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7 जुलाई को लगभग सभी खबरिया चैनलों ने प्रसारित किया कि सोनिया कांग्रेस के महामंत्री और मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने मैडम सोनिया से 40 मिनट लम्बी भेंट की और तेलंगाना के बारे में उन्हें अपनी रपट पेश की। 12 महासचिवों और 44 सचिवों की नवगठित विशाल टीम में दिग्विजय सिंह को आंध्र प्रदेश का प्रभार दिया गया है, अत: तेलंगाना आंदोलन की विस्फोटक पृष्ठभूमि में यह समाचार काफी महत्वपूर्ण था। पर अगले दिन एक भी दैनिक पत्र में यह महत्वपूर्ण समाचार नहीं दिखायी पड़ा। एक दिन पहले (6 जुलाई को) दिग्विजय सिंह ने गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से भेंट करके इशरत जहां मुठभेड़ के बारे में सरकार की विभिन्न गुप्तचर एवं जांच एजेंसियों के बीच मतभेद पर चिंता प्रगट की थी। अगले दिन यह समाचार सब जगह छपा। पर, सोनिया से उनकी भेंट का समाचार कहीं क्यों नहीं छपा? क्या उसे जानबूझकर दबाया गया? अपने को सर्वशक्तिमान समझने वाले मीडिया का मुंह आखिर कौन बंद कर सकता है? क्या दिग्विजय सिंह में इतनी ताकत है? आज (9 जुलाई के) दो अंग्रेजी दैनिकों (टाइम्स आफ इंडिया और इकोनॉमिक टाइम्स) में तेलंगाना पर 10, जनपथ की नई रणनीति का समाचार पढ़कर मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। इन समाचारों में सोनिया कांग्रेस की तथाकथित कोर कमेटी के द्वारा तेलंगाना पर शीघ्र ही निर्णय लेने की संभावना जतायी गयी है, किन्तु इन दोनों समाचारों में भी सोनिया से दिग्विजय की भेंट और तेलंगाना पर उनकी रपट की कोई चर्चा नहीं है। रोचक तथ्य यह है कि अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दू' में आज ही (9 जुलाई को) 'तेलंगाना पर दिग्विजय ने सुझाव दिये' शीर्षक से समाचार छापा है। इसका अर्थ है कि पहले दो पन्नों में जो समाचार छपा, वह 10, जनपथ से प्रसारित हुआ और उसमें दिग्विजय का नामोल्लेख नहीं हुआ। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि तेलंगाना में विस्फोटक स्थिति के दबाव में सोनिया को जो निर्णय लेना पड़ रहा है, उसका पूरा जिम्मा सोनिया पर न डालकर किसी कागजी कोर कमेटी पर डाला जा रहा है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस पार्टी इस प्रश्न पर बुरी तरह विभाजित है और गैरतेलंगाना क्षेत्रों के कांग्रेसी लोग विभाजन के विरुद्ध हैं। यही कारण है कि कुछ समय पूर्व समाचार छपा कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी को दिल्ली आने के बाद भी सोनिया ने मिलने का समय नहीं दिया।
सबका एक ही राग
सोनिया किससे मिलती हैं, किससे नहीं मिलती हैं, इससे उनके रुझान को जाना जा सकता है। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी विरोधी खेमे का पूरा कांग्रेसी नेतृत्व नक्सलियों के द्वारा मार दिया गया, जिसके कारण अजीत जोगी संदेह के घेरे में आ गये और सोनिया को उनसे दूरी दिखलाना जरूरी हो गया। समाचार छपे कि अजीत जोगी को सोनिया ने भेंट का समय नहीं दिया। इस बीच जोगी ने बस्तर में एक पंचायत (केशकाल) के अध्यक्ष पद के चुनाव में शाहिना मेमन नामक एक महिला को निर्दलीय खड़ा करके कांग्रेसी उम्मीदवार की जमानत जब्त करा दी। उसके कुछ ही दिन बाद समाचार आया कि अजीत जोगी को सोनिया से भेंट करके अपनी पीड़ा उड़ेलने का अवसर मिल गया। इस मुलाकात के बाद जोगी ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि छत्तीसगढ़ का भावी कांग्रेसी मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे या तो भगवान जानता है या सोनिया जी जानती हैं। अर्थात चाटुकारों के कटोरे में सोनिया की स्थिति भगवान के बराबर है। इस व्यक्ति पूजा का ही उदाहरण है कि नक्सलियों द्वारा कांग्रेसी नेतृत्व के नरमेध के बाद केन्द्रीय मंत्री रामचरण महंत को छत्तीसगढ़ का कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया गया तो उनका पहला उद्गार था कि यदि सोनिया जी मुझे झाडू लगाने को कहें तो मैं झाडू भी लगाऊंगा।' पंजाब में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की जगह प्रताप सिंह बाजवा को पार्टी अध्यक्ष बनाने पर उन्होंने भी सोनिया राग ही अलापा।
अभी 10, जनपथ में मीडिया सेल के प्रमुख जनार्दन द्विवेदी ने 12 महासचिवों और 44 सचिवों की एक नयी कार्यकारिणी की घोषणा की और उसे 'टीम राहुल' नाम दिया गया। पर राहुल ने इस टीम की पहली बैठक में देखा कि 12 महासचिवों में केवल एक महिला है और 44 सचिवों में केवल पांच, तो उन्होंने मीडिया को सुनाने के लिए कहा कि सिद्धांतत: इस टीम में आधी संख्या महिलाओं की होनी चाहिए थी। सब चौंक गये कि क्या 'टीम राहुल' का गठन करते समय राहुल को यह पता नहीं था या इस टीम का गठन उनकी जानकारी के बिना हुआ है। जनार्दन द्विवेदी ने इन शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर दे दिया कि 'संगठन में बदलाव स्वागतयोग्य है। इसमें कांग्रेस अध्यक्षा ने अनुभवी लोगों के साथ-साथ युवाओं को अवसर दिया है।' स्पष्ट है कि नयी टीम को अंतिम रूप सोनिया ने दिया और उसका श्रेय राहुल को दिया गया।
मोर्चे पर मोदी, परदे में राहुल
शायद कम लोगों को ही मालूम है कि राहुल सोनिया कांग्रेस के उपाध्यक्ष तो हैं, पर उसकी कोर कमेटी के सदस्य नहीं हैं। इस कोर कमेटी में अहमद पटेल, ए.के.एंटोनी, चिदम्बरम और मनमोहन सिंह जैसों के नाम बताये जाते हैं। दिग्विजय के तेलंगाना वाले समाचार में कहा गया है कि दिग्विजय ने इस विषय पर विचार के समय कोर कमेटी की बैठक में राहुल को बुलाये जाने का सुझाव दिया है। अलग से भी एक समाचार छपा है कि शायद राहुल को कोर कमेटी में लिया जाने वाला है। यह सबको पता है कि सोनिया की पूरी राजनीति और रणनीति राहुल का राज्याभिषेक करने की दिशा में चल रही है। पर राहुल ने अभी तक न तो प्रशासन के स्तर पर, न संगठनात्मक स्तर पर और न ही चुनाव के मैदान में कोई योग्यता प्रगट की है। प्रत्येक राज्य में पार्टी गुटबाजी की शिकार है, यहां इस गुटबाजी का पूरा चित्रण करना संभव नहीं है। समय-समय पर समाचार छपते हैं कि राहुल ने मध्य प्रदेश के पार्टी जनों को गुटबाजी के लिए डांटा, राहुल के कारण सब इकट्ठा आये पर उनके जाते ही गुत्थम-गुत्था हो गये। ऐसा ही समाचार महाराष्ट्र के बारे में आया। राजस्थान में गहलौत और सी.पी.जोशी के बीच युद्ध को टालने के लिए उन्हें एक-दूसरे से दूर रखा जाता है। ऐसे में सोनिया की रणनीति का एकमात्र लक्ष्य है कि किसी प्रकार जोड़-तोड़ के द्वारा केन्द्र में बहुमत जुटाकर राहुल के राज्याभिषेक की स्थिति पैदा कर दी जाए। इसके लिए वे उनको ऐसे अवसरों से दूर रखती हैं जहां उनकी अक्षमता व अयोग्यता बेनकाब हो। इसीलिए 10, जनपथ की रणनीति का एक सूत्र यह है कि भावी चुनाव नरेन्द्र मोदी और राहुल के बीच सीधे टकराव का रंग न लेने पाये, और इसलिए वे एक ओर नरेन्द्र मोदी को विवादों से घेरे रखना चाहते हैं और दूसरी तरफ राहुल को पर्दे में छिपाये रखना।
