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इसी सोमवार (24 जून) को आधी रात से प्रात: 3 बजे तक भारत की राजधानी दिल्ली और दिल्ली के दिल इंडिया गेट को जाने वाली सब सड़कों पर रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य देखने को मिला। दिल्ली के विभिन्न भागों से 2000 से अधिक मोटर साइकिलों पर सवार किशोर व युवा सवारों ने खतरनाक कलाबाजियों का प्रदर्शन किया। प्रत्येक बाइक पर तीन या चार सवार बिना हेलमेट के सवार होकर अत्यंत तेज रफ्तार से मोटर साइकिल को आड़े-तिरछे ढंग से मुख्य मार्गों पर चला रहे थे, चाहे जहां अचानक ब्रेक लगाते, संकरी गलियों में घुस जाते और गलियों में अचानक मुख्य मार्गों पर आ जाते, सवार युवक सभी दौड़ती बाइकों पर खड़े होकर स्टंट दिखलाते। उन्होंने यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ा दीं। न हेलमेट लगाया, न एक बाइक पर दो सवारी के नियम पालन किया, न इंडिया गेट पर न जाने के प्रतिबंध का पालन किया, न पुलिस पिकेटिंग की चिंता की। एक दैनिक पत्र के अनुसार ऐसा लगता था कि दिल्ली पर उनका कब्जा हो गया है। पुलिस वाले असहाय होकर देखते रहे। उन्होंने रात को देर से लौटने वाली कारों के आगे पीछे करतब दिखाये, उनकी बोनट पर खड़े होकर नाच किया। साकेत में फिल्म देख कर वापस लौटती देवयानी और उसकी मां इस दृश्य को देखकर रोने लगीं, भयभीत होकर उन्होंने अपनी कार सड़क के किनारे खड़ी की तो वहां भी उन्हें घेर लिया गया, अश्लील फब्तियां कसी गयीं। ऐसे अनेक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव विभिन्न दैनिकों ने छापे हैं।
अखबारों में सन्नाटा क्यों?
ये घटनाएं सोमवार की रात को घटीं पर दैनिक पत्रों में यह समाचार बुधवार की प्रात: ही प्रकाशित हुआ, वह भी पुलिस सूत्रों के आधार पर। किसी टेलीविजन चैनल पर इन दृश्यों को नहीं दिखाया गया। कुछ दैनिक पत्रों ने उन्मादी मोटर साइकिल सवारों के चित्र भी छापे हैं। इन चित्रों में उन सवारों के सिर की टोपियों से स्पष्ट हो जाता है कि वे सभी स्टंटबाज सवार किसी एक मजहबी समुदाय के अंग हैं। पर, किसी भी दैनिक पत्र ने उस साम्प्रदायिक पहचान को शीर्षक में देने का प्रयास नहीं किया। लगता है उसे जानबूझकर छिपाया गया। दैनिक जागरण ने सर्वाधिक विस्तार से इस दृश्य का वर्णन किया, किंतु उसका भी शीर्षक है, 'आधी रात बाइकर्स का जमकर उत्पात'। जनसत्ता ने शीर्षक दिया, 'इंडिया गेट पर मनचलों के हंगामे से दिल्ली पुलिस सकते में', सहारा में शीर्षक है, 'बाइकर्स का हुड़दंग', नेशनल दुनिया ने लिखा, 'हजारों बाइकर्स ने किया हंगामा, पुलिस वाले जख्मी'। अंग्रेजी द हिन्दू ने शीर्षक दिया 'मध्य दिल्ली में उपद्रवियों का राज', टाइम्स आफ इंडिया ने पहले और पांचवें पन्ने पर दो जगह इस समाचार को छापा, शीर्षक दिया, 'बाइकर्स के उन्माद से एक मरा, कई घायल', हिन्दुस्तान टाइम्स ने कहा, 'सड़क पर हुड़दंग मचाने पर 11 व्यक्ति पकड़े गये।'
