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ईरान के राष्ट्रपति पद पर हसन रूहानी की विजय दुनिया में शांति चाहने वालों के लिए एक शुभ समाचार है। इससे पूर्व राष्ट्रपति अहमदेनिजाद, जो बार-बार परमाणु बम के उपयोग की धमकी देकर मध्य-पूर्व की राजनीति को गर्मा रहे थे, उस पर कुछ समय के लिए तो विराम अवश्य लग गया है। ईरान के राष्ट्रपति पद पर हसन रूहानी की विजय ने एक नई आशा और विश्वास को जगाया है। निजाद की दो पारियां समाप्त हो जाने से वे संवैधानिक व्यवस्था के अंन्तर्गत तीसरी बार चुनाव नहीं लड़ सकते थे। नहीं तो उनकी जीत आग में घी का काम कर सकती थी और यह सम्पूर्ण क्षेत्र युद्ध की लपटों में जल सकता था। ईरान ने हिजबुल्ला जैसे घोर आतंकवादी संगठन के लिए प्राणवायु जुटाई थी इसलिए ऐसा लगने लगा था कि अब दुनिया में तीसरा महायुद्ध बहुत दूर नहीं है। हसन रूहानी की जीत के कारण सभी ने राहत की सांस ली है। 72 प्रतिशत वोटों में से हसन रूहानी को 50.7 प्रतिशत वोट मिले और वे सफल उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। हसन मूसवी और मेहदी करोबी की तरह हसन रूहानी एक प्रगतिशील नेता माने जाते हैं। रूहानी की जीत ने यह सिद्ध कर दिया कि अब ईरान निजाद जैसे उग्र और प्रतिक्रियावादी नेता, जो पिछले लम्बे समय से ईरान में हिंसा और क्रांति के समर्थक थे, को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। चुनाव में रूढ़िवादियों की जबरदस्त हार हुई है।
ईरान के चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा परमाणु बम का ही था। क्योंकि इसका विरोध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो होना स्वाभाविक ही है लेकिन स्वयं ईरानी जनता इसके पक्ष में नहीं थी। पश्चिमी राष्ट्रों को यह भय था कि ईरान परमाणु शक्ति बन जाने के बाद कभी भी परमाणु बम का उपयोग कर सकता है। इस्रायल से मुस्लिम देशों का जो जन्मजात झगड़ा है, उसे हल करने के लिए वह हिजबुल्लाह जैसे आतंकवादी संगठन के हाथों यह मौत का खेल खेल सकता है। निजाद इस्लाम के नाम पर हुंकार भरने में कभी पीछे नहीं रहते थे। अमरीका और इस्रायल विरोधी तत्व उनकी पीठ थपथपाते रहते थे। लेकिन जब प्रगतिशील उम्मीदवार मोहम्मद रजा आरिफ ने रूहानी के समर्थन में अपना नाम वापस ले लिया तो हसन रूहानी का कद ऊंचा हो गया।
परमाणु होड़ के कारण जब विश्व के अनेक देशों ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया तो ईरान की आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी। अमरीका से ईरान के सम्बंध इस हद तक बिगड़ गए थे कि मामला किसी भी क्षण युद्ध में पलट सकता था। अमरीका का विश्व के अनेक देशों पर दबदबा है इसलिए वे सभी ईरान से दूर होते जा रहे थे। इसका प्रभाव देश की बेकारी पर पड़ा। ईरान में काम नहीं मिलने से लोगों के लिए रोटी-रोजी का मसला खड़ा हो गया। ईरान दुनिया के अनेक देशों को खनिज तेल की पूर्ति करता है। तेल ही उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है। इसलिए ईरान को दिन में ही तारे नजर आने लगे। काम नहीं मिलने से देश में बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती चली गई। इसलिए जनता की नाराजगी कोई सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती। पाठकों को याद होगा कि ईरान शाह के समय से अमरीका का समर्थक रहा है। लेकिन इमाम खुमैनी ने जब अमरीका को 'बड़ा शैतान' और इस्रायल को 'छोटा शैतान' कहना प्रारम्भ किया तबसे गांठ बंध गई। नतीजा यह हुआ कि निजाद ने जिहाद का नारा लगाना शुरू कर दिया। मोर्चे पर कुछ दिन लड़ना किसी देश के लिए सम्भव हो सकता है लेकिन दुनिया की महाशक्तियों को हमेशा के लिए अपना दुश्मन बना लेना सहन नहीं किया जा सकता है। 