नई दिल्ली में 'गढ़ें अपना जीवन' लोकार्पित
|
भारतीय दृष्टि में व्यक्तित्व निर्माण
स्वतंत्रता के बाद भले ही देश में स्कूल, कॉलेज व अन्य शिक्षण संस्थान तीव्र गति से खुले–डॉक्टर, इंजीनियर भी बड़ी तादाद में बन गए। लेकिन इतने वर्षों में हम व्यक्ति का निर्माण नहीं कर सके। देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा प्राप्त करने वाला आज भ्रष्टाचार और घोटालों में भी लिप्त पाया जाता है। क्या इतने सालों में हमने यही प्रगति की है।–डा. कृष्ण गोपाल, सह सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ
नई दिल्ली के कॉन्स्टीटयूशन क्लब में गत 1 जुलाई को संस्कारप्रद एवं व्यक्तित्व निर्माण की पुस्तक 'गढ़ें अपना जीवन' का लोकार्पण हुआ। अखिल भारतीय शिक्षण मंडल के कार्यकर्ता श्री मुकुल कानिटकर द्वारा लिखित तथा प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डा. कृष्ण गोपाल ने किया। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि मध्य प्रदेश सरकार की स्कूली शिक्षा मंत्री श्रीमती अर्चना चिटनिस थीं।
पुस्तक का लोकार्पण करते हुए डा. कृष्ण गोपाल ने कहा कि भौतिकता की सुनामी में अनेक बड़े देश बह गए लेकिन नचिकेता और अष्टावक्र के सिद्धांतों पर चलने वाला हमारा देश आज भी खड़ा है। आज भौतिकतावाद के बादलों ने हमारे प्राचीन दर्शन को छुपा लिया है, लेकिन यह स्थिति ज्यादा समय तक नहीं रहने वाली है। अगर हम अपनी संस्कृति को भूलेंगे तो समाज मूल्यरहित हो जाएगा। कार्यक्रम में उपस्थित लोगों का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि हम अपने घर में पुस्तकालय का निर्माण करें और बच्चों को अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करें। उन्होंने कहा कि घर में रखी पुस्तकें सिर्फ अलमारी की शोभा न बढ़ाएं, बल्कि परिवार के सदस्यों को जब भी समय मिले उन पुस्तकों को पढ़ें, उसके विचार आत्मसात करें। हमारे घरों में जूता-चप्पल तक रखने के लिए जगह है, पर किताबों के लिए नहीं है। ऐसे में बच्चे संस्कारवान कैसे बनेंगे।
पुस्तक के बारे में बताते हुए श्री मुकुल कानिटकर ने कहा कि भारतीय दृष्टिकोण और जीवन मूल्यों के अनुसार व्यक्तित्व विकास कैसे हो सकता है, यह पुस्तक में बताया गया है। उन्होंने कहा कि आज हम अपने आपको पश्चिमी विचारधारा के चश्मे से देखते हैं, हमें अपने इस नजरिए को बदलना होगा।
श्रीमती अर्चना चिटनिस ने कहा कि पुस्तक लिखना मां होने के समान है। जिस तरह मां बच्चे को समझाती है उसी तरह लेखक लोगों को समझाता है। धन्यवाद ज्ञापन प्रभात प्रकाशन के प्रमुख श्री प्रभात कुमार ने किया। इस अवसर पर दिल्ली के गण्यमान्य नागरिक बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
विभाजन की पीड़ा से उपजी कहानियां
