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सर्वोच्च न्यायालय की अभिनन्दनीय पहल
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने गत 10 जुलाई को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अब किसी आपराधिक मामले में दोषी पाये जाने तथा दो वर्ष से अधिक के कारावास का दण्ड दिये जाने की स्थिति में सांसद-विधायक को सदन की सदस्यता से अयोग्य माना जायेगा। संसद तथा विधायिका के वर्तमान सदस्यों को इस प्रावधान से फिलहाल राहत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जन प्रतिनिधित्व कानून (1951) के अनुच्छेद 8(4) को अनुच्छेद 101 व 102 के प्रतिकूल बताते हुए निरस्त भी कर दिया है। इस निर्णय के साथ ही भविष्य में दागी सांसदों तथा विधायकों के दोषी सिद्ध होने पर भी सदन का सदस्य बने रहने की संभावना समाप्त हो गयी है। इतना ही नहीं, 30 अप्रैल, 2004 को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले को सही बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि जो व्यक्ति पुलिस की हिरासत में हो (भले उसे सजा न मिली हो) को चुनाव लड़ने के आयोग्य माना जाएगा।
गैर-सरकारी संगठन 'जन-चौकीदार' एवं जन प्रहरी द्वारा जेल में बंद व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी याचिका पर मुहर लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक तथा न्यायमूर्ति सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय की पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को संविधान की भावना के विरुद्ध बताते हुए संसद द्वारा ऐसा कानून बनाये जाने पर ही सवाल खड़ा किया है। इस धारा के अनुसार यदि दोषी पाया गया जन-प्रतिनिधि निर्णय आने के तीन माह के भीतर ऊपरी अदालत में अपील कर देता है तो उसे सदस्यता से अयोग्य नहीं ठहराया जा सकेगा। इसी प्रावधान का लाभ लेकर अनेक सजा पाये सांसद एवं विधायक अपने पदों पर बने हुए हैं। यद्यपि न्यायालय ने अपने निर्णय को तत्काल प्रभाव से लागू करने की बात कही है किन्तु वर्तमान जन-प्रतिनिधियों को राहत दे दी है। लेकिन यह निश्चित है कि आने वाले लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा। इसके साथ ही जुड़े दूसरे फैसले के अनुसार यदि जेल में बंद व्यक्ति मतदान के लिये अयोग्य है तो वह चुनाव लड़ने का हकदार भी नही हो सकता। इससे जेल से चुनाव लड़कर संसद अथवा विधानसभाओं तक पहुंचने वाले बाहुबलियों की संख्या में निश्चित तौर पर कमी आयेगी।
'एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) और 'नेशनल इलेक्शन वॉच' द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों के सांसदों एवं विधायकों द्वारा निर्वाचन आयोग के समक्ष प्रस्तुत शपथपत्रों का अध्ययन किया गया था। इसके अनुसार कुल 4,807 जन-प्रतिनिधियों में से 1,460 ने स्वयं पर आपराधिक मुकदमे होने की बात स्वीकार की। इनमें से 688 पर गंभीर प्रकृति के आरोप हैं। लोकसभा के 162 और राज्यसभा के 40 वर्तमान सदस्यों पर जहां आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश की विधानसभा में लगभग आधे विधायक दागी हैं। यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 101 और 102 की स्पष्ट व्याख्या की है और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को खारिज कर संविधान निर्माताओं की इस भावना की रक्षा की है कि सदन में प्रवेश कर अपराधी स्वयं कानून बनाने वाले न बन बैठें। साथ ही उसने संसद के भीतर बैठे नीति-निर्माताओं और संसद के बाहर के सामान्य नागरिकों के बीच समानता स्थापित करने का ऐतिहासिक प्रयास किया है।
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जो लोग इस फैसले से प्रभावित होंगे, वे अवश्य इसका विरोध करेंगे तथा इसके लिये वे पूर्व की भांति 'संसद के विशेषाधिकार' की दुहाई देंगे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले ने संसद को भी यह संकेत अवश्य दिया है कि विशेषाधिकार की आड़ में ऐसे कानून नहीं बनाये जा सकते जो संसद की गरिमा को ही चोट पहुंचाते हों। लोकसभा में 30 प्रतिशत आपराधिक छवि वाले सांसदों की उपस्थिति निश्चित रूप से संसद की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह है। यह निर्णय निश्चय ही इस दाग से संसद को मुक्त कराएगा। जहां तक जनता का प्रश्न है, देश का एक बड़ा वर्ग इस निर्णय से प्रसन्न है। विभिन्न समाचार माध्यमों और 'सोशल मीडिया' पर इसका असर देखा जा सकता है। चुनाव सुधार प्रक्रिया को भी आगे बढ़ाने में यह निर्णय मील का पत्थर सिद्ध होगा। चुनाव आयोग द्वारा राजनैतिक शुचिता के लिये की जा रही पहल को भी यह निर्णय ठोस कानूनी आधार प्रदान करेगा।
संवैधानिक पहलुओं के साथ ही इस निर्णय के राजनैतिक निहितार्थ भी सामने आ सकते हैं। खास तौर पर संप्रग-2 के दौरान जिस प्रकार पुलिस और सीबीआई के दुरुपयोग की घटनाएं सामने आईं हैं, उससे इस नये प्रावधान को लेकर भी संदेह के बादल उठ सकते हैं। देश का प्राय: प्रत्येक राजनैतिक दल इस प्रकार की घटनाओं को लेकर सत्तारूढ कांग्रेस की नीयत पर उंगली उठा चुका है। यह देखना रोचक होगा कि आने वाले महीनों में चुनावी सरगर्मी के बीच उच्चतम न्यायालय का यह ऐतिहासिक फैसला राजनीति को शुचिता की ओर ले जाता है अथवा केन्द्र की सत्ता में बैठे लोगों को 'राजनीतिक ब्लैकमेलिंग' का एक और हथियार थमा देता है। आशुतोष
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