कुछ विचार
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स्वामी जी ने 1892-93 में अपने मद्रास प्रवास के दौरान हिन्दू धर्म, वेद, योग आदि विषयों पर जो दृष्टांत दिए उनमें कुछ ऐसे विचार सामने आए जो अपने में गहरा अर्थ समाए हुए हैं। यहां हम ऐसी ही कुछ स्फुट विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस संसार में प्रगति की दो रेखाएं रही है, राजनीतिक और धार्मिक। पहली में यूनानी सब कुछ हैं, आधुनिक राजनीतिक संस्थाएं केवल यूनानी संस्थाओं का विकास मात्र हैं, और दूसरी में हिन्दू सब कुछ हैं।
मेरा धर्म वह है, ईसाई पंथ जिसकी एक साखा है और बौद्ध पंथ जिसका एक विद्रोही शिशु।
उस स्थल पर रसायनशास्त्र की प्रगति रुक जाती है, जहां एक ऐसा तत्व मिल जाता है, जिससे अन्य सभी निकाले जा सकते हैं। भौतिक शास्त्र की प्रगति तब रुक जाती है, जब एक ऐसी शक्ति मिल जाती है, अन्य सब शक्तियां जिसकी अभिव्यक्ति मात्र हैं। इसी प्रकार धर्म में जब एकत्व की उपलब्धि हो जाती है, तो उसकी प्रगति रूक जाती है, और हिन्दू धर्म के संबंध में यही सत्य है।
ऐसा कोई धार्मिक विचार नहीं है, जिसका कहीं उपदेश दिया गया हो और वह वेदों में प्राप्त न हो।
हर वस्तु में दो प्रकार के विकास होते हैं, विश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक।' पहले में हिन्दू अन्य राष्ट्रों से श्रेष्ठ है। दूसरे में वे शून्य है।
हिन्दुओं ने विश्लेषण और अमूर्तीकरण की साधना की है। पाणिनि जैसा व्याकरण अभी तक किसी राष्ट्र ने नहीं बना पाया है।
रामानुज का महत्वपूर्ण कार्य है, जैनों और बौद्धों को हिन्दू धर्म में दीक्षित करना, वे मूर्ति-पूजा के बहुत बड़े प्रवक्ता हैं। उन्होंने भक्ति और श्रद्धा को मुक्ति के शक्तिशाली साधनों के रूप में प्रतिष्ठित किया।
भागवत में भी जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के समान चौबीस अवतारों का वर्णन है और ऋषभदेव का नाम दोनों में है।
विरोधी अंतिम सीमाएं सदैव मिलती है और एक दूसरे से समानता रखती हैं। श्रेष्ठतम आत्मविस्मृत भक्त, जिसका मन नि:सीम ब्रह्म के ध्यान में डूबा हुआ है, और नीचातिनीच प्रमत्त पागल, दोनों एक ही प्रकार के ब्रह्म लक्षण प्रस्तुत करते हैं। कभी-कभी हम अंत:परिवर्तन से चकित हो जाते हैं।
अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति धार्मिक व्यक्तियों के रूप में सफल होते हैं। जो कुछ उनके मन में आता है, वे उसी से उत्साहित हो उठते हैं।
'इस संसार में सभी पागल हैं, कुछ स्वर्ण के पीछे पागल हैं, कुछ स्त्रियों के पीछे और कुछ भगवान के पीछे। यदि मनुष्य के भाग्य में डूबना ही बदा है, तो गोबर के पोखरे में डूबने के स्थान पर क्षीरसागर में डूबना अधिक अच्छा है।' यह एक ऐसे भक्त का उत्तर है, जो पागलपन से आविष्ट था।