2008 में जब अमरीका के राष्ट्रपति पद पर ओबामा आरूढ़ हुए तबसे निजाद ने उन्हें अपना शत्रु मान लिया। ईरान शिया देश होने के बावजूद सुन्नियों का समर्थक हो गया। यह परिवर्तन एक महाशक्ति के लिए बड़ा झटका था। पिछले दिनों ईरान के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी ने सऊदी अरब का दौरा किया था। उस समय सऊदी राजा ने उनसे अपील की थी कि वे अपनी अमरीका विरोधी नीति पर विचार करें। सीरिया की जंग भले ही ईरान जीत ले लेकिन अमरीका के साथ उसको युद्ध भारी पड़ेगा।
मध्यपूर्व के ही नहीं अनेक मुस्लिम राष्ट्र इस्रायल के मामले में अमरीका पर भरोसा नहीं करते हैं। वे भावनाओं की राजनीति करते हैं। उनका यह मानना है कि इस्लामी जगत का सबसे बड़ा मुद्दा इस्रायल है। यदि उसे समाप्त कर दिया जाए तो मुस्लिम अपने सब से बड़े और पुराने दुश्मन पर विजय प्राप्त कर लेंगे।
ईरान में जबसे कट्टरवादी ताकतों ने सत्ता संभाली है तब से वे इस्रायल को छोटा शैतान और अमरीका को बड़ा शैतान कहते रहे हैं। सलमान रश्दी को जान से मार देने का सबसे बड़ा पुरस्कार उन्होंने ही घोषित किया था। लेकिन रश्दी अब भी जीवित हैं। वे उसका बाल भी बांका नहीं कर सके हैं। मजहबी नेताओं ने अपनी शान बघारने के लिए यह खतरा तो मोल ले लिया लेकिन वे यह नहीं समझ सके कि इससे ईरान को अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर कितना नुकसान उठाना पड़ेगा। दुर्भाग्य से निजाद ने इस आग में घी डालने का काम किया था। पिछले दिनों तो लगता था कि अब इस टकराव को कोई नहीं रोक सकता है। अहमदी निजाद जैसे चरमपंथी नेता ने तो चुनौती की भाषा में बात करनी शुरू कर दी थी। इसलिए चुनाव के समय में मजहबी नेताओं ने इस नीति को ईरान के लिए आत्माहत्या का मार्ग समझा। अंतत: हसन रूहानी जैसे उदारवादी नेता को राष्ट्रपति पद पर मनोनीत करने में ही दुनिया और ईरान की भलाई समझी।
हसन रूहानी एक मात्र नेता थे जो राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवाद के रूप में सबसे अग्रणी रहे। उन्हें खातिमी का समर्थन था। रूहानी ने चुनाव अभियान के दौरान राजनीतिक कैदियों की रिहाई का वादा किया है। सामान्य ईरानियों को विश्वास दिलाया है कि एक नागरिक को जो मानवीय अधिकार मिलने चाहिए वे उसकी रक्षा करेंगे। इतना ही नहीं पिछली सरकारों ने आम आदमी के अनेक अधिकारों का हनन किया है वे उसे पुन: बहाल करने का प्रयास करेंगे। उन्होंने चुनाव अभियान में इस बात को बार-बार दोहराया कि आर्थिक प्रतिबंधों को समाप्त करवाना उनका पहला काम होगा। क्योंकि वे जानते हैं कि इस कारण ईरान के आम आदमी की कमर टूट गई है। चूंकि वे 1989 से 2005 तक सुप्रियम नेशनल सिक्यूरिटी कौंन्सिल के अध्यक्ष रह चुके हैं इसलिए भली प्राकर जानते हैं कि देश के किस कोने में क्या हो रहा है। देश में आणविक हथियारों के सम्बंध में लोगों का किया चिंतन है वे भली प्रकार जानते हैं। ईरान का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग बहाई है। उसे उनके मजहब के बहाने कष्ट दिए जाते हैं। इसका अहसास उन्हें भली प्रकार है? हजरत बहाउल्ला की समाधि फिलीस्तीन में है जहां बहावियों को दर्शन के लिए जाने नहीं दिया जाता है। 1979 में तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास पर जब हमला हुआ था उस समय मध्यस्थता की भूमिका रूहानी ने ही निभाई थी। जहां तक भारत का मामला है ईरान और भारत के बीच गैस पाइप लाइन बिछाने के काम को कब शुरू किया जाएगा? क्योंकि इस योजना पर वर्षों पहले दोनों देश सहमत हो चुके हैं।
मुजफ्फर हुसैन
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