अधिकांश पाठक जो दैनिक पत्रों के शीर्षक से आगे जाते ही नहीं, क्या इन शीर्षकों को देखकर यह समझ सकते हैं कि दिल्ली जैसे विशाल नगर के सब भागों से ये हजारों उन्मादी युवक एकत्र आये कैसे? मोटर बाइक के सहारे इस खतरनाक कलाबाजी की ट्रेनिंग उन्हें किसने, कहां और क्यों दी? दैनिकों में प्रकाशित रपटों को पूरा पढ़ने पर पता लगता है कि मुस्लिम त्योहार शब-ए-बरात पर स्टंटबाजी का यह प्रदर्शन कई साल से चला आ रहा है, पुलिस चुपचाप उससे जूझती रही है। उसकी उदासी या असहायता के कारण इस प्रदर्शन का आकार लगातार फैलता जा रहा है। जनसत्ता के अनुसार एक समुदाय विशेष के पर्व-त्योहारों पर लगातार कई सालों से इस तरह की स्टंटबाजी होती आ रही है। जागरण के अनुसार, इस साल मुस्लिम बहुल इलाकों में पुलिस ने बैठकें कीं और पर्चे भी बांटे। पुलिस हमेशा की तरह बेबस और लाचार नजर आयी। जामिया नगर, सीलमपुर, सीमापुरी, त्रिलोकपुरी आदि इलाकों में भी बाइकर्स द्वारा सड़कों पर देर रात तक लेन बदलकर गाड़ी दौड़ाने से कई स्थानीय लोगों को अचानक ब्रेक लगाने पड़े जिससे गाड़ियां आपस में भिड़ गयीं। इंजीनियरिंग छात्र देवेश के अनुसार, सोमवार रात उन्होंने जो देखा वह वास्तविक जीवन में सबसे खौफनाक था। कनाट प्लेस में जाम में फंसी उनकी कार पर अचानक कुछ युवक बोनट पर चढ़कर कूदने लगे।
पुलिस का भी मखौल उड़ाया
नई दिल्ली के पुलिस उपायुक्त ने बताया कि हमारे स्टाफ ने उन्हें इंडिया गेट की तरफ बढ़ने से रोका तो पत्थर बरसाये गये, जिससे एक सिपाही का सिर फट गया। एक अन्य पुलिस कर्मी ने रोकने की कोशिश की तो उसके ऊपर मोटर साइकिल चढ़ा दी गयी। इस स्टंटबाजी में एक बाइकर खुद मारा गया। दो घायल पुलिसकर्मियों सतेन्द्र व अन्य को राममनोहर लोहिया अस्पताल में भरती कराया गया।
इस घटना को कुछ किशोरों व युवकों की मात्र स्टंटबाजी कह कर नहीं टाला जा सकता। यह मजहबी प्रेरणा से सोचा-समझा शक्ति प्रदर्शन लगता है। दिल्ली पुलिस को पिछले कई वर्षों के अनुभव से उसका यह चरित्र समझ में आने लगा है इसीलिए उसने पहले से ही मुस्लिम बहुल मुहल्लों में जाकर बैठकें कीं, पर्चे बांटे, शब-ए-बरात के दिन इंडिया गेट की ओर जाने वाले रास्तों पर 35 पिकेट लगाये पर मजहबी आवेश से भरे उन्माद के सामने ये सब प्रयास छोटे पड़ गये, विफल पड़ गये, दिल्ली का मीडिया, जो तिल का ताड़ बनाने में माहिर है, घटना के तीसरे दिन, 26 जून को उसका समाचार प्रकाशित कर चुप्पी साध गया। 27 जून के 13 दैनिकों में से जिन्हें देखने का अवसर मुझे मिलता है, केवल एक दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने एक छोटा सा समाचार छापा है कि बाइकर्स के हुड़दंग को लेकर दिल्ली पुलिस ने सौंपी रिपोर्ट। टाइम्स आफ इंडिया ने 26 जून को एक बाक्स बनाकर दिल्ली पुलिस को तो उपदेश के सात बिन्दु छापे हैं कि उसे इस शक्ति प्रदर्शन को रोकने के लिए क्या-क्या सावधानियां बरतनी चाहिए थीं, पर यह प्रश्न एक बार भी नहीं उठाया कि हजारों बाइकर्स को यह स्टंटबाजी सिखाने, उन्हें एक त्योहार के बहाने एकत्र होने और दिल्ली पुलिस की चेतावनियों को अनसुना करके उसे चुनौती देने का साहस देने वाला संगठन या दिमाग कौन सा है। इतना बड़ा एकत्रीकरण अपने आप तो हो नहीं सकता।
