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किसी भी राष्ट्र की सीमाएं उस राष्ट्र की एकता, अखण्डता, आत्मगौरव तथा दृढ़ता की परिचायक होती हैं। वे राष्ट्र की गरिमा, भावना तथा संकल्प शक्ति की उद्घोषक होती है। सीमाएं अतीत का गौरव बताती हैं, वर्तमान की चुनौतियां दर्शाती हैं तथा भविष्य को दृष्टि प्रदान करती हैं। भारत के प्रसिद्ध शास्त्रों, विचारकों, चिंतकों तथा लेखकों ने बताया है कि शासक का पहला महत्वपूर्ण कर्त्तव्य अपने राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करना होता है तथा जनता का कर्त्तव्य होता है कि वह सीमा रक्षा करने में उसको पूरा सहयोग दे। साथ ही यह भी कहा गया है कि जब शासक अपने राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षा प्रदान न कर सके, तब प्रजा का कर्त्तव्य है कि वह उसे पागल कुत्ते की तरह मार दे।
प्रत्येक राष्ट्र की प्राय: तीन प्रकार की सीमाएं होती है। इन्हें प्राकृतिक एवं भौगोलिक, सुरक्षात्मक तथा राजनीतिक सीमाएं कह सकते हैं। भारत के सन्दर्भ में इसका वैशिष्ट्य इसकी चौथी प्रकार की सीमा-सांस्कृतिक सीमा भी है, जो न केवल एशिया महाद्वीप बल्कि समूचे विश्व में फैली हुई है।
प्राकृतिक सीमाएं
भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। भारत एशिया का वह देश है जहां सभ्यता का प्रथम प्रकाश फैला। इसकी सीमाएं भी प्रकृति प्रदत्त हैं। इसके उत्तर में हिमालय पर्वत है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है 'मैं पर्वतों में हिमालय हूं।' भारत के उत्तर में हिमालय पर्व है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है 'मैं पर्वतों में हिमालय हूं।' भारत के उत्तर में उत्तर-पश्चिम से लेकर उत्तर-पूर्व तक लगभग दो हजार मील तक हिमालय की पर्वत श्रंृखलाएं फैली हुई हैं। इसमें कराकोरम (कृष्ण गिरि) तथा हिन्दू-कुश जैसे पर्वत भी हैं। यह भारत की उत्तर के सीमा पार से सुरक्षा करती है। इसकी उच्चतम चोटी गौरी शंकर कहलाती है। हिमालय भारत की अनेक नदियों का उद्गम स्थल है जो भारत के मैदानी क्षेत्रों में जाकर खेती के रूप में सोना उगलती हैं। भारत के उत्तर पश्चिम में कुछ मार्ग-दर्रा खैबर, दर्रा बोलन तथा दर्रा कुर्रम आदि हैं। भारतीयों ने हिमालय पर्वत को अपने परिवार के एक मुख्य सदस्य के रूप में माना है।
उत्तर के अलावा भारत के तीन ओर की सीमाएं सागर से सुरक्षित हैं। पश्चिम में सिन्धु सागर (अरब सागर), पूर्व में गंगा सागर (बंगाल की खाड़ी) तथा दक्षिण में विशाल हिन्दू महासागर है। विश्व में केवल एक ही महासागर अर्थात हिन्द महासागर है जो किसी विशिष्ट देश के नाम से जाना जाता है। स्पष्ट रूप ईश्वर ने इस राष्ट्र को एक प्राकृतिक परिवेश प्रदान किया है। इसीलिए आज भी प्रत्येक भारतवासी प्रात: उठते ही 'समुद्रवसने देवी पर्वतस्तन मण्डले' कहकर इसी आराधना करता है।
सुरक्षा सीमाएं
किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा सीमाएं, प्राय: राजनीतिक सीमाओं से विस्तृत होती हैं। इसीलिए देश-विदेश के राष्ट्र परस्पर संधियों तथा कूटनीतिक सम्बंधों द्वारा दृढ़ करने का प्रयास करते हैं। इसके अभाव में राष्ट्र को भारी हानि हो सकती है। उदाहरणत: प्राचीन काल में खैबर दर्रे की ओर ध्यान न दिए जाने से यह अनेक विदेशी आक्रांताओं-यूनानी, इरानी, शक, हूण, कुषाण आदि की घुसपैठ का मार्ग बन गया। यद्यपि यह दर्रा हिमालय के उस पार एक फर्लांग तक चौड़ा होने पर भारत की ओर संकरा है। कहीं-कहीं तो इतना छोटा है कि दो घुड़सवार भी साथ-साथ न चल सकें, परन्तु भारतीयों की उदासीनता से यह भारी नुकसान का कारण भी बना।
