नवाज आए, मीडिया ने अलापा 'राग कश्मीरी'
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5 जून को आखिरकार नवाज शरीफ ने तीसरी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल ली। नवाज खांटी पंजाबी माने जाते हैं। अभी पाकिस्तान के लाहौर शहर के मॉडल टाउन इलाके में रहकर ही उन्होंने पूरी चुनावी जंग चलाई थी। दिलचस्प बात यह है कि चुनावों के दौरान न नवाज ने, न उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने कश्मीर मसले पर कोई टीका-टिप्पणी की थी, न इस मुद्दे पर कोई वादा वगैरह किया था। जबकि सब जानते हैं पाकिस्तान की सियासी तकरीरें कश्मीर के गिर्द ही मंडराती हैं। अब जबकि नवाज ने कमान संभाल ली है, तो यकायक कश्मीर की गूंज सुनाई देने लगी है। हालांकि यह गूंज अभी मद्धम है, पर कब तेज हो जाएगी, कोई नहीं कह सकता।
मीडिया के तत्व सक्रिय हो गए हैं, उस पार के भी और यहां के भी। अखबारों में रपटें छापी जा रही हैं कि कैसे नवाज और उनके इर्द-गिर्द बनी नई टीम के खासमखासों की जड़ें कश्मीर में हैं। नई सरकार 'कश्मीरियों' को खास ओहदों पर बैठाने जा रही है। ऐसी 'जानकारी' की शुरुआत खुद नवाज शरीफ से की जा रही है। बताया जा रहा है कि नवाज उस कुनबे से हैं जो पिछली सदी की शुरुआत में दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले से अमृतसर (भारत) जा बसा था। उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के आला नेता इश्हाक और नवाज के सिपहसालार ख्वाजा आसिफ की जड़ें भी कश्मीर में हैं। दोनों को नई सरकार में बड़ा ऊंचा ओहदा मिलने की चर्चा जोरों पर है। नवाज की जुबानी मीडिया छाप रहा है कि-'मेरे अब्बू हमेशा कहा करते थे कि हम अनंतनाग से हैं। कारोबार करने को हम अमृतसर जा बसे थे। अम्मी-अब्बू अक्सर कश्मीर के बारे में बात करते थे। हमेशा से मेरा वहां जाने का मन करता था।' अमृतसर के जती उमरा गांव से नवाज का परिवार लाहौर चला गया जहां कारोबार में बेतहाशा तरक्की हुई। बाद में नवाज राजनीति से जुड़ गए। इश्हाक भी कश्मीरी हैं। नवाज के समधी इश्हाक का पाकिस्तान का अगला वित्त मंत्री बनना तय है। 1999 में मुशर्रफ के कुर्सी छीन लेने से पहले भी वे वित्त मंत्री ही थे। 64 साल के ख्वाजा आसिफ भी कश्मीर से सियालकोट जा बसे थे। 1981 में मुल्क के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे उनके पिता ख्वाजा मोहम्मद सफदर ने पाकिस्तान के गठन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था।
मुद्दा यह है कि कश्मीर पर अब तक चुप्पी ओढ़े रखने वाले नवाज अचानक अपनी जड़ों को क्यों याद कर रहे हैं या उनसे याद करवाया जा रहा है? मीडिया के जरिए हवा सी बनवाई जा रही है ताकि कुछ दिनों पहले भारत को लेकर दोस्ताना बातें करने वाले नवाज कहीं बहक न जाएं और कश्मीर पर पाकिस्तानी हुक्मरानों के अब तक के 'किए-धरे' को भुला न दें।
आतंक से जुड़ी सूचनाएं देगा नेपाल
