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श्रावण पूर्णिमा को हम गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं। सफलता की चाह रखने वाले प्रत्येक व्यक्तित्व को एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती ही है। प्रत्येक काल में प्रत्येक सफल और महत्वपूर्ण व्यक्ति को किसी न किसी महान विभूति ने मार्ग दिखाया या उस महान व्यक्तित्व के विचारों ने प्रेरणा दी। व्यक्ति या संस्था परिवर्तनशील हो सकते हैं, दोषपूर्ण हो सकते हैं, इसीलिए रा.स्व.संघ ने त्याग और तेज के प्रतीक भगवा ध्वज को अपना गुरु माना और गुरु पूर्णिमा के दिन देशभर के स्वयंसेवक भगवा ध्वज के सम्मुख एकजुट होकर अपना समर्पण भाव प्रकट करते हैं। देश और समाज के भीतर अनेक मत, पंथ, सम्प्रदाय और विचारधाराओं के अपने–अपने भी श्रद्धा पुरुष हैं, गुरु हैं। पर एक ऐतिहासिक कृति ऐसी है जो सबके लिए समान रूप से पूज्य है, मार्गदर्शक है, गुरु के समान है, वह है श्रीमद्भागवद् गीता। आखिर अर्जुन के सखा–संबंधी श्रीकृष्ण ने उन्हें कुरुक्षेत्र के मैदान में जो ज्ञान दिया, वह एक गुरु के रूप में ही दिया। इस एक कृति की न जाने कितनी व्याख्याएं की गई, टीका लिखे गए और अनुवाद भी हुए। यही एकमात्र ऐसा महाकाव्य है जिसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म का ऐसा सुंदर सुमेल प्रस्तुत किया गया है कि आजादी के दीवाने इसे पढ़कर हंसते–हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए तो आज बड़े–बड़े औद्योगिक समूहों के प्रमुख भी कहते हैं कि गीता में मैनेजमेंट के भी सूत्र हैं। भारत ही नहीं, विश्व के भी विद्वान गीता–अध्ययन के बिना अपना ज्ञान अधूरा ही पाते हैं। इसीलिए इस महाकाव्य पर और उसके दर्शन पर निरन्तर कोई न कोई विद्वान–विशेषज्ञ एक नया प्रयोग सामने लाता है। इस बार यहां प्रस्तुत है श्रीमद्भागवद्गीता पर आधारित दो कृतियों का अवलोकन–
धर्म, संस्कृति और समाज सेवा में संलग्न रहने वाले और श्री चैतन्य प्रकाशानंद तीर्थ जी महाराज के शिष्य त्रिलोकचंद्र सेठ ने हाल ही में गीता का गहन अध्ययन करने के बाद अपने शब्दों में इसकी विराट व्याख्या की है। 'श्रीमद्भागवद्गीता रहस्य' शीर्षक नामक इस पुस्तक में मूल गीता के सभी अठारह अध्यायों के समस्त श्लोकों की संक्षिप्त-सरल और स्पष्ट व्याख्या की है। साथ ही लेखक ने अपनी अनुभूति और अर्जित दृष्टि को भी इसमें संकलित किया है। पुस्तक के अंतिम खंड में लेखक ने श्रीमद्भगवद्गीता के महात्म्य को व्यक्त करने वाले पौराणिक श्लाकों और उनकी व्याख्या को संकलित किया है। साथ ही 'श्री प्रभु कृपा का एक विवेचन' अध्याय में उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि प्रभु की कृपा क्यों होती है? कौन उसे पा सकता है? कैसे उसे प्राप्त किया जा सकता है? और कैसे उनकी कृपा निरन्तर बनी रह सकती है?
