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परसों शर्मा जी के घर गया था। वहां उनसे गपशप का सुख तो मिलता ही है, कभी-कभी शर्मा मैडम के हाथ की गरम चाय भी मिल जाती है, लेकिन परसों शर्मा मैडम घर में नहीं थीं, इसलिए रिमझिम वर्षा के बीच चाय और पकौड़ी की इच्छा अधूरी रह गयी।
तभी शर्मा जी ने बताया कि उनके पड़ोस में एक नये किरायेदार वर्मा जी आये हैं। पति-पत्नी दोनों ही पढ़े-लिखे हैं। वहां चलें, तो परिचय के साथ ही चाय और थोड़ा मानसिक व्यायाम भी हो जाएगा।
मुझे भला इसमें क्या आपत्ति थी? उनके कमरे की तरफ बढ़े, तो बाहर से ही पता लग गया कि दोनों में किसी बात पर बहस हो रही है। शर्मा जी ने खट-खट की, तो दरवाजा खुल गया। हम लोग अंदर जाकर बैठ गये, पर हमारे जाने से भी बहस बंद नहीं हुई।
– देखो जी, साफ-साफ सुन लो। हमें चाहे जो करना पड़े, पर हम अपने बेटे को डॉक्टर बनाकर ही रहेंगे।
– बिल्कुल नहीं। डॉक्टर की जान को आजकल सौ मुसीबत हैं। रात हो या दिन, ठीक से दो रोटी भी नहीं खा सकता। इलाज में कुछ टेढ़ी-तिरछी बात हो गयी, तो लोग मारपीट पर उतर आते हैं। इसलिए हम उसे आई.ए.एस. अधिकारी बनाएंगे।
– झंझट तो हर काम में रहते हैं जी, पर आजकल बीमारियां बहुत बढ़ रही हैं। ऐसे में अपने घर में ही कोई डॉक्टर हो, तो बड़ी सुविधा रहती है। इस काम में पैसा भी बहुत है।
– पैसा ही सब कुछ नहीं होता मैडम। आई.ए.एस. अधिकारी तो अपने क्षेत्र में राजा होता है। उसके एक आदेश पर बड़े से बड़े डॉक्टर को हाजिर होना पड़ता है।
– हर जगह तुम अपनी करते हो, पर यहां मेरी मरजी चलेगी।
– जी नहीं। होगा वही, जो मैं चाहूंगा।
इस निरर्थक बहस को शैतान की आंत की तरह लम्बी होती देख मैंने हस्तक्षेप करना ठीक समझा।
– भाई साहब, बिना मांगे सलाह देने वाला वैसे तो मूर्ख माना जाता है, पर यह खतरा उठाते हुए भी मैं निवेदन करना चाहता हूं कि क्यों न एक बार बेटे से भी पूछ लें। कई बार हम अपनी इच्छाएं बच्चों पर थोप देते हैं, जबकि उनकी रुचि कुछ और ही होती है।
– लेकिन अभी से हम उससे कैसे पूछ सकते हैं? वर्मा जी ने थोड़ा संकोच में कहा।
– क्यों ?
– हमारा विवाह तो पिछले महीने ही हुआ है। हम तो चर्चा इस बात पर कर रहे थे कि जब कभी बेटा होगा, तो उसे क्या बनाएंगे?
मैंने अपना सिर पीट लिया। शर्मा जी के चेहरा भी कुछ ऐसी ही कहानी कह रहा था। जरूरत से ज्यादा बुद्धिमानों के बीच में पड़ने का शायद यही परिणाम होता है। इसलिए हमने चाय की आशा छोड़कर वापस चलना ही उचित समझा।
घर पहुंचे, तो वहां बरामदे में मौहल्ले के कुछ बच्चे सांप-सीढ़ी खेल रहे थे। कभी उनमें से कोई अचानक सीढ़ी चढ़कर खुश होता, पर थोड़ी देर बाद किसी सांप के काटने से फिर नीचे आ जाता। सीढ़ी और सांप के चक्कर से निकलकर यदि कोई अंतिम पंक्ति में पहुंचता, तो उसका पाला एक लम्बे सांप से पड़ता था। उससे बचना बहुत ही कठिन था। शायद ही कोई खिलाड़ी उसके काटे से बच सका हो। हम भी बच्चों में बच्चे बने बहुत देर वहां खड़े रहे, पर अंतिम पंक्ति वाले उस सांप को कोई पार नहीं कर सका।
पिछले कुछ समय से भारत में भी ऐसा ही तमाशा हो रहा है। वर्मा दम्पति की तरह कुछ लोगों ने तय कर लिया है कि हम 'इस या उस' को प्रधानमंत्री बनाकर ही रहेंगे। इसके लिए वे सीढियां लिये खड़े हैं, पर वे भूलते हैं कि रास्ते में राज्य और राष्ट्र स्तर के कई धुरंधर सांप भी हैं। संख्या गिनने बैठेंगे, तो सीढियां कम मिलेंगी और सांप अधिक। फिर अंतिम पंक्ति वाले उस सांप का तो कहना ही क्या, जिसकी अपनी नियति में तो जीत वाले बिन्दु तक पहुंचना नहीं है, पर किनारे तक आ जाने वाले को काटकर नीचे तो भेज ही सकता है।
हिन्दी में 'सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा', 'झोली में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने', 'मैं नहीं, तो तू भी नहीं', 'अपने पैरों कुल्हाड़ी मारना'.. आदि कई कहावतें प्रचलित हैं। इनमें से कौन सी कहावत कहां फिट बैठेगी, इस बारे में अपनी राय आप मुझे जरूर बताएं।
विजय कुमार
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