इस सन्दर्भ में अंग्रेजों को इस दृष्टि से श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपने साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ उपनिवेश 'भारत' को सुरक्षित रखने के लिए इसके चारों ओर सुरक्षा की दीवार खड़ी की। उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान, उत्तर में तिब्बत तथा उत्तर-पूर्व में श्याम देश (थाइलैण्ड) को 'बफर स्टेट' के रूप में बनाया। अंग्रेजों ने क्रमश: रूस, चीन तथा दक्षिण-पूर्व से आने वाले संकटों के समय बचाव में इसका प्रयोग किया। इतना ही नहीं, उसने 1893 में सर मोर्टिमर डूरेंड के माध्यम से एक समझौता कर 'डूरेन्ड लाइन' भी खींची तथा 1914 में तिब्बत की ओर 'मैकमोहन लाइन' भी बनाई। यद्यपि इसे न अफगानिस्तान ने स्वीकार किया और न ही विस्तारवादी चीन मानने को तैयार है।
अंग्रेजों ने भारत के तीन ओर समुद्री सीमा की सुरक्षा के लिए हिन्द महासागर को अपना केन्द्र बनाया। चारों ओर नौसैनिक अड्डों से नाकेबंदी की। हिन्द महासागर का उपयोग एक 'ब्रिटिश झील' की भांति उपयोग में लिया। अटलांटिक महासागर की ओर से आने वाले जलयानों को दक्षिण अफ्रीका के सुदूर किनारे सिमोन्स टाउन में, प्रशांत महासागर से आने वाले जलयानों को सिंगापुर (सिंहपुर) तथा लाल सागर से आने वाले जलयानों को अदन में रोकने के लिए अपने नौसैनिक अड्डे बनाये। इसके अलावा भारत की ओर आने वाले जलयानों के लिए त्रिकोण माली (त्रिंकोमाली) या सिलोन को तथा पूर्व से आने वाले के लिए आस्ट्रेलिया कोस्ट को केन्द्र बनाया। इसके अलावा अंग्रेजों ने अफगानिस्तान, तिब्बत (1914), नेपाल (1904) तथा भूटान (1907) में अपनी प्रभुसत्ता नहीं रखी, परन्तु इनको अपना प्रभावी क्षेत्र बनाए रखा। तिब्बत में भारत की स्वतंत्रता तय उसका अन्य देशों से सम्पर्क, यहां तक कि डाक व्यवस्था भारत द्वारा ही संचालित होती थी। 47,000 वर्ग किलोमीटर में फैले भूटान में अंग्रेजों द्वारा ही 1907 में सर उग्येन वांग्चुक को वहां का पहला राजा बनाया गया था। इसके अलावा समुद्री क्षेत्र में लक्षद्वीप के अर्न्तगत मालद्वीप (1965 तक) मॉरिशस (1968 तक) पर उसका ही अधिकार था तथा चागौस नामक द्वीप समूहों से वह हिन्द महासागर में आने वाले विदेशी जलयानों की निगरानी करता था। इसके साथ ही श्रीलंका (1931 तक) तथा म्यांमार (ब्रह्मदेश-1937 तक) भारत के पूर्णत: राजनीतिक भाग थे ही।
सिकुड़ती सीमाएं
1947 में भारत की स्वतंत्रता के साथ न केवल सुरक्षा सीमाओं की उपेक्षा हुई बल्कि इसकी राजनीतिक सीमाएं भी तेजी से सिकुड़ती गईं। यह सर्वज्ञात है कि भारत के 96.5 मुसलमानों ने मजहब के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। नियमानुसार उन्हें 22 या 24 प्रतिशत भूमि दी जानी चाहिए, परन्तु उन्हें 30 प्रतिशत भारत भूमि दी गई। उनके अधीन पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत तथा सिंध का भाग दिया गया। इसी के साथ 27 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तान के अचानक कश्मीर पर आक्रमण हुआ। भारत की सेनाओं ने करारा जवाब देना शुरू किया और पाकिस्तानी सेना भागने पर मजबूर हुई। पर आगे बढ़ती भारतीय सेना को अचानक केन्द्रीय नेतृत्व ने युद्ध विराम को मजबूर किया और भारत अपनी मूर्खता से जम्मू-कश्मीर का एक तिहाई भाग अर्थात् 83,694 वर्ग किलोमीटर गंवा दिया। इस क्षेत्र में बाल्टिस्तान, गिलगित चिल्हास तथा हाजीपीर जैसे महत्वपूर्ण तथा सामरिक दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र भी आते हैं।
