालयों से एम.बी.बी.एस. की उपाधि प्राप्त करने वाले 90 प्रतिशत छात्र दिल्ली में एनटरसशिप करने आते हैं और यहां इनकी पढ़ाई के स्तर की पोल खुल जाती है।
सरकारें, मरीजों के साथ खिलवाड़ कर रही हैं और नकली डाक्टरों की उपाधियों को मान्यता दी जा रही है। मेडिकल कालेजों के बाजार का यह काला धन्धा चल रहा है। किराए के मकान में 20 लाख रुपये लेकर 100 विद्यार्थियों को प्रवेश देंगे और यह हो गया मेडिकल कॉलेज? करोड़ांे रुपये व्यय कर डिग्री लेने वाले डाक्टरों का पैसा कमाने से सरोकार है बस! सेवा से नहीं।
देश के करीब अस्सी प्रतिशत मेडिकल कॉलेज महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और आन्धप्रदेश मंे हैं और शेष भाग में मात्र 20 प्रतिशत हैं। इस असंतुलन को भी बदलने की आवश्यकता है। सेवा के इस क्षेत्र को सेवा भाव से देखना व संवारना अतिआवश्यक है।
अल्पसंख्यक तुष्टीकरण
केन्द्र सरकार अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का एक विघटनकारी खेल खेल रही है। राज्य सरकारों ने इसका अनुसरण किया है। रोजगार में मुसलमानों के आरक्षण के प्रतिशत में वृद्घि की जा रही है। आन्ध्र प्रदेश द्वारा शिक्षा और रोजगार में 4 प्रतिशत और बंगाल सरकार ने 10 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नए 5 केन्द्रों पर काम चल रहा है। मजहब आधारित आरक्षण न केवल अवैधानिक है, अपितु देश को विभाजन की ओर भी धकेलने का खतरनाक कदम है।
विदेशी संस्थाओं का आकर्षण
अमरीकी इन्वेस्टमेंट कंसलटेन्ट राबेट लिटले भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के केन्द्र शुरू करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। ऐसे प्रयास केवल लिटले ही नहीं और भी बहुत सी कम्पनियाँ कर रही हैं। अमरीका व यूरोपीय शिक्षा माफियाओं व बैंकों की गिद्घ दृष्टि भारत के शिक्षा क्षेत्र पर है। अमरीका भक्त मनमोहन सिंह, मोटेंक सिंह आहलुवालिया, सेम पित्रौदा, कपिल सिब्बल- यह चौकड़ी शिक्षा को विदेशी जाल तथा चाल में फंसाने को आतुर दिखाई देती है।
मैक्समूलर ने लिखा था ह्यहम शिक्षा के माध्यम से भारत पर दोबारा जीत प्राप्त करेंगेह्ण। पाश्चात्य विश्वविद्यालयों की स्थापना मैक्समूलर के कथन की सत्यता को सिद्ध कर रही है।
प्रो़ दयानन्द डोनगांवकर, जो विश्वविद्यालय संगठन के महामंत्री थे, उन्होंने कहा है कि हम विरोधाभास के संसार में रह रहे हैं। हम संसार में शिक्षा के ढांचे का सबसे बड़ा तंत्र हैं परन्तु विश्वविद्यालयों में केवल 14 प्रतिशत विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। हम कहते हैं कि हम ज्ञानवान, बुद्घिगामी देश हैं परन्तु इस देश में 35 प्रतिशत आबादी अनपढ़ है।
शिक्षा का अधिकार
कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार के कानून को शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम बताया है। किन्तु कानून बनने के 3 वर्ष के पश्चात् राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण किया गया। उसके अनुसार 30 प्रतिशत विद्यालयों के ठीक भवन नहीं हैं। स्वच्छ पानी पीने की व्यवस्था नहीं है। लड़कियों के लिये पृथक शौचालय नहीं हैं। 20 प्रतिशत विद्यालयों में केवल एक ही कमरा है। अर्थात् उनमें एक ही अध्यापक है। 10 प्रतिशत विद्यालयों में श्याम पट्ट भी नहीं हैं।
विद्यालयों में मीड डे मील (दोपहर का भोजन) जो दिया जा रहा है वह घटिया तथा विषैला है। उसमें कोई पौष्टिक तत्व नहीं है। इसके सेवन से बच्चों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। बिहार में 21 बच्चों की मौत हो गई है। इस योजना के क्रियान्वयन के कारण विद्यालयों से बच्चों के बीमार होने के समाचार प्रतिदिन आ रहे हैं। सारे देश में एक भय का वातावरण है।
शिक्षक व शिक्षा की दुर्दशा
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् ने जिस बेरहमी तथा बेशर्मी से बी़.एड महाविद्यालयों को खोलने की स्वीकृति प्रदान की है, वह दु:खद गाथा है। प्राय: सभी महाविद्यालय मापदण्डों की अवहेलना करते हैं। राजस्थान जैसे राज्य में वर्तमान में 857 बी़एड महाविद्यालय हैं और उनमें 92 हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। अधिकतर महाविद्यालयों में अनुभवहीन प्राचार्य नियुक्त हैं। योग्य प्राध्यापक नहीं, भौतिक तथा मानवीय संसाधनों का अभाव है। प्रायोगिक कार्य, सूक्ष्म शिक्षण, शिक्षण अभ्यास, यह सब मज़ाक हंै। महाविद्यालय धन कमाने की दुकानें बन गए हंै। महाविद्यालयों में वर्ष में 30 दिन उपस्थित रहकर परीक्षा उत्तीर्ण कर उपाधि प्राप्त कर लेना यह सब दिखाई दे रहा है। शुल्क जमा होना चाहिए ह्यह्यबसह्णह्ण इसी एक नियम को कठोरता से लागू किया जा रहा है। अभी आचार्यों के शैक्षिक स्तर के सम्बन्ध में शोचनीय स्थिति है। बिहार में 5 लाख अध्यापक पात्रता परीक्षा में पंजीकृत हुए। उनमें से केवल 1 लाख अध्यापक ही उतीर्ण हो सके। यही स्थिति अन्य प्रदेशों की भी है। देश में शिक्षकों के 6 लाख पद रिक्त हैं। ठेके पर रखे अस्थायी अध्यापक पढ़ा रहे हैं। आज के अध्यापक बौद्धिक दृष्टि से निर्धन तथा हदय से कठोर नज़र आते दिख रहे हैं।
विजय के पड़ाव
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद् द्वारा कक्षा 6 से 12 वीं इतिहास की पुस्तकें तथा हिन्दी की पुस्तकें संविधान की धाराओं तथा शिक्षा के उद्देश्यों के विरुद्ध लिखी गई हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में सरदार पटेल को आरएसएस का सहयोगी बताकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाला बताया गया है। आईसीएससी, एनसीईआरटी की पुस्तकों में स्वतंत्रता सेनानियों को ह्यआतंकवादीह्ण कहा गया। 2007 और 2008 में केन्द्र सरकार ने यौन शिक्षा लागू करने का प्रयास किया। इन सब विकृतियांे, विसंगतियों और राष्ट्रीय अपमान करने वाले संर्दभों के विरुद्घ शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने देशव्यापी परिणामकारक आन्दोलन चलाया। जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय तक में इन षड्यंत्रों को बेनकाब करने में हमने सफलता पाई है। अभी तक 9 न्यायालयों के निर्णय हमारे पक्ष में आए हैं। 1 केस अभी लंबित है। लड़ाइयां जीती हैं, युद्ध जीतना अभी शेष है। ल्ल दीनानाथ बत्रा
अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास
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