इस पुस्तक की विशेषता यह है कि लेखक ने इसमें गीता के सभी अध्यायों के श्लोकों की शाब्दिक व्याख्या तो की ही है, साथ ही श्लोक में निहित भावार्थ को भी सरल ढंग से स्पष्ट किया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से ऐसे गूढ़ रहस्य को मनुष्यों के लिए सुलभ कराया है जो न उसके पहले और न ही उसके बाद कभी अवतरित हुआ। ऐसे में उस दिव्य ज्ञान की गूढ़ता को उसी अर्थ में समझना एक साधारण मनुष्य के लिए बहुत कठिन हो सकता है। ऐसे में उसमें निहित अर्थ और भाव को सरल ढंग से अभिव्यक्त करके लेखक त्रिलोक चंद्र सेठ ने वास्तव में लोकोपकारी और दु:साध्य कार्य किया है।
हालांकि लेखक ने गीता के श्लोकों को प्राय: यथारूप में ही व्याख्यायित किया है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उसकी यथोचित व्याख्या भी की है। उदाहरण के लिए, द्वितीय अध्याय सांख्ययोग में चौदहवें श्लोक में शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता की स्पष्ट करने के लिए श्लोक का अर्थ बताने से पहले लेखक लिखते हैं, 'शरीर की अनिवार्यता का प्रतिपादन कर एवं आत्मा की परम निरूता का प्रतिपादन कर प्रभु ने शरीर के छूटने पर भी अपने नित्य स्वरूप में स्थित रहने की प्रेरणा दी। इसी आधारशिला पर कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश ठहरता है, अन्यथा नहीं।' इसी अध्याय के सर्वाधिक प्रसिद्ध श्लोक 'कर्मण्येवाधिकारस्ते…' की विस्तृत व्याख्या करते हुए लेखक स्पष्ट करते हैं कि कर्तव्य में करने की बाध्यता रहती है। बाध्यता को स्वतंत्रता के रूप में परिवर्तित करना निष्काम कर्मयोग है। कहने का अर्थ है कि कर्तव्य की भावना से कर्म करो। कर्म फल प्राप्ति के हेतु कदापि न करो। कर्मयोगी होने के करण कर्तव्य कर्म से विरक्त भी न हो, यही निष्काम कर्मयोग है। इसी तरह सोलहवें अध्याय 'श्रीदेवासुर संपत विभाग योग' के पहले तीन श्लोकों में बताए गए दैवीय गुणों की लेखक ने विस्तार से अलग-अलग व्याख्या की है। अभय, दान, तेज, शांति, अक्रोध, ज्ञान और क्षमा जैसे कुल छब्बीस गुणों की सरल व्याख्या करते हुए इन्हें अपनाने की प्रेरणा दी गई है। इसी तरह अगले श्लोक के माध्यम से दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुव्य और अज्ञान जैसे 6 आसुरी गुणों की व्याख्या करते हुए इनसे दूर रहने की बात कही गई है।
कहना होगा कि गीता के अद्भुत और विलक्षण ज्ञान सागर को और भी सरलता से प्रकट करने के लिए लेखक ने सफल प्रयास किया है। उन्होंने इन श्लोकों की व्याख्या यथासंभव सरल शब्दों में की है। कहा गया है कि किसी भी बात को सरलतम ढंग से कहना सबसे कठिन होता है, लेकिन लेखक इस कठिन कार्य में पूरी तरह सफल हुए हैं। विभूश्री
पुस्तक का नाम : श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य
लेखक : त्रिलोकचन्द्र सेठ
प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन 2, बीडी चैम्बर्स, 10/54, देशबन्धु गुप्ता रोड, करोल बाग, नई दिल्ली-110005
मूल्य : 220 रु. पृष्ठ : 265
सम्पर्क : (0)9213527666
ऐसा सरल गीता–काव्य पहले कभी न देखा
गजब के हैं जगदीश प्रसाद शर्मा उपाख्य सरल। सिर्फ नाम के ही सरल नहीं, काम और व्यवहार में भी सरल। और तो और- उन्होंने गीता का गूढ ज्ञान इतने सरल शब्दों में प्रस्तुत कर दिया है कि आप भी पढ़कर आश्चर्यचकित रह जायेंगे। एक बात और गजब की है, 75 से अधिक अप्रकाशित कृतियों के बाद यह उनकी पहली प्रकाशित कृति है। तो पहले की 75 क्या हुईं? करीब-करीब 8 महाकाव्य, 33 काव्य, 16 गद्य खंड, 2 उपन्यास, 1 बाल उपन्यास आखिर कहाँ हैं? धनाभाव कहिये या प्रकाशकों के पास जाने का संकोच, बस लिख लीं और उनकी पांडुलिपियाँ सुरक्षित धर लीं। मूलत: अध्यापक और फिर पत्रकार, 27 साल तक दैनिक हिन्दुस्तान में कार्यरत रहे जगदीश जी से सेवानिवृत्ति के बाद कुछ मित्रों ने बहुत आग्रह किया तो गीता पर लिखी छोटी-सी पुस्तिका सबके सामने आ पायीं। पर क्या गजब की पुस्तिका है। हजारों पृष्ठों के ज्ञान को कुछ छंदों से समझाने का अद्भुत प्रयास है यह। गीता ही क्यों, लेखक बताते हैं-