सिद्धान्तहीन–जातिवादी राजनीति
सोनिया की दृष्टि राज्यों की बजाय केवल केन्द्र की सत्ता पर केन्द्रित है। इसलिए वह राज्यों में सब प्रकार के अवसरवादी-अनैतिक गठबंधन कर रही हैं। तमिलनाडु में जयललिता के विरुद्ध द्रमुक का सहयोग पाने के लिए उन्होंने करुणानिधि की पुत्री कनीमोझी को राज्यसभा में प्रवेश दिला दिया, जबकि इसी कनीमोझी को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल यात्रा करनी पड़ी थी। झारखंड में शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की प्रबल आकांक्षा को पहचानकर उन्होंने बहुमत के अभाव में भी उसे अपना समर्थन दे दिया, यद्यपि हेमंत सोरेन को कई दिन दिल्ली में पड़े रहने पर भेंट का अवसर नहीं दिया। शकील अहमद व बी.के. हरिप्रसाद जैसे सिपहसालारों के माध्यम से पूरी सौदेबाजी की गई। इन बिचौलियों ने इन तथ्यों को भी अनदेखा कर दिया कि झारखंड मुक्ति मोर्चो का पिछला रिकार्ड कितना कुत्सित है कि इसी झामुमो के पांच सांसदों ने पैसा लेकर पी.वी.नरसिंह राव की अल्पमत सरकार को बहुमत दिलाया था। हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन को सोनिया की संप्रग-प्रथम के काल में भ्रष्टाचार के लिये जेल यात्रा करनी पड़ी थी। झारखण्ड में चुनाव के बाद सरकार बनने पर पहले जो आरोप वे भाजपा के विरुद्ध लगाते थे, आज वही रास्ता सोनिया कांग्रेस खुद अपना रही है।
सोनिया की राजनीति में सिद्धांतवाद और राष्ट्र हित को कोई स्थान नहीं है। वे आंध्र में अन्नाद्रमुक, उड़ीसा में बीजू जनता दल, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में जद(यू) को हिन्दू समाज के विभाजन के रूप में देखती हैं। उनका पूरा चुनावी गणित 18 प्रतिशत मुस्लिम वोट और 5 प्रतिशत चर्च प्रेरित ईसाई वोट पर निर्भर है। इस 23 प्रतिशत के साथ वे हिन्दू समाज में से जातिवाद व क्षेत्रवाद के नाम पर 10 प्रतिशत वोटों पर अपनी निगाह गड़ाए हुए हैं। इन 10 प्रतिशत को पाने के लिए वे जातिवाद का खुलकर सहारा ले रही हैं। कर्नाटक में भाजपा सरकार को उन्होंने येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार का शोर मचाकर खूब बदनाम किया। भाजपा नेतृत्व को अपराध बोध से ग्रसित कर दिया, जबकि उसने वहां का चुनाव जातिवाद के आधार पर ही जीता। यही खेल खेलने के लिए उन्होंने मधुसूदन मिस्त्री को वहां भेजा था। अब वही खेल खेलने के लिए मिस्त्री को उत्तर प्रदेश में लाया गया है। सोनिया स्वयं कर्नाटक के एक लिंगायत संत के आश्रम में गयीं, उनके साथ फोटो खिंचायी। दैनिक पत्रों के अनुसार उनकी टीम प्रत्येक राज्य में जातियों एवं उपजातियों के आंकड़े एकत्र कर रही है। जातिवाद का उनका नंगा खेल अभी पिछले सप्ताह सबके सामने आया। राजधानी दिल्ली में जाटों के लिए आरक्षण की मांग उठाने के लिए हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और पंजाब के पूर्व अध्यक्ष कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने मंच पर हाथ उठाकर अपने फोटो खिंचाये। हुड्डा ने स्पष्टीकरण दिया कि मैं यहां मुख्यमंत्री के नाते नहीं, जाट होने के नाते आया हूं। इस जातिवादी रणनीति के अन्तर्गत ही कुर्मी नेता बेनी प्रसाद वर्मा को यादव नेता मुलायम सिंह यादव को गालियां देने के लिए खुला छोड़ दिया गया है। 10, जनपथ की शह पर ही बेनी प्रसाद गर्वोक्ति कर पाते हैं कि मैं कांग्रेस नहीं छोडूंगा, पर मुलायम को गालियां भी देता रहूंगा।
सफल रणनीतिकार?
