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हमें याद रखना होगा कि स्वतंत्रता के लिए भारतवासियों ने बलिदान तो बहुत दिए, पर जिस प्रकार का राष्ट्रव्यापी आंदोलन अगस्त क्रांति नाम से सन् 1942 में हुआ, उसका उदाहरण विश्व में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन प्रारम्भ किया, पर 8-9 अगस्त की मध्यरात्रि में ही गांधी जी सहित देश के बहुत से नेता आंदोलन को दिशा देने वाले प्रमुख लोग अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद जनता चल पड़ी, कफन सिर पर बांध लिए, सिर हथेली पर रख लिए, डर-भय नाम की वस्तु ही भूल गए, पर यह नहीं जानते थे कि लक्ष्य कहां है, जाना कहां है। बस एक ही स्वर था- अंग्रेजों भारत छोड़ो। ब्रिटेन के एक अधिकारी ऐमरी ने यह कह दिया कि आंदोलनकारी रेल लाइनें तोड़ना, थानों पर कब्जा करना, अंग्रेजों पर आक्रमण करना चाहते हैं, इसीलिए उन पर सरकारी तंत्र कठोर हाथ से नियंत्रण करना चाहता है। उन दिनों राष्ट्रभक्त भारतीयों पर अंग्रेजों का कहर टूटा। महिलाएं आंदोलन में आगे बढ़ीं, पर उनके नारीत्व को भी अपमानित किया गया। कनकलता, भागेश्वरी देवी, रतनमाला आदि बहादुर बेटियां तो अंग्रेज की गोली से शहीद हुईं, पर बंगाल, बिहार और असम आदि क्षेत्रों में पुलिस और अंग्रेज अधिकारियों ने घरों में बैठी महिलाओं पर भी अत्याचार किए, उनका लाज हनन किया। बहुत से स्थानों पर परिवारों के सामने ही उन महिलाओं को निर्वस्त्र करके अपमानित किया।
ऐसी भी कुछ घटनाएं हुईं जहां छोटे – छोटे बच्चों को माताओं के हाथ से छीनकर काट दिए गए और जब कुछ सत्याग्रही जेल पहुंचे तो उनका जिस तरह शरीर शोषण किया गया वह कहानी लिखने में कलम भी कांपती और लजित होती है।
आज जब हम भारत छोड़ो आंदोलन की बात करते हैं तो अधिकतर देशवासी संभवत: यही सोचते होंगे कि 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के नारे लगाए और अंग्रेज यहां से चले गए। सच यह है कि हमने बहुत-सा खून भी भारत मां के अर्पण इसी आंदोलन में किया, यद्यपि कुछ नेताओं ने देश को यह पढ़ाने का असफल प्रयास किया कि हमें यह आजादी रक्त की एक भी बूंद बहाए बिना मिल गई।
भारत छोड़ो आंदोलन का स्मरण करने और करवाने का सीधा अर्थ यह है कि हमने असंख्य बलिदान देकर अंग्रेजों को तो भारत से भगाया, पर यह भूल गए कि हमारा आंदोलन, हमारा लक्ष्य, विदेशी आक्रांताओं से भारत को मुक्त करके भारत और भारतीयता का गौरव बढ़ाना है, पर अफसोस से कहना पड़ता है कि हमने अंग्रेजों को तो निकाला, पर अंग्रेजियत को कंठहार बना लिया। भारत के कुछ अंग्रेज भक्त अथवा अंग्रेजियत में ही गौरव मानने वाले अपनी वेशभूषा, खान-पान और रीति-रिवाज में यह होड़ लगा रहे हैं कि वे भारतीय कम और अंग्रेज ज्यादा दिखाई दें। स्वतंत्रता से पूर्व भारतेन्दु हरीशचंद्र जी ने देश में यह अलख जगाई थी –
अपनी भाषा है भली
भलो अपनो देश
जो कछु है अपनो भलो
यही राष्ट्र संदेश।
स्वतंत्र भारत के 65वें वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते अब अपनी भाषा का प्रयोग गरीब करता है और पब्लिक स्कूल संस्कृति तथा देश के नेताओं के संरक्षण में डायर तथा मैकॉले की भाषा सभी ओर छाई है। अभी इतना ही बचाव है कि विवाह-शादी संपन्न करवाने वाले पंडित जी को अंग्रेजी भाषा में मंत्र पढ़ने का आदेश नहीं दिया जाता। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि स्वतंत्र भारत के 13वें राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी भी शपथ उसी भाषा में लेते हैं जिस भाषा में इंग्लैंड की संसद में ली जाती है। राष्ट्रपति बनने के पश्चात् स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम संदेश भी उन्होंने किसी राष्ट्रीय भाषा में नहीं अपितु उन शासकों की भाषा में दिया जिनको हमने भारत छोड़ने पर विवश कर दिया था। स्वतंत्र भारत में आशा तो यह की जाती थी कि हम अपने रीति-रिवाज, रहन-सहन एवं सांस्कृतिक विरासत को बचाकर रखेंगे, पर अंग्रेजियत के प्रभाव में आज हमारे कुछ देशवासी जो भारतीय कम और 'इंडियन' ज्यादा है, बच्चों का जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ आदि सुअवसरों पर भी पाश्चात्य संस्कृति के बोझ तले मन-आत्मा से दबे तथाकथित बड़े आदमी दीपक बुझा कर तालियां बजाते हैं तथा लड्डू-बफर्ी समेत सैकड़ों भारतीय मिठाइयों को नकार कर केक खाना-खिलाना ही अपने बड़प्पन का प्रतीक मानते हैं। संभवत: शिक्षित होने का यह एक लक्षण है और बेचारा आम आदमी किसी तरह घिसट-घिसट कर इनके पीछे चलने में ही धन्य हो जाता है।
शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् दीक्षांत समारोह भी मैकॉले के काले रंग में ही रंग गए। अभी भी भारत के 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय और इतने ही कालेज काले गाऊन तथा बेतुके बड़े टोप पहनकर विदेशी भाषा में ही दीक्षा प्राप्त करने की नौटंकी करते हैं, यद्यपि वहां दीक्षा नहीं होती, लकीर की फकीरी होती है।
जहां तक मैं जानती हूं कि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले कहीं भी यह रिवाज नहीं था कि उद्घाटन में कैंची का वर्चस्व छाया रहे। अब कोई भी धार्मिक, सामाजिक अथवा पारिवारिक समारोह हो, लाल फीता बांधकर कैंची से काटने-कटवाने का काम नेताओं अथवा मुख्य अतिथि से करवाया जाता है। कैंची ही क्यों इसका उत्तर किसी के पास नहीं, पर भारतीयता के विरुद्ध कुछ भी करने को तैयार रहने वाला वर्ग यह भूल गया कि गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने का आदेश दिया था, हमें भारतीयता छोड़ने का नहीं। आजादी से पहले का गीत था-
भरा नहीं जो भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं वह पत्थर है
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
याद रखना होगा स्वदेश से प्यार का अर्थ स्वदेशी से प्यार है। अपनी संस्कृति-सभ्यता रीति-रिवाज से प्यार है। उन महापुरुषों से प्यार है, जो राष्ट्र की बलिवेदी पर सर्वस्व अर्पित कर गए। तिल-तिल जल गए और फिर लौट कर कभी घर न आए। भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ पर सरकार सरकारी धन से बड़े-बड़े कार्यक्रम करेगी, भाषण भी होंगे लेकिन उन भाषणों के पीछे वह हृदय नहीं होगा जिसमें यह हिम्मत हो कि स्वदेशी वेशभूषा खान-पान, भाषा और संस्कृति पर गर्व कर सके। विवेकानंद के भारत में आज भी हमारे नए राष्ट्रपति देशवासियों को औरतों और आदमियों कहकर संबोधित करते हैं। हमें याद रखना होगा कि मैकॉले ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट में कहा था कि अगर भारत को गुलाम बनाना है तो इनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ो अर्थात् इन्हें इनकी संस्कृति से दूर करो। अंग्रेजी राज्य में तो विदेशी शासक हमें हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से दूर नहीं कर पाए, पर स्वतंत्र भारत के सत्तासीन शासक ही जब अपने जन्मदिन पर मोमबत्तियां बुझाकर केक काटते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कार्य अंग्रेज न कर सके, वह हमारे शासक कर रहे हैं, क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा।
जहां भूख और कुपोषण से लाखों बच्चे मर जाते हैं, जहां मां की सूखी हड्डियों से बच्चों को दूध नहीं मिलता, जहां बचपन जवानी देखने से पहले ही रोटी के बोझ तले दबा बूढ़ा हो जाता है, जहां लाखों लोग बिना दवाई के संसार छोड़ने को विवश होते हैं उस देश के नेताओं को, प्रबुद्ध नागरिकों को बड़े-बड़े मंडप सजाकर कथा-प्रवचन करने वालों को याद रखना होगा कि भारत को स्वतंत्र करवाने वालों का, जलियांवाला बाग में गोलियां खाने वालों का, मदनलाल ढींगरा, ऊधम सिंह जैसे वीरों के फांसी पर लटकने का उद्देश्य यह था कि अंग्रेज भारत से जाएं, हमारा अपना राज हो, अपना ताज हो और जनता का राज्य जनता के लिए हो। कैसी विडंबना है कि देश का एक सांसद प्रतिवर्ष आधा लाख यूनिट बिजली नि:शुल्क उपयोग करता है और देश के लाखों परिवार अपने आंगन में एक दीपक की रोशनी देखने को तरसते हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ पर हमें दो बातें याद रखनी हैं, पहला यह कि अंग्रेजों को भारत से निकालना था, भारतीयता को नहीं और दूसरा यह कि स्वतंत्र भारत का धन-वैभव केवल राजधानियों में बैठे सत्तापतियों के लिए नहीं उन सबके लिए है जो भारत की संतान हैं। आइए संकल्प लें कि हम अपने रीति-रिवाज, वेशभूषा, खान-पान और सभ्यता-संस्कृति को गर्व के साथ अपनाएंगे, सीमाओं की
रक्षा करेंगे।
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