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संस्कृत की सुपरिचित विद्वान और दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुईं डा. प्रवेश सक्सेना ने वर्तमान पीढ़ी को भारत की गौरवमयी वैदिक संस्कृति और साहित्य से परिचित कराने के लिए कई सराहनीय प्रयास किए हैं। विशेष रूप से युवाओं के लिए उपयोगी तत्वों, मंत्रों को वैदिक साहित्य से चुनकर उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की है। युवाओं के लिए ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के बाद इसी श्रृंखला में हाल में ही 'युवाओं के लिए अथर्ववेद' की ऋचाओं का संकलन आया है। हम जानते हैं कि अथर्ववेद में कुल 5987 मंत्र संकलित हैं। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमें से युवाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी 120 मंत्रों का चयन करना लेखिका के लिए कितना चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा। इस बात की स्वीकारोक्ति उन्होंने अपनी भूमिका में भी की है। वह लिखती हैं, 'अथर्ववेद की विविध विषयक सामग्री के कारण प्रस्तुत संकलन के लिए मंत्र संचयन करना सरल नहीं रहा।'
बहरहाल, प्रस्तुत पुस्तक में लेखिका ने कुल 120 मंत्रों को 10 अध्यायों में विभाजित करते हुए संकलित किया है। प्रथम अध्याय 'शिक्षा-ज्ञान, शिक्षक-शिष्य काव्यादि' में शिक्षक के गुण-ज्ञान की महत्ता, शिष्य के गुण-शिष्य के कर्तव्य, इसके लिए शिष्य की कटिबद्धता समेत आचार्य-शिष्य के संबंधों पर भी मंत्र बताए गए हैं। इस अध्याय में संकलित पंद्रहवां मंत्र एक ओर शिक्षण के उद्देश्य को बताता है वहीं दूसरी ओर इसके दिशाभ्रमित होने पर समाज पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों को भी व्याख्यायित करता है। इस दृष्टि से एक श्लोक आज की शिक्षा प्रणाली को दर्पण दिखाने की तरह है। इस श्लोक 'मूर्धानमस्य…. पवतानोऽद्वपि शीर्षत:' की गहन व्याख्या करते हुए प्रवेश जी लिखती हैं; 'आदर्श शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जिसमें छात्रों की तर्क विचारशक्ति (मस्तिष्क) तो बढ़े ही, साथ-साथ हृदय के गुणों का, मानवीय मूल्यों का भी विकास हो। वैश्विक स्तर पर आदिभौतिक उन्नति के साथ, वैज्ञानिक उत्कर्ष के साथ आध्यात्मिकता का दामन भी हमें थामे रहना होगा।'
पुस्तक के चौथे अध्याय के लिए धर्म, नैतिकता, कर्मकुशलता आदि के नवें मंत्र में युवाओं को जीवन संघर्ष के लिए तैयार रहने और अनथक द्वंद्व के लिए प्रेरित करने की बात की गई है। 'उतिष्ठत् सं…………….अभित्राननु धावत' की व्याख्या करते हुए लेखिका कहती हैं कि युद्ध एक आवश्यक बुराई है। अगर टालने से भी युद्ध न टले तो फिर शत्रु को परास्त करना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यहां समझने वाली बात यह भी है कि युद्ध या संघर्ष दो तरह के होते हैं। पहला प्रत्यक्ष यानी वाह्य युद्ध, और दूसरा आंतरिक यानी अप्रत्यक्ष युद्ध। यहां युवाओं को विशेष रूप से इस बाते के लिए प्रेरित किया गया है कि वे हर तरह के संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहें। अथर्ववेद में से विशेष रूप से युवाओं के लिए चुनकर संकलित किए गए मंत्रों के ये मोती निश्चित ही मार्गदर्शक सिद्ध होंगे। यह पुस्तक न केवल युवाओं के लिए बल्कि हर आयु के लोगों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।
पुस्तक का नाम – अथर्ववेद युवाओं के लिए
लेखिका – डा. प्रवेश सक्सेना
प्रकाशक – आर्य प्रकाशन मण्डल 9/221, सरस्वती भण्डार
गांधी नगर, दिल्ली-110031
पृष्ठ – 241,
मूल्य – 425 रुपए (सजिल्द)