वंशवादी चाटुकारों की मानसिकता सामान्य जनों से बिल्कुल अलग होती है। ये चाटुकार सोनिया और राहुल की आलोचना होते ही तिलमिला उठते हैं पर डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे श्रेष्ठ देशभक्तों का अपमान करने में संकोच नहीं करते। सोनिया ने अपनी पार्टी की इस मानसिकता को पूरी तरह पहचान लिया है और उसका पूरा लाभ उठाती हैं। इस मानसिकता का एक नमूना हैं राज्यसभा के सदस्य राजीव शुक्ला। शुक्ला की राजमहली निष्ठा का एक दृश्य कई चैनलों ने दिखाया कि राज्यसभा की बहस के समय वे मंच पर आकर पीठासीन अध्यक्ष के कान में यह कहते सुने गए कि कृपया इस सत्र को स्थगित कर दें। एक अंग्रेजी दैनिक ने छापा कि राजीव शुक्ला सिनेमा, क्रिकेट और पूंजीपतियों से संबंध बनाने में माहिर हैं। राहुल और प्रियंका को क्रिकेट मैच दिखाते हैं। सचिन तेंदुलकर और अभिनेत्री रेखा को सोनिया जी से मिलाकर राज्यसभा में नामांकित कराते हैं, न्यूज 24 चैनल के द्वारा पार्टी का प्रचार करते हैं। सोनिया की रणनीति का मुख्य हिस्सा है मीडिया मैनेजमेंट। नयी टीम के गठन में कई ग्रुप मीडिया के अलग-अलग हिस्सों में संबंध बनाने के लिए बनाये गये हैं। मीडिया प्रबंधन की इस व्यूह रचना का सूक्ष्म अध्ययन बहुत आवश्यक है।
एक ओर जातिवाद और सम्प्रदायवाद की वोट बैंक राजनीति, दूसरी ओर खाद्य सुरक्षा योजना के माध्यम से 67 प्रतिशत गरीब देशवासियों के वोट खरीदने की साजिश। सोनिया 13 जुलाई को अपने मुख्यमंत्रियों एवं केन्द्रीय टीम की बैठक बुलाकर राजीव गांधी के जन्मदिन (20 अगस्त) को इस योजना को बड़े धूमधाम से आरंभ करने की योजना बना रही हैं। मीडिया प्रबंधन के द्वारा इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे के अनुकरण पर 'करुणा की देवी' के रूप में अपनी छवि बनाने का सपना देख रही हैं। इस खाद्य सुरक्षा योजना को वे इतना महत्व दे रही है कि इसका पूरा श्रेय स्वयं लेने के लिए उन्होंने संसद के मानसून सत्र की प्रतीक्षा किए बिना ही उसे अध्यादेश के रास्ते से लाने का निर्णय लिया, और अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए लोकसभा सत्र को आगे खिसका दिया। क्या हम यह मान लें कि इटली में जन्मी श्वेतवर्णी सोनिया भारतीय मूल के सब राजनीतिकों की तुलना में अधिक सफल रणनीतिकार सिद्ध हो रही हैं? क्या उसी के बल पर उनकी पार्टी 'एक कलंदर बाकी बंदर' वाली कहावत का उदाहरण बन गयी ½èþ? näù´Éäxpù स्वरूप (10.07.2013)
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