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भारत की वर्तमान विषम परिस्थिति से मुक्त होने तथा राष्ट्र को स्वतंत्र बनाये रखने तथा इसको सबल तथा दृढ़ बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण तत्वों पर विचार करना उपयोगी होगा।
धर्ममय राजनीति: पाश्चात्य अथवा यूरोपीय जगत के विपरीत भारतीय राष्ट्र जीवन का आधार सदैव धर्म रहा है। धर्म रिलीजन या मजहब का पर्यायवाची नहीं है। भारतीय चिन्तन में धर्म का अर्थ- कर्तव्य, नैतिकता, आचरण, जीवन के नैतिक मूल्य तथा आध्यात्मिकता माना गया है। हजारों साल के भारतीय इतिहास में कहीं भी, कभी भी राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों पर छा जाने का अधिकार किसी ने किसी को नहीं दिया। यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि भारत राष्ट्र मूलत: एक प्राचीन सांस्कृतिक, धार्मिक तथा नैतिक राष्ट्र है, न कि राजनीतिक। इसलिए राजनीति संस्कृति की चेरी है, न कि स्वामी।
सेनाध्यक्ष अंग्रेज रहे
15 अगस्त 1947 के बाद भी तीनों सेनाध्यक्ष अंग्रेज ही बने रहे। थल सेना का नेतृत्व जनरल बॉब लोकहर्ट के पास था। 1948 में उनसे कमान ली जनरल रॉय बाउचर ने। 15 जनवरी 1949 को जनरल करियप्पा पहले भारतीय थलसेनाध्यक्ष बने। 15 अगस्त 1947 को वायु सेनाध्यक्ष थे एयर मार्शल एमहर्स्ट। नौसेना प्रमुख थे कैप्टन टी.जे.एस. हॉल।
इतिहास से छेड़छाड़
संस्कृत तथा संस्कृति ज्ञान के अभाव में देश के अनेक राजनेताओं , तथाकथित शिक्षाविदों, प्रगतिशील तथा सेकुलरवादी विद्वानों और नौकरशाही ने भारतीयों का अतीत से नाता तोड़ने के असफल प्रयास किये। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन सही है कि हिन्दू जितना ज्यादा अपने गौरवमय अतीत का अध्ययन करेगा, उतना ही शानदार भविष्य होगा। जो जितना अतीत के द्वार पर खड़ा होने का प्रयत्न करता है, राष्ट्र हितैषी भी वही है। (देखें, उनका लेख इण्डियन हिस्ट्री : इन इट्स राइट पर्सपैक्टिव) आश्चर्य तो तब होता है कि जब देश के कई कांग्रेसी नेता तथा मंत्री भारतीय राष्ट्र का इतिहास भी नहीं जानते। यदि कोई एनसीईआरटी से प्रकाशित कक्षा 6 से 12वीं तक की इतिहास की पुस्तक पढ़े तो वर्तमान में इतिहास की जो दुर्गति की जा रही है उसका सहज ज्ञान होता है। क्या कोई कल्पना करेगा कि भारत के इतिहास में प्रावैदिक या उत्तर वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता का ज्ञान न हो? रामायण तथा महाभारत को काल्पनिक गं्रथ माना हो? इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य, गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय, विजयनगर के सम्राट कृष्णदेव राय, राणा सांगा, हेमचन्द्र विक्रमादित्य, यहां तक कि महाराणा प्रताप का नाम भी न हो? जहां केवल वीर शिवाजी का वर्णन केवल डेढ़ पंक्ति में हो? इन पाठ्यक्रमों में वृहत्तर सांस्कृतिक भारत की कल्पना तो दूर की बात है। आखिर देश की नई पीढ़ी को अपने गौरवमय अतीत से बेखबर क्यों रखा जा रहा है?
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