भारत के इतिहास में कई ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जिसका प्रभाव न केवल इसके सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर हुआ है बल्कि हजारों-लाखों लोगों के व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ा है। ऐसी ही एक दुर्भाग्यपूर्ण और त्रासद घटना थी देश का विभाजन। एक ओर जहां हमें दो सौ वर्ष की ब्रिटिश दासता से स्वाधीन होने की खुशी मिल रही थी तो दूसरी ओर कभी न भरने वाला घाव भी हमें मिल गया, जिसकी टीस, जिसका दर्द हम आज भी महसूस करते रहते हैं। विभाजन के दौरान दोनों देशों की सरहद के आर-पार कैसे भयानक और हृदय विदारक हालात बन गए थे, इसका अंदाजा केवल वही व्यक्ति लगा सकता है जिसने आत्मा को झकझोर देने वाले उस दौर को अपनी आंखों से देखा था। उस दौरान न जाने कितने लोग अपने परिवार से बिछड़े, कितने बच्चे अनाथ हुए और कितनी महिलाओं को अपनी अस्मत गंवानी पड़ी। विभाजन की विभीषिका को झेलने वाली कुछ महिलाओं के अनुभवों को एक कथानक में पिरोकर नौ कहानियों का संकलन 'विभाजन की पीड़ा' कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आया है। इसमें डा. विमला मल्होत्रा ने सीधे-सरल ढंग से विस्थापित महिलाओं की पीड़ा को व्यक्त किया है। डा. मल्होत्रा की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि अपने बचपन में सुनी या देखी विभाजन की शिकार कुछ महिलाओं की करुण कथा को लंबे समयांतराल से गुजर जाने के बाद भी उन्होंने संजोकर रखा और उसे कहानी के रूप में अभिव्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है। लेखिका ने लगभग सभी कहानियों में केन्द्रीय महिला पात्र के उस दर्द को, उस भावावस्था को सामने लाने का प्रयास किया, जिसकी उपस्थिति ने उस महिला के वजूद को दो हिस्सों में बांटकर रख दिया। फिर वह चाहे कहानी 'टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा….' की प्रीतो हो, या 'फैसला' कहानी की राणो या फिर 'सरहद के उस पार' कहानी की प्रकाशो मौसी। सभी कहानियों के कथानक में भी बहुत अंतर नजर नहीं आता है। लगभग सभी कहानियों में देश के बंटवारे में सतायी गई किसी ऐसी महिला की कहानी है जिसे उसके अपने रिश्तेदार ने भी अपनाने से इंकार कर दिया था। लेकिन आशा की एक किरण जलाते हुए लेखिका ने किसी न किसी ऐसे शख्स को जरूर कथा में शामिल कर दिया है, जिसने उस बेसहारा महिला को प्यार-सम्मान के साथ अपने गले लगाया। कुछ कहानियों में एक-दो घटनाएं और दृश्य तो बिल्कुल एक समान ही बन पड़े हैं। उदाहरण के तौर पर 'फैसला' कहानी में राणो को जब अहमद चाचा पाकिस्तान छोड़ने के लिए स्टेशन लेकर जाते हैं तो उस समय जो कुछ घटित होता है, लगभग वही सब 'सरहद के उस पार' कहानी में भी घठित होता है। हालांकि ये कहानियां शिल्प, भाषा, कथानक की दृष्टि से बहुत स्तरीय नहीं कही जा सकती हैं लेकिन सभी में उस दर्द को महसूस अवश्य किया जा सकता है जो विभाजन के समय हजारों महिलाओं ने झेला।
भाजपा महिला मोर्चा की पत्रिका
'हमारी बहनें' लोकार्पित
तदिनोंदिल्लीमेंभारतीयजनतापार्टीमहिलामोर्चाकीमासिकपत्रिका 'हमारीबहनें' कालोकार्पणकार्यक्रमसंपन्नहुआ।महिलामोर्चाकीराष्ट्रीयअध्यक्षासुश्रीसरोजपाण्डेयद्वारासंपादितइसपत्रिकाकालोकार्पणलोकसभामेंविपक्षकीनेताश्रीमतीसुषमास्वराजनेकिया।कार्यक्रममेंप्रसिद्धसाहित्यकारएवंमहिलामोर्चाकीप्रभारीश्रीमतीमृदुलासिन्हासहितअनेकपदाधिकारीएवंबड़ीसंख्यामेंभाजपामहिलामोर्चाकीकार्यकर्ताउपस्थितथीं।प्रतिनिधि
टिप्पणियाँ