इससे भी बड़ा सवाल है कि चौबीस घंटे वाले खबरिया चैनल, जो सर्वव्यापी होने का दावा करते हैं, जिनके कैमरामैन बीहड़ जंगलों में भी मौजूद रहने का दावा करते हैं, राजधानी दिल्ली में प्रतिवर्ष होने वाली इस स्टंटबाजी के प्रति अनजान कैसे रह जाते हैं? उत्तराखण्ड में आपदा राहत का श्रेय लेने की होड़ में लगे तेलुगु देशम पार्टी और कांग्रेसी सांसदों के बीच घूंसेबाजी के दृश्य को तो सब चैनल बड़े चटखारे लेकर दिखाते रहे, पर राजधानी दिल्ली में इस मजहबी उन्माद व शक्ति प्रदर्शन के दृश्यों को दिखाकर देशवासियों को सचेत करने के अपने कर्तव्य का पालन उन्होंने नहीं किया।
दिल्ली में बढ़ता मजहबी उन्माद
दिल्ली में मजहबी उन्माद के प्रदर्शन का यह अकेला प्रकरण नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व जोरबाग में सार्वजनिक भूमि पर एक मस्जिद के अवैध निर्माण को गिराने के विरुद्ध भी इमाम बुखारी भीड़ लेकर वहां पहुंच गये थे और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उनके सामने हथियार डाल दिये थे। उसके कुछ समय बाद एक मुस्लिम विधायक के आह्वान पर हजारों मुसलमानों ने एकत्र आकर रातोंरात एक 'अकबरी मस्जिद' का ढांचा खड़ा कर दिया था। न्यायालय के आदेश के बाद भी पुलिस उस ढांचे को नहीं हटा पायी, क्योंकि उसे मुस्लिम वोटों के भूखे राजनीतिक आकाओं की नाराजगी का डर बना रहता है। दिल्ली में अनेक संरक्षित मकबरों में जबर्दस्ती नमाज पढ़ी जाती है और कानून अपने को बेबस पाता है।
लोकसभा के आगामी चुनावों में संगठित मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए सब राजनीतिक दलों के बीच होड़ शुरू हो गयी है। उन्हें जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने की मांग के साथ ही आतंकवाद के आरोप में बंदी बनाये गये सभी मुस्लिम कैदियों को रिहा करने की मांग उठ रही है। उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने तो उनको रिहा करने की घोषणा भी कर दी, जिसे न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण अभी क्रियान्वित नहीं किया जा सका है। देश के अनेक राज्यों में आतंकवादियों के विरुद्ध पुलिस मुठभेड़ की सैकड़ों घटनाएं घट चुकी हैं, किंतु गुजरात में पहले सोहराबुद्दीन और अब इशरत जहां की मुठभेड़ को झूठी कहकर लगातार टीवी चैनलों पर प्रचार किया जा रहा है। सीबीआई इंटेलीजेंस ब्यूरो को कटघरे में खड़ा कर रही है। इस प्रकार नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति के लिए देश की जांच एजेंसियों एवं सुरक्षा बलों को लांछित किया जा रहा है, उनका मनोबल तोड़ा जा रहा है।
1989 से अब तक पूरे भारत में जिहादी आतंकवाद की सैकड़ों घटनाएं घट चुकी हैं। हजारों निर्दोष स्त्री-बच्चे व बूढ़े इनमें मारे जा चुके हैं और सैकड़ों अपंग हो गये हैं, पर एक भी घटना के सही अपराधी आज तक नहीं पकड़े जा सके। जांच एजेंसियों एवं सुरक्षा बलों ने जिन्हें भी संदेह के आधार पर पकड़ा उन्हें ही मुस्लिम समाज निरपराध बताता है और पुलिस व जांच एजेंसियों पर मुस्लिम विरोधी होने का लांछन लगा देता है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि असली अपराधी आकाश में विलीन हो जाते हैं और उन्हें स्थानीय प्रश्रय नहीं मिलता है। ऐसे में क्या जागरूक, शांतिप्रिय, राष्ट्रभक्त मुस्लिम नेताओं का यह दायित्व नहीं है कि वे स्वयं होकर राष्ट्रीय एकता के इन शत्रुओं की पहचान करायें?
