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पराधीन होने पर भी भारतीय जिस अपसंस्कृति से घृणा करते रहे, स्वाधीन होने पर उसी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकृष्ट होकर भोग-लालसा में अपने कर्तव्य मार्ग से भटक गए हैं। ऐसे में राष्ट्र पुरुषों का पावन चरित्र ही भटकों को मार्ग दिखा सकता है। इसी उद्देश्य से श्री गणेशदत्त शर्मा ने स्वामी विवेकानन्द के पावन चरित्र को भारतवर्ष की प्राणभूता संस्कृति की रक्षक देववाणी संस्कृत भाषा में काव्यबद्ध कर बड़ा ही पुनीत और सराहनीय कार्य किया है।
डा. गणेशदत्त शर्मा विद्वान, प्राचार्य और रससिद्ध कवि हैं। राष्ट्रपुरुषों के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा रही है, उसी का सुफल है- विवेकानन्दचरितामृतम्। उन्होंने पाठकों की सुगमता के लिए इस काव्य को बड़ी ही सरल सरस भाषा में लिखा है तथा कठिन शब्दों का प्रयोग न कर प्रचलित सरल शब्दों का ही प्रयोग किया है। साथ ही संस्कृत न जानने वालों की सुविधा के लिए संस्कृत श्लोकों का सरल हिन्दी में अनुवाद भी कर दिया है तथा संस्कृत-हिन्दी न जानने वालों को सुलभ बनाने के लिए श्लोकों को रोमन में लिख कर अंग्रेजी में अनुवाद कर 'सोने में सुगंध' वाले मुहावरे को चरितार्थ कर दिया है। जैसा कि विद्वान कवि ने लिखा है कि स्वामी विवेकानन्द के संदेश से आम लोगों को परिचित कराना ही इस काव्य का उद्देश्य है। वे अपने इस उद्देश्य में सफल हुए हैं।
विद्वान कवि ने विश्वगुरु स्वामी विवेकानन्द के जिस पावन चरित्र को अनुष्टुप छन्द में 14 सर्गों में संजोया है, उसकी एक झलक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है-
प्रथम सर्ग में मंगलाचरण, भारत-महिमा, नरेन्द्रनाथ का जन्म तथा उनकी शिक्षा का वर्णन किया है। दूसरे सर्ग में नरेन्द्रनाथ (विवेकानन्द का पूर्व नाम) का योगी रामकृष्ण परमहंस से सम्पर्क। तत्वज्ञ गुरु से ईश्वर के विषय में जिज्ञासु नरेन्द्र के प्रश्न-परमेश्वर कैसा है? क्या आपने उसे देखा है? क्या मैं भी उसे देख सकता हूं? इन प्रश्नों के उत्तर में योगी रामकृष्ण ने जो उत्तर दिया, उसकी कवि के शब्दों में एक झलक देखिए-
अनादि सच्चिदानन्दो
विश्वकर्ता विनायक:।
ईश्वर: सर्वभूतानामन्तस्तिष्ठति सर्वदा।। 2/23
(ईश्वर अनादि, सच्चिदानन्द, विश्व का रचियता और उसका नायक है। वह सदा सभी प्राणियों के अन्दर स्थित है।)
उस ईश्वर को स्वाध्याय, चिन्तन, ध्यान और भक्ति से देखा जा सकता है। तुम भी उसे ऐसे देख सकते हो, जैसे मुझे देख रहे हो। इतना कह कर आत्मवेत्ता गुरु रामकृष्ण ने नरेन्द्र का स्पर्श किया। गुरु के स्पर्श का शिष्य नरेन्द्र पर जो प्रभाव हुआ, उस प्रभाव की सहज अभिव्यक्ति देखिए-
अथासौ हृदयेऽपश्यद्दिव्यं ज्योतिर्विलक्षणम्।
ममज्ज मानसं चास्याद्वैतानन्दसरोवरे।।2/32
चित्तस्य ग्रन्थयश्छिन्ना
विच्छिन्ना: सर्वशंस्या:।
अहंकारस्तथा तस्य
यथौ प्रविलंय क्वचित् ।।2।33
(उसके बाद (स्पर्श के बाद) नरेन्द्रनाथ ने अपने हृदय में दिव्य और विलक्षण ज्योति का दर्शन किया और उसका मन अद्वैत आनन्द के सरोवर में डूब गया। उसके चित्त की गांठें खुल गयीं। सारे संशय नष्ट हो गए और उसका सारा अहंकार कहीं जाकर लुप्त हो गया।)
इसके बाद गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र को संन्यास की दीक्षा देकर आदेश किया- परमेश्वर सब जीवों में रहता है और सब प्राणी उसी के रूप हैं। जीवों की सेवा ईश्वर की पूजा है। तुम ईश्वर की कृपा चाहते हो तो दीनों की मदद करो। देश की गरीबी दूर करो और ज्ञान तथा कर्म संदेश देकर विश्व में शांति स्थापित करो।