अभी 1 जून को भारत के गृह सचिव आर.के. सिंह काठमांडू में थे। वहां उन्होंने नेपाल के गृह सचिव नवीन कुमार घिमिरे से दिन भर लंबी बात की। कई अहम मसले उठे और उन पर, सिंह की मानें तो, बड़े काम की बातें हुईं। इस मौके पर नेपाल में भारत के राजदूत जयंत प्रसाद भी मौजूद थे। बातचीत में आए अहम मसलों में सीमा प्रबंधन, सुरक्षा और सीमा के दोनों तरफ रहने वालों को पेश आने वाली दिक्कतें शामिल थीं। दोनों पक्षों ने मानव और मादक पदार्थों की तस्करी, भारत की जाली मुद्रा की तस्करी और गैरकानूनी चीजों के कारोबार से निपटने की हामी भरी। भारत तो पहले से ही नेपाल के रास्ते भारत में घुसपैठ का मामला उठा चुका है।
बताते हैं, सिंह ने आपसी सहयोग जारी रखने की भारत की प्रतिबद्धता दोहराई। वैसे सिंह उसी सरकार के नुमाइंदे के तौर पर वहां गए थे जिसने नेपाल क्या, तमाम पड़ोसी देशों के प्रति एक बेपरवाह रवैया अपनाया हुआ है, और जिसकी बदौलत नेपाल में चीन को दखल देने की गुंजाइश दिखाई दी और वहां के माओवादियों ने भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी के सदियों पुराने रिश्तों को पलीता लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बहरहाल, बैठक में अहम बात यह हुई कि दोनों पक्ष आतंकवाद से निपटने के लिए सूचनाओं को साझा करने को राजी हो गए। यह बात छुपी नहीं है कि पाकिस्तानी आईएसआई ने अपने भाड़े के जिहादियों को बरास्ते नेपाल भारत में दाखिल कराने का रास्ता बना लिया है। भारत के सरहदी इलाकों में जिहादी-अलगाववादी तत्व वहीं से आकर सक्रिय हो जाते हैं। नेपाल में सालों से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता उन्हें सुभीता माहौल दे रही है। आईएसआई नहीं चाहेगी कि वहां कभी कोई मजबूत और स्थिर शासन आए और उसको फिलहाल मिली खुली 'छूट' पर आंच आए। लेकिन अगर नेपाल आतंक से जुड़ी सूचनाएं ईमानदारी के साथ भारत को देता है तो यह एक बड़ी बात होगी और तब भारत की मुस्तैदी कसौटी पर होगी कि वह कितनी जल्दी उस रास्ते से हो रहीं भारत विरोधी गतिविधियों पर लगाम लगाता है।
मोंसांटो के खिलाफ बढ़ी लामबंदी
25 मई को अमरीका और दूसरे 52 देशों में संकरित बीज कंपनी मोंसांटो के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन हुए। कुल मिलाकर दुनिया के 250 बड़े देशों में लाखों लोगों ने एकजुट होकर जमीन को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत और पर्यावरण से खिलवाड़ करने वाली इस कंपनी पर लगाम लगाने की मांग की। 'मोंसांटो के खिलाफ मार्च' के झण्डे तले हुए इन प्रदर्शनों ने इस बात को मुखर करने और लोगों को आगाह करने की कोशिश की कि जीन प्रसंस्करित खाद्य इंसानी सेहत पर घातक असर डालते हैं। इन प्रदर्शनों की ही वजह से मोंसांटो पर ऐसा जबरदस्त दबाव पड़ा है कि पश्चिमी यूरोप के ज्यादातर हिस्सों में इस कंपनी ने नए प्लांट खोलने के लाइसेंस हासिल करने की कोशिशें रोक दी हैं। इसके बनाए जीएम बीजों के इन इलाके के खेतों में नए प्रयोगों पर भी गाज गिरेगी। जनवरी 2013 में यूरोपीय संघ के 8 देशों ने जीएम फसलें उगाने पर पाबंदी लगा दी थी। जबकि कंपनी ने अमरीका के नेताओं को अपने पाले में करने के लिए पिछले साल 60 लाख डालर खर्च किए थे। शायद यही वजह है कि अमरीका में कंपनी के पैर जमते जा रहे हैं।
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