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एअर ट्रैफिक कंट्रोल को दुनिया के सबसे तनावपूर्ण कामों में गिना जाता है। आपातकालीन चिकित्सा सेवा, पुलिस और मीडिया की गिनती भी ऐसी नौकरियों में है जहां दबाव में दायित्व निभाने की बड़ी चुनौती रहती है। परंतु दुनिया भर की सिरदर्दी से भरा एक काम ऐसा भी है जिसकी गिनती ऐसी किन्हीं सूचियों में नहीं है। यह है विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी टिकट बांटने की कसरत।
नामों की बाढ़, सिफारिशों के पहाड़ और दागी–दबंगों की तिकड़में लांघते हुए चुनावी समर के अनुकूल नामों की अंतिम छंटाई वह काम है जिसे सही तरीके से निपटाने की कोशिशों का भुगतान अंतत: लांछनों के रूप में होता है। ऐसे में, पटना उच्च न्यायालय के फैसले पर देश की सबसे बड़ी कचहरी की मुहर स्वागतयोग्य है। लोकतंत्र के मंदिर में दागियों का प्रवेश प्रतिबंधित करने से जुड़ा फैसला चुनावी नामों के निर्धारकों के लिए कुछ राहत तो निश्चित तौर पर लाएगा। कतार तोड़ते, बाकियों को धमकाते–धकियाते अनगिनत नाम काठ के हथोड़े की एक चोट ने बाहर कर दिए हैं। वस्तुत: यह सारी छान–फटक जनता के लिए राहत का संदेश है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जो पहल राजनीतिक दलों की ओर होनी चाहिए थी उसके लिए समाज को न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाना पड़ा। शीर्ष अदालत का निर्णय उस वक्त आया है जब संसद की चौखट से कीचड़ की सफाई, जहरीले खरपतवार की छंटाई, जरूरी हो चली थी।
जनसंख्या और प्रतिनिधित्व के हिसाब से देश का सबसे बड़ा प्रदेश किस तरह 'दागी–दीमकों की बांबी' बनता जा रहा है वर्षों पहले से पत्रकार बताते आ रहे हैं। यह बीमारी किस तेजी से पैर पसारती रही इसकी पुष्टि हाल में सामने आई खबरें करती हैं।
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ ऐसे सवाल हैं जो राजनीतिक दलों को खुद से पूछने ही चाहिएं–
क्या साफ–सुथरे नाम और उनका असर खत्म हो चुका है?
क्या पार्टी चंद नामों की बैसाखी पर टिकी है?
क्या व्यवस्था के इस घुन को रोके बिना भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त भारत का सपना साकार हो सकेगा?
मीडिया ने जगाया, समाज जागा और न्यायपालिका ने ठोस पहल की। अब जरूरत है कि राजनीतिक दलों की आत्मा जागे।
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