तीसरे सर्ग में गुरुदेव के ब्रह्मलीन होने पर संन्यासी नरेन्द्र ने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य कर समूचे भारत का भ्रमण किया।
चतुर्थ सर्ग में उनके भारत भ्रमण का ही वर्णन है। पांचवें सर्ग में स्वामी नरेन्द्रनाथ ने भारत का पुन: भ्रमण किया। धर्म, संस्कृति और ज्ञान का उपदेश देकर लोगों को दु:खियों की सेवा करने के लिए प्रेरित किया। सब जगह सद् विवेक द्वारा आनन्द का विस्तार करने के कारण उनका नाम विवेकानन्द पड़ा। गुरु आज्ञा का स्मरण कर विश्व शान्ति के लिए स्वामी विवेकानन्द ने विदेश यात्रा निश्चय किया। छठे सर्ग में राष्ट्र धर्म मानकर देश को दासता के चंगुल से मुक्त कराने के उद्देश्य से धर्म विजय के लिए उनकी जलयान यात्रा तथा शिकागो पहुंचने का वर्णन है।
सातवें सर्ग में 11 सितम्बर, 1893 को विश्व धर्म सभा में स्वामी विवेकानन्द का अद्भुत भाषण हुआ। उसमें उन्होंने भारत-महिमा, धर्म, ईश्वर, जीवन-मूल्यों और वेदान्त दर्शन की जो प्रेम-गंगा बहायी, उससे उनकी ख्याति समूचे विश्व में फैल गयी। उन्होंने विश्व घर्म परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने अलौकिक तत्व ज्ञान से विश्व को चौंकाया ही नहीं, अपितु विश्व को अपने चरणों में झुकाकर विश्व से यह स्वीकार करा लिया था कि भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द द्वारा शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में दिए भाषण की कुछ झलकियां कवि के शब्दों में देखिए-
मामकं भारतं वर्षमभूज्जगद्गुरुर्भुव:।
यस्माच् शिशिक्षिरे
नूनं चरित्रं सर्वमानवा:।।7/9
(मेरा भारत वर्ष सारी पृथ्वी व सारे जगत का गुरु था, जिससे विश्व के सभी मानवों ने चरित्र की शिक्षा ली थी।)
आठवें सर्ग में विदेश की अनेक संस्थाओं में वेद-वेदान्त का उपदेश दिया और फिर अपने देशवासियों को संदेश दिया। उस संदेश की कवि के शब्दों में एक झलक देखिए-
अविद्यादैन्यदारिद्रयदैत्यवधपुर:सरम्।
पारतंत्र्यं पराकृत्य स्वराज्यं चाधिगच्छत
।।8/22
(अविद्या, दीनता और दरिद्रता रूपी दैत्य का वध करके और परतंत्रता को दूर करके स्वराज्य की प्राप्ति करो।)
नवम सर्ग में पेरिस-लंदन की यात्रा कर वहां धर्म के प्रवचन दिए। ज्ञान,भक्ति, कर्म का प्रतिपादन कर लोगों का मन जीत लिया। ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान के भाव को कवि ने किस प्रकार संजोया है, देखें-
बुद्धिराध्यात्मिकी ग्राह्या भवद्भिर्भारतादत:।
वैज्ञानिकी मतिर्देया
भारताभ्युदयाय च।।9।।16
(आपको (इग्लैण्ड के लोगों को) भारत से आध्यात्मिक ज्ञान लेना चाहिए और भारत की भौतिक उन्नति के लिए उसे वैज्ञानिक बुद्धि देनी चाहिए।)
दशम सर्ग में स्विट्जरलैंड, जर्मनी, हालैंड आदि यूरोपीय देशों की यात्रा के दौरान कुमारी मेरी को गृहस्थ धर्म का उदेश दिया। इस प्रकार विश्व में ज्ञान की ज्योति जलाकर धर्म की दिग्विजय और वेदान्त का शंखनाद कर के भारत लौट आए।
ग्यारवें सर्ग में उनके भारत लौटने, बारहवें सर्ग में रामकृष्ण आश्रम की स्थापना कर अल्मोड़ा यात्रा करने, तेरहवें सर्ग में अमरनाथ यात्रा और पुन: विदेश यात्रा, चौदहवें सर्ग में भारत लौट कर देशवासियों को उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का वर्णन है। जगदीश प्रसाद शर्मा 'सरल'
पुस्तक का नाम – विवेकानन्दचरितामृतम्
कवि – डॉ. गणेशदत्त शर्मा
प्रकाशक – एमिटी यूनिवर्सिटी प्रेस
ई/25, डिफेंस कॉलोनी
नई दिल्ली-110024
मूल्य – 595 रुपए
पृष्ठ – 440
सम्पर्क – 07838292313
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