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घोटालों की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर, वे इस्तीफा दें

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Jun 15, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 15 Jun 2013 16:50:48

भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा–

कोयला घोटाले में कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल और तत्कालीन राज्यमंत्री दासारी नारायण राव के खिलाफ सीबीआई की एफआईआर दाखिल होने के बाद इसमें संदेह नहीं रह जाता कि कोयला घोटाले में पैसे का खूब लेना–देना हुआ है। फर्जी कंपनियां खड़ी करके राष्ट्रीय संपदा की खुली लूट हुई है। कोयला आवंटन और बाकी तमाम घोटालों के संदर्भ में आलोक गोस्वामी ने भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता निर्मला सीतारमन से विस्तृत बातचीत की, जिसके प्रमुख अंश यहां दिए जा रहे हैं। 

इस सरकार के मंत्रियों और नेताओं पर घोटालों की मुहर सी लग चुकी है। आपका क्या कहना है?

मोटे तौर पर 2010 से ही आएदिन घोटाले देखने में आ रहे हैं। हर घोटाला अपने से पहले वाले के मुकाबले देश के खजाने को ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला होता है। इसके साथ ही, लगता है जैसे सरकार में जिम्मेदारी का भाव ही नहीं है। आखिर 2 जी के लिए कौन जिम्मेदार है? राजा ने कहा भी था कि उसमें तत्कालीन (और आज के भी) वित्त मंत्री चिदम्बरम और प्रधानमंत्री को सारी जानकारी थी। अगर राजा को पूछताछ के लिए हिरासत में रखा जा सकता है तो फिर चिदम्बरम और प्रधानमंत्री से पूछताछ क्यों नहीं होनी चाहिए? इस घोटाले से देश को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगा।

राष्ट्रमण्डल खेल घोटाले की जांच रपट आने के बाद भी सब जस के तस कैसे हैं?

 78 हजार करोड़ का घोटाला हुआ राष्ट्रमंडल खेलों में। इसमें भी प्रधानमंत्री  इस मायने में घोटाले से जुड़े हैं कि ये घोटाला कई सारे घोटालों का जोड़ है। प्रधानमंत्री ने कहा कि 'मैंने शुंगलू कमेटी बना दी है, इसका फैसला आने के बाद कार्रवाई की जाएगी।' यह आश्वासन उन्होंने संसद में दिया था। लेकिन रपट को आए कितने साल हो गए, क्या किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई? शीला दीक्षित, शहरी मामलों के मंत्री और दिल्ली के उपराज्यपाल को घोटाले का जिम्मेदार ठहराया गया था। लेकिन किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। लोकायुक्त ने 2008 के चुनाव में दिल्ली सरकार को जनता के 11 करोड़ रु. से चुनाव प्रचार पर खर्च करने का दोषी ठहराया है। दिल्ली के मंत्री राजकुमार चौहान को लोकायुक्त द्वारा भ्रष्ट ठहराए जाने के बाद भी वे सरकार में बने हुए हैं।

इसरो–देवास घोटाले में तो सरकार अंतररराष्ट्रीय न्यायालय में फंसी है।

इस घोटाले के लिए प्रधानमंत्री पूरी तरह जिम्मेदार हैं। यह ऐसा मामला है जिसमें प्रधानमंत्री के द्वारा लिए गए निर्णय की वजह से भारत अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में केस लड़ने को मजबूर हुआ है। इसमें भी कुछ लोगों को आर्थिक फायदा पहुंचाया गया था।

कोलगेट यानी कोयला घोटाला भी प्रधानमंत्री के अंतर्गत रहे कोयला विभाग में अंधेरगर्दी के कारण हुआ।

'एनडीए' सरकार की इस संबंध में जो उचित नीति थी उसके तहत यूपीए के सत्ता में आने से पहले सिर्फ 40 खदानें आवंटित की गई थीं। यूपीए ने सत्ता में आने के बाद साफ कहा कि 'अब वैश्विक कोयला बाजार बदल गया है, कोयले के दाम बहुत ऊंचे जा रहे हैं, इसे अब 'काला सोना' कहकर खरीदने की होड़ मची है, इसलिए हमें अब वैश्विक प्रतियोगी टेन्डर की राह पकड़नी होगी।' यह 2005 के आसपास की बात है। इसके बाद, 2007 में एक विधेयक बनाने की बात आई। लेकिन एक मंत्रालय ने कहा, विधेयक की जरूरत नहीं है, छोटे-मोटे संशोधन करके काम हो सकता है। दूसरे ने कहा, नहीं विधेयक लाना होगा और कुछ संशोधन भी करने होंगे, इसके बाद ड्राफ्ट बनेगा।

यानी सरकार के दो मंत्रालय ही टकरा गए?