इसी भांति 1962 में 20 अक्तूबर को चीन के आक्रमण तथा 21 नवम्बर को एकपक्षीय युद्ध विराम से भारत ने लगभग 37,555 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र लद्दाख व अक्षय चिह्न (अक्साई चिन) के रूप में गंवा दिया। बाद में 1963 में पाकिस्तान ने चीन की मित्रता हेतु कब्जाए गए कश्मीर के 1/3 भाग में से 5,180 वर्ग किलोमीटर भारतीय भू-भाग चीन को सौंप दिया। इसमें कराकारोम दर्रे का वह भाग भी आकर मिलता है जो भारत की सुरक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। गिलगित व बाल्टिस्तान का वह भाग भी जो गिलगित को 6 देशों की सीमाओं-अफगानिस्तान, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, चीन, तिब्बत व भारत को जोड़ता है, भी चीन के कब्जे में चला गया। इसी के साथ तिब्बत को चीन का एक भाग मानकर भारत के लिए एक निरन्तर खतरे का मार्ग खोल दिया।
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत ने जहां जीते हुए छम्ब क्षेत्र को छोड़ दिया वहीं 1971 के युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान में सहयोगी की भूमिका अपनाकर तथा बंगलादेश का निर्माण कर भारत के लिए एक स्थायी शत्रु देश की स्थापना की, जिसके द्वारा असम में घुसपैठ से आज भारत और भारतीय परेशान है। इसी भांति पाकिस्तान के निरकुंश तत्कालीन सेनाध्यक्ष परवेज मुर्शरफ के समय पाकिस्तानी सेना नेे भारतीय सीमा में घुसकर कारगिल युद्ध (1999) किया। भारत अपनी रक्षा तो कर सका, परन्तु अनेक सैनिक गंवाकर। सत्य तो यह है कि भारत के साथ लगती सीमा को पाकिस्तान या चीन-दोनों शत्रु अनेक बार मनमाने ढंग से उपयोग कर रहे हैं। केवल चीन ने 2008 से लेकर अब तक लगभग 600 बार घुसपैठ की तथा सीमा का अतिक्रमण किया है। चीन की दादागिरी गत 15 अप्रैल, फिर 17 जून को लेह से 300 किलोमीटर दूर चुमार क्षेत्र में दिखी, जो चीन के लिए सामरिक दृष्टि से आति महत्वपूर्ण है। और जुलाई के दूसरे सप्ताह में भी चीन के टोही विमान भारतीय वायुसीमा में घुस गए थे।
महासागर में बढ़ते खतरे
समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में भी भारत में ब्रिटिश राज्य के हटते ही पहले अमरीका ने अपनी महत्वकांक्षा का शिकार बनाया। अमरीका ने पहले 1948 में बहरीन द्वीपों में अपना नौसैनिक अड्डा बनाया। दिसम्बर, 1966 में इंग्लैण्ड के चागौस द्वीपसमूह में से दिएगो गर्सिया द्वीप को सैनिक गतिविधियों के लिए अगले पचास वर्षों के लिए अमरीका ने ले लिया। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध से भारत पर दबाव बनाने के लिए अमरीका ने प्रशान्त महासागर से सातवां बेड़ा चलाकर बंगाल की खाड़ी के चटगांव में खड़ा कर दिया। ये भी प्रयत्न हुए कि हिन्द महासागर का नाम बदलकर मेडागास्कर या इण्डोनेशिया सागर रख दिया जाये। तब श्रीलंका के प्रयत्न से हिन्दू महासागर को शांति क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। इस दृष्टि से दक्षिण में रामसेतु को तोड़ने को भी व्यापार के साथ सामरिक महत्व की दृष्टि से देखना आवश्यक है। इंग्लैण्ड, अमरीका के पश्चात समुद्री क्षेत्र में चीन की सक्रियता भी तेजी से बढ़ रही है। यहां तक कि मालद्वीप तथा श्रीलंका, मयांमार तथा बंगलादेश में वह अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए बैचेन है। पाकिस्तान तो पूरी तरह उसके साथ है ही।
इस सबके बीच 14 नवम्बर, 1962 के भारतीय संसद में पारित संकल्प तथा 27 फरवरी, 1994 के संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव के रूप में की गई घोषणा- 'जो क्षेत्र चीन द्वारा 1962 व पाकिस्तान द्वारा 1947 में कब्जा कर लिए गए, हम वापस लेकर रहेंगे और इन क्षेत्रों के बारे में कोई सरकार समझौता नहीं कर सकती।' को लगता है भारतीय संसद और उसके सांसद भूल गए हैं। इसीलिए चीन बार-बार भारतीय सीमा में घुस रहा ½èþ*b÷É. सतीश चन्द्र मित्तल
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