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यह ढूंढते तो मिलता बहुत कुछ, पर…

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Jul 13, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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तड़पते लोग और पोस्टरों में मुस्कराते राहुल

दिंनाक: 13 Jul 2013 14:00:40

सड़े अनाज के पैकेटों में से निकले राहुल के पोस्टरों ने पेट की आग के साथ-साथ उत्तराखण्ड के लोगों का तन-बदन भी सुलगा दिया। आपदा की आफत झेल रहे पहाड़ के लोग मुख्यमंत्री बहुगुणा और मैडम सोनिया के मुस्कराते पोस्टरों के साथ 'तेजी से पहुंचाई राहत' के झूठे दावों की चुभन भीतर तक महसूस कर रहे हैं। हद दर्जे की संवेदनहीनता और उस पर बेशर्म मुस्कराहट। उत्तरकाशी के भटवारी प्रखंड के गांव पिलंग की रहने वाली कुसुमा देवी गर्भ से हैं, आठवां महीना चल रहा है, उस गांव के सभी लोग हैरान-परेशान एक-दूसरे का मुंह ताक रहे हैं। किलोमीटरों तक टूटी सड़कें, उबड़-खाबड़ और फिसलन भरे कच्चे रास्ते, अस्पताल का पता-ठिकाना नहीं और घर में राशन का टोटा। अकेले कुसुमा का दर्द नहीं है यह। मां बनने के दौर से गुजर रहीं दूर-दराज में बैठी हजारों महिलाएं सशंकित हैं कि उनके घर किलकारी गूंजेंगी या फिर सिसकियां।

उत्तरकाशी से गंगोत्री तक जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों तरफ बसे इस भटवारी प्रखंड की ब्लॉक प्रमुख हैं विनीता रावत। वे और उनके पति जगमोहन रावत अपने गांववासियों का दु:ख-दर्द लेकर उत्तरकाशी के चक्कर काट रहे हैं। जगमोहन बताते हैं कि यह देश की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण राजमार्ग है, पर अब तक, इतने दिन बीत जाने के बाद भी सड़क को सुधारने का कहीं कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा। उत्तरकाशी से गंगोत्री तक करीब 12 स्थान ऐसे हैं जहां 100 मीटर से अधिक तक सड़क का नामोनिशान नहीं है। पहले तो हम देश भर के अतिथियों की चिंता और दर्द को समझकर चुप बैठे रहे, पर अब जब 25 दिन बाद भी कहीं कोई राहत नहीं मिली तब भटवारी में गुस्साए लोगों ने जिला विकास अधिकारी, जिला पर्यटन अधिकारी, खंड विकास अधिकारी और खाद्यान्न आपूर्ति अधिकारी को दो दिन तक बंधक बनाकर रखा। तब कहीं जाकर जिलाधिकारी ने सुध ली। हमारे क्षेत्र के पिलंग, ज्योड़ा, डिडसारी, क्यांरख, बारसू, पाला, हुर्री, कुज्जन, तिहार और भगेली जैसे कई गांव हैं जहां पहुंच पाना आसान नहीं है। न वहां राशन है, न पकाने के लिए केरोसीन। वहां जो कुछ भी राहत सामग्री पहुंची है वह सिर्फ और सिर्फ स्वयंसेवी संगठनों ने ही पहुंचाई है। यह हाल है चीन सीमा पर स्थित हमारे आखिरी मण्डल का। प्राकृतिक आपदा में यह हाल, अगर दुश्मन देश ने हमला कर दिया तो क्या होगा?