वैश्विक प्रतियोगी टेण्डर लाए जाने को लेकर मंत्रालयों में बहस छिड़ गई थी। आखिकार विधेयक का मसौदा बना, इसमें दो साल लगे, फिर ये संसद में लाया गया। संसद से पारित होने में दो साल और लग गए।

लेकिन आवंटन उसी कानून के आधार पर टेंडर से तो नहीं हुए।

सरकार वैश्विक प्रतियोगी टेण्डर को सबसे अच्छा बता चुकी थी, तो भी पहले के नियमों पर चलते हुए सरकार ने आनन-फानन में करीब 150 कोयला खदानें आवंटित कर दीं। और ये अपने चुनिंदा लोगों को दी गईं। सार्वजनिक उद्यम कोयला चाहते थे तब भी उन्हें नजरअंदाज करके, सरकार ने उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान वगैरह की सलाह पर ध्यान दिए बिना ही कोयला खदानें गुटखा, पान मसाला बनाने वालों को दे दीं, जिन्हें कोयले से कभी कोई लेना-देना ही नहीं रहा।

इसके पीछे बड़ा हास्यास्पद सा तर्क दिया था सरकार ने।

हां, तर्क दिया था कि 'भारत बिजली की कमी झेल रहा है। हमें बिना वक्त गंवाए बिजली बनाने पर ध्यान देना है, इसलिए ये आवंटन किए गए हैं। हम कानून बनने तक का इंतजार नहीं कर सकते।' हम पूछना चाहते हैं, अगर भारत को बिजली की फौरन ही इतनी आवश्यकता थी और इसलिए आप ये खदानें इतनी जल्दी में दे रहे थे तो  क्या आपने चिंता की कि ये लोग बिजली, ढांचागत निर्माण, उर्वरक आदि उन पांच बड़े उद्यमों को देने के लिए कोयला निकाल रहे हैं कि नहीं, जिन्हें कोयला सबसे पहले दिया जाना चाहिए? सच्चाई यह है कि खदानों के लाइसेंस लेने के बाद इन 'फ्लाई बाई नाइट' संचालकों ने उन्हें बहुत ऊंचे दाम पर बेच दिया, वे मुनाफा कमाकर चंपत हो गए। इससे सरकार के हाथ कुछ नहीं आया, न कोयला ही निकाला गया, अगर निकाला जाता तो सरकार को राजस्व मिलता।  विडम्बना देखिए कि, ये खदानें राष्ट्रीय संपदा हैं, पर अब सरकार के हाथ में नहीं हैं।

प्रधानमंत्री को जवाबदेही पर क्या कहेंगी?

यह सब तब हुआ जब प्रधानमंत्री खुद कोयला मंत्रालय के प्रभारी थे। एक तरह से उन्होंने सारे आवंटनों पर नजर डाली होगी। लेकिन अजीब बात है कि, मुम्बई मिरर नाम के एक अखबार में किसी सूत्र के हवाले से लिखा गया है कि, ये आवंटन कांग्रेस अध्यक्ष के  किसी करीबी सहयोगी के निर्देशों पर किए गए थे। लेकिन अब तक इसका खंडन न प्रधानमंत्री ने किया है, न कांग्रेस ने और न ही कांग्रेस अध्यक्ष ने। इसी तथ्य के आधार पर साफ है कि प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्री के नाते खदानें ऐसे चुनिंदा लोगों को दीं जिन्हें कोयला निकालने का कोई तजुर्बा ही नहीं था।

अब कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल से तत्कालीन राज्यमंत्री दासारी नारायण राव तक 2.25 करोड़ पहुंचने का भी खुलासा हुआ है। इस पर क्या कहेंगी?

सीबीआई को इस चीज का काफी मसाला मिला है कि इसमें पैसे का लेनदेन हुआ, भ्रष्टाचार हुआ और सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों को फायदा पहुंचाया गया। हाल तक उन्होंने कोयला विभाग के सचिव से पूछताछ की अनुमति नहीं दी थी, लेकिन भाजपा के दबाव के बाद अब जाकर सरकार ने अनुमति  दी है।

इस मसले पर अदालत ने सीबीआई को जो निर्देश दिए थे, उनके बारे  में बताएं।

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को निर्देश दिए थे कि राजनीतिक आकाओं से कोई मशविरा न किया जाए। पर फिर भी वे न केवल रपट दिखाने ले गए, बल्कि पीएमओ के संयुक्त सचिव, कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव के साथ सीबीआई अधिकारी सरकार के कानूनी अधिकारियों से मिले, शपथपत्र में बदलाव करते हुए उसमें से एक महत्वपूर्ण पैरा हटा दिया, ताकि प्रधानमंत्री को साफ बचा लिया जाए।

ये अदालत की अवमानना नहीं है क्या?

ये अदालत की अवमानना है और पीएमओ इसमें सीधे-सीधे शामिल है।

पीएमओ हमेशा सवालों के घेरे में रहा है। लेकिन उसके प्रभारियों के माथे पर शिकन तक नहीं दिखती।

पीएमओ सीधे जिम्मेदार है। अदालत में तो अटार्नी जनरल और उनके सहयोगी आपस में ही एक दूसरे से यह कहते हुए भिड़ गए थे कि तुम पूरा सच नहीं बता रहे हो। यह सब मामला पीएमओ पर उंगली उठाता है और पीएमओ का कर्तत्य है कि वह देश को जवाब दे।

भाजपा की क्या मांग है?

हमारा कहना है कि राज्यमंत्री दासारी नारायण राव ने अपने बूते आवंटन नहीं किए होंगे। इसमें उस विभाग के तत्कालीन वरिष्ठ मंत्री प्रधानमंत्री की भूमिका भी होगी तो उनसे भी पूछताछ की जानी चाहिए। उन्हें इस्तीफा देना चाहिए क्योंकि जो भी फैसले लिए गए उनके लिए उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। वे तमाम निर्णयों के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं।

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