यह द्वेष भरे मानव मन में
समता की ज्योति जलाती है।
संसार मरुस्थल में जन–मन
शुचि प्रेम–सुधा सरसाती है।।
गीता का प्रसंग, महारथियों का परिचय, अर्जुन का मोह, अर्जुन को उपदेश, ज्ञानयोग, कर्मयोग, कर्मभेद, मन की चंचलता, भक्तियोग, विभूति वर्णन, भक्त लक्षण, विश्व रूप दर्शन, विराट रूप दर्शन, अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा और गीत सार जैसे छोटे-छोटे शीर्षकों से कुछ-कुछ छंदों में जैसे रचनाकार ने गीता का पूरा नवनीत सामने रख दिया। जैसे- अपनों को सम्मुख देख अर्जुन भगवान् से कहते हैं-
हे जीवन–नौका के नाविक
मैं रण में यह क्या देख रहा।
जिनसे करना है युद्ध मुझे
अरि–दल अपनों को देख रहा।।
और इस पर श्रीकृष्ण जीवन का तत्त्व बताते हुए कहते हैं-
हे पार्थ, विश्व–मंगल के मैं
ये तीन मार्ग बतलाता हूं।
सुन ज्ञान, कर्म अरु भक्ति सुपथ
तीनों ही पथ समझाता हूं।।
और अपनों से युद्ध के सुख-दु:ख की सहज बात बताते हुए लिखते हैं-
सर्दी–गर्मी की भांति पार्थ
सुख–दुख भी आते–जाते हैं।
इनको सम रहकर सहन करो
इनसे न विज्ञ घबराते हैं।।
और कर्मयोग के एक श्लोक का महत्व देखिये-
कर्मानुसार ही सब प्राणी
पाते हैं जन्म–मरण तन–मन।
बल जाति योनि गति प्रकृति ज्ञान
मति रूप रंग सुख–दुख अरु धन।।
बहुत सरल, बहुत-बहुत ही सरल भाषा में गीता का ज्ञान क्रम दर क्रम बताते हुए लेखक अंत में कहते हैं-
जो शुद्ध चित्त होकर पावन
गीता का पाठ किया करता।
भव–सागर को कर पार व्यक्ति
सुख–सागर मग्न रहा करता।।
पूरी पुस्तिका पढ़कर यह भी नहीं कहा जा सकता कि ये श्लोक विषयवस्तु से भिन्न हैं। पुस्तक की प्रस्तावना लिखते हुए भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य डाक्टर भगवान दास पटेरिया लिखते हैं-
'सरल गीता' में सरल ने कुल 5 अध्यायों में 274 छन्दों में इस प्रकार संजोया है कि गीता का सार नामश: ज्ञान योग, कर्म योग एवं भक्ति योग सरलता से समझ में आता है। अनुवाद इतना सटीक है कि कहीं भी विषयान्तर नहीं हुआ है। गूढ़ विषयों का काव्य अनुवाद इस प्रकार किया है कि सभी छन्द गेय हैं। सभी छन्द काव्य के पुनरावृत्ति दोष से भी मुक्त हैं। शब्दों का चयन इतना सटीक है कि श्लोकों में दिए गए शब्दों के भाव के अति निकट हैं। उदाहरणार्थ कुछ श्लोक गीता के तथा उनका काव्य अनुवाद इस प्रकार से है-
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
-गीता (अध्याय 6, श्लोक 34)
भगवन यह मन बलवान बड़ा
अत्यन्त हठीला चंचल है।
प्रभु, पवन रोकने सम इसको
वश में करना अति दुष्कर है।।
-सरल गीता (अध्याय 3, छन्द 60)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
-गीता (अध्याय 18 श्लोक 66)
अर्जुन सब धर्मों को तज कर,
तू आ जा मेरी शरण अरे।
कर दूंगा तुझको पाप मुक्त,
तू शोक न कर क्यों व्यर्थ डरे।।
-सरल गीता (अध्याय 5 छन्द 4)
यह तो सरल जी की पहली ही कृति है । उनकी कुछ और कृतियाँ सामने आ पाएं तो पाठकों को बहुत कुछ नया मिलेगा और बहुत ही सरल शब्दों में, ऐसा कि जिसे गाया जा सके, मंच पर नाट्य रूप में प्रस्तुत किया जा सके। जितेन्द्र तिवारी
पुस्तक का नाम : सरल गीता (संक्षिप्त पद्यानुवाद)
अनुवादक : जगदीश प्रसाद शर्मा 'सरल'
प्रकाशक : श्रीरामचरितमानस सत्संग समिति (पंजीकृत)
ए-447, सेक्टर-47, नोएडा (उ.प्र.)
मूल्य : 70 रु. पृष्ठ : 65
सम्पर्क : (0)9311384212
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