दस साल तक केदारघाटी से जनप्रतिनिधि रहीं आशा नौटियाल पहचान ही नहीं पा रही हैं कि यह कभी लहलहाता, सुंदर और सम्पन्न क्षेत्र हुआ करता था। भाजपा की पूर्व विधायक आशा नौटियाल 18 जून से लेकर 7 जुलाई तक गुप्तकाशी में रहीं और अपने गांववासियों के दु:ख-दर्द में सांत्वना देने का प्रयास करती रहीं। उन्होंने लौटकर प्रदेश के राज्यपाल को पूरी स्थिति का ब्यौरा भी दिया पाञ्चजन्य से बातचीत में उन्होंने बताया कि, 'वहां सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है। 25 दिन बाद भी कालीमठ घाटी के ब्यूम्की, कोटमा, कालीमठ, जाल तल्ला, जाल मल्ला, चौमासी, चिलौंड़ आदि कुछ गांवों तक पहुंचने के लिए रस्सों के सहारे नदी पार कर घंटों तक न सिर्फ पैदल चलना पड़ता है बल्कि कुछ जगहों तक पहुंचने के लिए तो जानवर की तरह चलना पड़ रहा है, यानी हाथों और पैरों के सहारे। इन गांवों तक कोई राहत नहीं पहुंच रही। सरकार का दावा झूठा है कि लोगों को 'फ्री' में अनाज दिया जा रहा है। किसी भी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर लोगों को 'फ्री' में राशन देने का कोई आदेश तक नहीं पहुंचा है। जो कुछ भी राशन और राहत पहुंची है वह सिर्फ और सिर्फ स्वयंसेवी, गैरसरकारी संगठनों द्वारा। सरकार के पास अब तक नुकसान की वास्तविक तस्वीर नहीं पहुंची है। अगस्तमुनि से आगे कहीं भी बिजली की आपूर्ति दोबारा शुरू नहीं हो पाई है। सब तरफ अभाव है, अकाल है और राहत का कहीं अता-पता नहीं है।'

टूटी सड़कें, कच्चे–फिसलन भरे रास्ते, ऊपर से बरसात– आफत में जी रहे हैं उत्तराखण्ड के हजारों लोग

नदियों पर रस्सों के पुल, पतले और संकरे रास्ते, कस्बे से राशन लेकर लौट रही 17 वर्षीय किशोरी संगम चट्टी में पुल से गिरकर मरी।

न बिजली, न पानी, न राशन, न मिट्टी की तेल, न डीजल और न सम्पर्क के माध्यम

गुस्साए लोग अब बना रहे हैं सरकारी कर्मचारियों को बंधक

मुख्यमंत्री भी मस्त हैं राजनीति में और मुस्कराते पोस्टर छपवाने में

एक बात सब तरफ से उभर कर अब साफ हो रही है कि उपग्रह ने कुछ चित्र खींचे थे। बताया था कि उस क्षेत्र में घने बादल जुट रहे हैं। भारी बारिश और बादल फटने की संभावना है। मौसम विभाग ने भी चेतावनी जारी की थी। पर आपदा से निपटने के लिए न तो सरकार ने कोई तैयारी की थी, और आफत आ जाने के बाद उससे निपटने की इच्छाशक्ति भी उसमें नहीं दिखी। यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं पर रोक लगाना किसी के बस की बात नहीं। पर उसकी पूर्व सूचना की तकनीकी तो है, वह क्यों नहीं आजमाई गई? आपदा से निपटना ही राजनीतिक कौशल माना जाता है और इसमें पूरी तरह से असफल रही है उत्तराखण्ड की कांग्रेस सरकार और सबसे ज्यादा नाकाबिल सिद्ध हुए हैं वहां के मुख्यमंत्री विजय बहुगणा, जिनके बारे में सब साफ-साफ जानते हैं कि उन्हें 10 जनपथ का वरदहस्त प्राप्त है और वे बार-बार 'राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाओ' की मुहिम को हवा देते हैं। यही वजह है कि वो अपनी नाकामी छुपाने, अपने राज्य की जनता को भूखा-प्यासा और खुले में पड़े रहने की अनदेखी कर, अपनी कुर्सी बचाने के राजनीतिक हथकंडे आजमाने में जुटे हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत को उलाहना दे रहे हैं कि वे बाढ़ राहत मंत्री हैं इसलिए अपने राज्य को अधिक से अधिक सहायता दिलाएं। पर बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा हो रहा है कि अब तक देश भर से मुख्यमंत्री राहत कोष से जितनी राहत पहुंची है और प्रधानमंत्री ने एक हजार करोड़ से अधिक की जो राहत भेजी है, वह कहां खर्च हो रही है? सड़कें बन नहीं रहीं, अभी बनेंगी भी नहीं मलबा हटाएंगे नहीं, लोगों तक अनाज पहुंच नहीं रहा, मृतकों के आश्रित देहरादून तक आकर 5 लाख रु. का मुआवजा लेने की स्थिति में नहीं तो फिर 'और पैसा भेजो, और पैसा भेजो' का आह्वान किसलिए? दबी जुबान से लोग कहने लगे हैं कि यह आफत बहुगुणा के लिए वरदान बनकर आयी है और मुख्यमंत्री बनने के लिए जो चढ़ावा उन्होंने 'हाईकमान' को दिया था, वह पूरा का पूरा वसूलने की उनकी पूरी तैयारी है।