नि:सीम प्रेम का ईश्वर और उदात्त तथा नि:सीम प्रेम का आलंबन नीले वर्ण में चित्रित किए जाते हैं। कृष्ण को नीला चित्रित किया जाता है और इसी प्रकार सालोमन' के प्रेम के ईश्वर की। किसी भी ईश्वरीय और नि:सीम वस्तु को नीले रंग से सम्बंधित किया जाना एक प्राकृतिक नियम है। चुल्लू भर पानी लो, वह पूर्णतया वर्णहीन होता है। पर गंभीर विस्तृत महासागर को देखो, वह नीला होता है। अपने निकट के आकाश का निरीक्षण करो, वह रंगहीन है। किन्तु आकाश के नि:सीम विस्तार की ओर देखो, वह नीला है।
वेद ऐसे मंत्रों से ओतप्रोत हैं, जो एक सगुण ब्रह्म के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। जिन ऋषियों ने दीर्घकालीन भक्ति द्वारा ईश्वर के दर्शन किए हैं, उन्होंने अज्ञात की भी एक झांकी पायी है और उन्होंने संसार को ललकारा है। केवल हठाभिमानी लोग, जो ऋषियों के बताये हुए मार्ग पर नहीं चले हैं, और जिन्होंने उनके उपदेशों का अनुसरण नहीं किया है, वे ही उनकी आलोचना और विरोध करते हैं। अभी तक एक भी ऐसा व्यक्ति आगे नहीं आया है, जो यह कहने का साहस करता कि उनके निर्देशों का औचित्यपूर्वक अनुसरण किया है और वह कुछ भी नहीं देख पाया और अत: ये लोग मिथ्यावादी हैं। ऐसे लोग हैं, जो विभिन्न अवसरों पर परीक्षाओं में पड़े हैं और उन्होंने यह अनुभव किया है कि ईश्वर ने उनका साथ नहीं छोड़ा है। यह संसार ऐसा है कि यदि ईश्वर में विश्वास हमें कुछ भी सांत्वना नहीं देता, तो आत्मघात कर लेना अधिक अच्छा है।
मानव-स्वभाव में जितनी भिन्नताएं होती हैं, उतने ही प्रकार के आचरणों की शिक्षा वेदों में दी गयी है। जो एक वयस्क को शिक्षा दी जाती है, वही एक शिक्षु को नहीं।
किसी भी गुरु को मनुष्यों का वैद्य होना चाहिए। उसे अपने शिष्य के स्वभाव को समझना और उसे वही मार्ग बतलाना चाहिए, जो उसके लिए सर्वथा अनुकूल हो।
योगाभ्यास करने की असंख्य प्रणालियां हैं। कुछ प्रणालियों ने कुछ लोगों को सफलता प्रदान की है। किन्तु दो प्रणालियां सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं: (1) सभी ज्ञात अनुभवों का निषेध करके सत्य तक पहुंचाना, (2) यह ध्यान करना कि तुम्हीं सब कुछ, संपूर्ण विश्व हो। दूसरा उपाय, यद्यपि प्रथम की अपेक्षा लक्ष्य तक अधिक शीघ्र पहुंचता है, सर्वाधिक सुरक्षित मार्ग नहीं है। सामान्यत: उसमें बड़े भय रहते हैं, जो मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देते हैं और लक्ष्य-प्राप्ति से उसे रोकते हैं-
हिन्दुओं द्वारा उपदिष्ट और ईसाई पंथ द्वारा उपदिष्ट प्रेम में यह अन्तर है- ईसाई पंथ हमें अपने पड़ोसियों से उसी प्रकार प्रेम करने को कहता है, जैसे कि हम चाहते हैं कि वे हमसे प्रेम करें। हिन्दू धर्म हमें उनसे उसी प्रकार प्रेम करने को कहता है, जैसे कि हम स्वयं अपने से प्रेम करते हैं। वस्तुत: वह हमें उनमें स्वयं अपना ही रूप देखने को कहता है।
नेवला सामान्यत: एक कांच के पिजड़े में लंबी जंजीर में बांधकर रखा जाता है, ताकि वह स्वछंदतापूर्वक विचरण कर सके। जब वह यत्र-तत्र घूमने में उसे कहीं खतरे की गंध मिलती है, तो वह तुरन्त कूदकर अपने कांच के घर में घुस जाता है। यही हाल इस संसार में योगी का होता है।
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