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पिछले दिन की तरह उस दिन भी सारे दिन आकाश में काले बादल बेरोजगार नौजवानों की तरह इधर-उधर निष्प्रयोजन भटकते रहे. पर शाम होते ही दफ्तर से घर लौटने के समय अचानक धरती पर ऐसे टूट पड़े जैसे दिल्ली पुलिस में भर्ती हो रही हो। बेवक्त की जोरदार बारिश झेलकर, बस स्टाप से घर तक एक अंतहीन गड्ढे में बदल गयी सड़क से मोर्चा लेते हुए, पतलून के पांयचे घुटने तक चढ़ाए, हाथों में जूते लटकाए जब मैंने घर में प्रवेश किया तो मेरी दयनीय हालत पर पत्नी का तरस खाना स्वाभाविक था। इतने वर्षों के संग-साथ में मेरा बिगड़ा हुआ मूड सुधारने के सारे नुस्खे उसे मालूम हो चुके हैं। जितनी देर में हाथ-पैर धोकर, रास्ते की कीचड़ से रंगे हुए कपड़े बदलकर आया, 'किचेन' से आ रही गर्मागर्म प्याज और पालक पकौड़ों की खुशबू से हमारा छोटा सा फ्लैट गमक रहा था। पत्नी हाथ में पकौड़ों की प्लेट और गर्मागर्म चाय के दो कप लेकर आयी तो मेरी सारी खीझ काफूर हो गयी। बड़े चाव से एक पकोड़े को मुंह में रखते हुए मैंने कहा, 'आज तो धरती पर स्वर्ग का आनंद उतार दिया तुमने'। 'पर पत्नी की प्रतिक्रिया बिल्कुल अप्रत्याशित थी। तुनक कर बोली, 'लो जी, स्वर्गवास हो आपके दुश्मनों का, मुझे क्यू जीतेजी विधवा बना रहे हो?'
मैं हैरान रह गया। ऐसा कुछ तो कहा नहीं था जैसा आरोप था। प्यार से समझाते हुए बोला, 'ये खामख्वाह की तोहमत है। मैं तो चींटी का भी दिल दुखाना पसंद नहीं करता हूं, भला तुम्हें कुछ अनुचित कहकर क्यूं ठेस पहुंचाऊंगा? पर अगली प्रतिक्रया की तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। वह बिफरकर बोली, 'आपकी बातों में पुरुषोचित घमंड की कितनी बू है। नारी को भारतीय पुरुष कीड़े-मकोड़ों से ऊंचा स्थान देता ही कब है?
धीरे-धीरे हावी होते हुए क्रोध को संभालने की कोशिश करते हुए मैं बोला 'किसने कहा तुमको कीड़ा-मकोड़ा? तुम तो हर बात को हवा में मंडराती चील की तरह लपक लेती हो।' 'उत्तर मिला, 'लो, अब चील-कौवों से तुलना ही बाकी रह गयी थी।'
तभी शायद पकोड़ों की खुशबू हमारे बेटे को वहां खींच लाई। रात भर अपने 'काल सेंटर' के भूमंडलीय वातावरण में बिताकर बिचारा अभी सोकर उठा था, हमारे झगड़े से अनजान था, मुस्कराकर बोला, 'हाय डैड! आ गए आप? 'पत्नी उस पर भी टूट पड़ी, 'ये क्या हाय-हाय लगा रखी है, अभी तो हम जीवित हैं!' 'मैंने कहा, 'हाय तो आजकल सभी कहते हैं। तुम क्या चाहती हो चरणस्पर्श पिताश्री कहे'
इस बार पत्नी ने हम दोनों को झिंझोड़ कर रख दिया। वह जोर से हंसने लगी। मुझे पागलपन के दौरे का शक हुआ। पर उसने स्थिति साफ की, बोली, 'डरो मत, ये मेरे एक 'बिजनेस आइडिया' का 'रिहर्सल' था। मैं घर बैठकर राजनीतिज्ञों के साफ-सुथरे सहज वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की सेवा प्रदान करने की सोच रही हूं। चुनाव आने वाले हैं, ये धंधा खूब चलेगा। मैंने पूछा, 'तुम किसके वक्तव्य तोड़-मरोड़कर पेश करोगी, सत्ता पक्ष के या विरोधी दलों के? 'वह बोली, 'कोऊ नृप होय हमें का हानी! मुझसे जो चाहे सेवा ले। वैसे मेरे विचार से मीडिया वाले भी इसके अच्छे ग्राहक हो सकते हैं। 'मैंने कहा, 'इसमें तो वे स्वयं बहुत कुशल हैं तुम्हारी सेवा क्यूं लेंगे?' 'अरे चुनाव से पहले सारे के सारे नेता बयानबाजी करने लगते हैं।' उसने स्पष्ट किया 'किस-किस की बात वे स्वयं तोड़-मरोड़ पायेंगे? दावतों और विदेश यात्राओं के निमंत्रणों के लिए ही बेचारों को समय की किल्लत रहती है, ऐसे में, बयानों के तोड़ने-मरोड़ने के लिए 'आउट सोसिंर्ग' उनकी मजबूरी होगी।' अब मैंने भी उत्साहित होकर सुझाव दिया, 'हिन्दी, अंग्रेजी तो तुम बढ़िया जानती हो। चीनी भाषा सीखना बेकार है, वहां गणतंत्र नहीं। तुम अगर स्पेनिश और फ्रेंच भी सीख लो तो गूगल ट्रांस्लेशन वाले तुम्हें सकल विश्व के लिए अनुबंधित कर लेंगे। 'पत्नी बोली, मुझे बुद्धू न समझो। मैं उनसे पहले ही पूछ चुकी हूं। पर गूगल वाले कहते हैं, बयान तोड़ने मरोड़ने की मार्केट केवल भारत में है। अन्य देशों में या तो साफ-सुथरी बहस का चलन है या सीधे-सीधे विरोधियों की गर्दन मरोड़ने का।' अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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