सरकारी हिला-हवाली और प्रपंच में फंसकर रह गये थे निकोलाई सिंह। स्पेन में 'फ्लाइंग क्लब' के सदस्य रहे निकोलाई मेघालय से दौड़े चले आए एक जीप के पीछे एक अजूबा-सा, छोटा खुला हैलीकाप्टर जैसा उपकरण लेकर। दो सीट वाले यह खोजी यंत्र भारत में केवल दो ही हैं। इसका ढांचा खुद निकोलाई और उनके सहयोगी ईसाक मोहम्मद ने तैयार किया, इंजन फ्रांस से लाये और कुछ सामान यूरोप से और कर दिया एक अद्भुत उपकरण तैयार। ये इतना छोटा है कि इसको छोटी-छोटी घाटियों से गुजारने में कोई परेशानी नहीं होती और यह बहुत नीचे तक जाकर वस्तुस्थिति का जायजा ले सकता है। मात्र 100 फीट के रनवे से उड़ान भरने वाला यह छोटा-सा उड़न खटोला 2 लोगों को लेकर 10 फीट से 1800 फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकता है। इसीलिए मेघालय के मुख्यमंत्री की चिट्ठी लेकर निकोलाई और उनके साथी अपने इस उड़नखटोले के साथ सहस्रधारा (देहरादून) के हैलीपैड पर पहुंच गए। वहां के उड़ान अधिकारियों से वे कह रहे थे कि मुख्यमंत्री कार्यालय से बात कर लीजिए। हमारा उपकरण हमें एक बार में डेढ़ सौ से दो सौ किलोमीटर तक ले जाता है। हम जमीन से बस दस-पन्द्रह फीट ऊंची उड़ान भरकर पता लगा देंगे कि कहां-कहां कितने-कितने लोग फंसे हैं, उन तक राहत भी पहुंचा देंगे। हमारे पास जीपीआरएस सिस्टम भी है। पर वहां बैठे अधिकारी कभी मुख्यमंत्री कार्यालय से पूछें तो ओएसडी कहे कि चीफ सेक्रेटरी से पूछो। और 'चीफ सेक्रेटरी' के यहां से खबर आई कि जो हैलीकाप्टर उड़ा रहे हैं उन अधिकारियों से पूछो। निकोलाई सफाई देते घूम रहे थे कि आप जितना ऊंचा उड़ते हैं हमें उससे बहुत नीचे उड़ना है। कहीं कोई अड़चन आने की संभावना नहीं। चलती रही यह कवायद तीन दिन तक। बड़ी जद्दोजहद के बाद वे एक छोटी सी उड़ान भरकर वापस लौट आए हैं- मायूस। समय रहते जिस काम के लिए उनकी उपयोगिता हो सकती थी, सरकार वह भी करा नहीं पायी।

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