एनआईए की 'उपलब्धि'
चिदम्बरम द्वारा 2008 में गठित एनआईए आज तक जिहादी आतंकवाद की एक भी घटना की जड़ तक नहीं पहुंच पायी। 26/11 के मुम्बई आक्रमण में जिस कसाब को फांसी दी गई वह एनआईए का जन्म होने के पहले ही मौके पर पकड़ा जा चुका था। एनआईए की एकमात्र उपलब्धि है कि उसने 2006 और 2008 के मालेगांव ब्लास्ट व 2007 के समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के बारे में महाराष्ट्र सरकार की एटीएस व सीबीआई की जांचों के आधार पर भारत सरकार के अन्तरराष्ट्रीय दावों को गलत ठहराकर इन घटनाओं का पूरा दोष हिन्दू समाज के माथे मढ़ दिया और केवल तीन-चार घटनाओं व 15-16 हिन्दू नामों के आधार पर जिहादी आतंकवाद के समानांतर हिन्दू या 'भगवा आतंकवाद' जैसी शब्दावली की सृष्टि कर डाली। यदि उसकी तथाकथित जांच को सही मान लें तो भी उसे जिहादी आतंकवाद और उसकी प्रतिक्रिया में कोई अंतर क्यों नहीं दिखाई देता।
भारत जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में एक भी निर्दोष नागरिक को दंडित नहीं होना चाहिए, पर भारत आज जिस स्थिति में पहुंच गया है, जहां एक संगठित वोट बैंक को रिझाने के लिए अब राजनीतिक दलों में मजहबी कट्टरवाद और पृथकतावाद की वकालत की होड़ सी लग गयी है, वहां सुरक्षा बलों और जांच एजेंसियों की भूमिका बहुत कठिन हो गयी है। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज में राष्ट्रभक्त उदारवादी नेताओं की कमी है। नजमा हेपतुल्लाह, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, आरिफ मुहम्मद खान एवं राष्ट्रीय मुस्लिम मंच जैसे अनेक उदाहरण हैं। पर कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जिस प्रकार मौलाना आजाद जैसे कद्दावर नेता को 'हिन्दू कांग्रेस का एजेंट' कहकर लांछित किया गया उसी प्रकार इन राष्ट्रभक्त मुस्लिम नेताओं को भी चित्रित किया जा रहा है। भाजपा मुस्लिम समाज तक अपनी बात पहुंचाने का जब भी प्रयास करती है तभी अन्य राजनीतिक दल कट्टरवादी मुस्लिम नेताओं को सामने ले आते हैं। मुस्लिम समाज को स्वयं ही इस मकड़जाल से बाहर निकलने का प्रयास करना ½þÉäMÉÉ* näù´Éäxpù स्वरूप (27.6.13)
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