पत्रकारिता के बदलते मूल्य
आज हम सब अपने आस-पास पत्रकारिता और जनसंचार का जो स्वरूप देख रहे है, वह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। उपग्रह, टीवी, रेडियों और बेब पत्रकारिता- आज पत्रकारिता अपने आदि स्वरूप से बहुत आगे बढ़ गई है। 'परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्' के आदर्श उद्देश्य को लेकर आरंभ हुई पत्रकारिता आज 'मिशन, प्रोफेशन से होती हुई सेंसेशन' तक पहुंच चुकी है। पत्रकारिता के ऐसे बदले हुए दौर में आदि पत्रकार और उनकी पत्रकारिता के उद्देश्य और नीतियों को जानना रोचक ही नहीं आवश्यक भी है। 'आदि पत्रकार नारद और उनकी पत्रकारिता' के द्वारा प्राध्यापक ओम प्रकाश सिंह ने यह अवसर प्रदान किया है। इस पुस्तक में देवर्षि नारद की संक्षिप्त जीवनी के साथ ही एक पत्रकार के रूप में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को विस्तार से बताया गया है। पुराणों में वर्णित विष्णु भक्त, ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारद तीनों लोकों में विचरण किया करते थे। एक लोक की खबर दूसरे लोक तक पहुंचाने के कार्य के कारण ही उन्हें आदि पत्रकार माना गया है। ध्यान देने वाली बात यह है कि नारद मुनि खबरों का संचरण धर्म स्थापना के उद्देश्यों से भी किया करते थे। इसके द्वारा न तो उनका कोई निजी स्वार्थ होता था और न ही वे इसके जरिए तीनों लोकों में किसी प्रकार की अस्थिरता या 'सेंसेशन' फैलाना चाहते थे। आज के दौर की पत्रकारिता से तुलना करने पर ये सारे उद्देश्य 'आउट माफ डेट' लगते हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक विकास ने इसकी गति को बहुत बढ़ाया है लेकिन बाजार के दबाव के कारण नौतिक उद्देश्यों से विचलन के चलते आज के समय में पत्रकारिता से ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ ही लगता है।
कुल पांच अध्यायों में विभक्त समीक्ष्य पुस्तक के प्रथम अध्याय 'आदि पत्रकार नारद का जन्म वृतांत' में उनके जन्म से लेकर उनके द्वारा की गई अनेक महत्वपूर्ण उद्देश्यापूर्ण पत्रकारिता की सोदाहरण चर्चा की गई है। मिसाल के तौर पर नारद जी को श्रीमद भागवत कथा का विस्तारक और संचारक के साथ ही भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की जीवन कथा का वर्णन करने वाला पत्रकार भी माना गया है। 'आदि पत्रकार नारद का पत्रकारिता धर्म' शीर्षक अध्याय में कई ऐसे प्रसंगों का वर्णन है जिससे प्रमाणित होता है कि नारद जी पत्रकारिता का उद्देश्य सदैव ही धर्मस्थापना था। इसके साथ ही कई ऐसे प्रसंगों का भी इसमें वर्णन है, जो नारद जी के द्वारा की गई खोजी पत्रकारिता, अनुसंधान वाली पत्रकारिता, पर्यावरण के प्रति जागरूक पत्रकारिता और लोकहित पत्रकारिता के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में देखा जाए तो नारद जी संपूर्ण पत्रकारिता का मूल स्वरूप ही धार्मिक-आध्यात्मिक पत्रकारिता था। हालांकि आज के दौर में ऐसी पत्रकारिता की अपेक्षा करना या पत्रकारों के हमेशा धर्म व सत्य के मार्ग पर चलने की उम्मीद करना दिवास्वप्न जैसा है। बावजूद इसके नारद जी और उनके माध्यम से जरिए आदि पत्रकारिता के स्वरूप को पढ़ना, जानना, पत्रकारिता के छात्रों और उससे जुड़े लोगों के लिए रोचक और आवश्यक भी है।
पुस्तक का नाम – आदि पत्रकार नारद
और उनकी पत्रकारिता
लेखक – डा. ओमप्रकाश सिंह
प्रकाशक – क्लासिकल पब्लिशिंग हाउस
28, शांपिंग सेंटर, कर्मपुरा,नई दिल्ली-15
मूल्य – 500 रुपए (पुस्तकालय संस्करण)
250 रुपए (विद्यार्थी संस्करण)
पृष्ठ – 240
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