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इंस्टीट्यूट ऑफ कन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक डॉ. अजय साहनी का कहना है
विकास से पहले वहां आम लोगों को सुरक्षा तो दो
आतंकवाद, उग्रवाद का गहन अध्ययन विश्लेषण करके उनके प्रतिकार की रणनीति तैयार करने में इंस्टीट्यूट ऑफ कन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक डॉ. अजय साहनी का पूरे दक्षिण एशियाई देशों में अच्छा-खासा नाम है। इस्लामी जिहाद, नक्सलवाद-माओवाद, भारत के पूर्वोत्तर में उग्रवाद वगैरह पर डॉ. साहनी ने बहुत शोध किया है और कई किताबें लिखी हैं। छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा और उससे निपटने की रणनीति के संदर्भ में आलोक गोस्वामी ने उनसे विस्तृत बातचीत की, जिसके संपादित अंश यहां प्रकाशित किए जा रहे हैं।
l कन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के अंतर्गत आप किस तरह के काम करते हैं?
r हमारा बुनियादी काम आतंकवाद और उग्रवाद पर शोध करना या कहें आतंकवाद-निरोधी और उग्रवाद-निरोधी शोध करना है। हम कुछ एजेंसियों या विभागों के सलाहकार के तौर पर काम करते हैं। इसके अलावा हम पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में, बड़े संघर्षों या युद्धों के संदर्भ में विभिन्न देशों से जुड़े तथ्यों, चलन, विकल्पों, रणनीतियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते हैं।
l अभी दरभा में हुए माओवादी हमले पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
r जितने भी बड़े हमले हुए हैं, वे एक के बाद एक चूकों की वजह से ही हुए हैं। जो सावधानियां ली जानी चाहिए थीं, वे नहीं ली गईं। अभी दरभा में जो हुआ, साफ कहूं तो, मुझे उस पर जरा भी हैरानी नहीं हुई। हमारे सुरक्षाबलों के हालात, क्षमता, गुप्तचरी की कमी को देखते हुए ऐसी घटनाओं का घटना वैसा आश्चर्य नहीं पैदा करता।
इस घटना की दूसरी बात, जिसने मुझ पर असर डाला, वह यह है कि माओवादी जेड श्रेणी की सुरक्षा पाए महेन्द्र कर्मा को मारने में कामयाब हो गए! मेरे हिसाब से भारत राज्य के लिए यह बेहद आहत करने वाली चीज है। आज लोग इस बहस में उलझे हैं कि कर्मा ने सलवा जुडूम शुरू करके ठीक किया या गलत किया। मैं सबसे पहले यह साफ कर दूं कि हमने शुरू से सलवा जुडूम की आलोचना की थी। यह अभियान मई-जून 2005 में शुरू किया गया था और अगस्त 2005 में ही हमने लिखा था कि इस अभियान के बहुत विपरीत नतीजे निकलने वाले हैं, इसलिए इसे रोक देना चाहिए। बहरहाल, वह हमारा मत था। लेकिन कर्मा को कड़ी सुरक्षा मिल गई थी। पर जब इतनी सुरक्षा प्राप्त कोई नेता मारा जाए तो (माओवादियों के नजरिए से) उसके दो संदेश जाते हैं। एक, राज्य उन लोगों को बचा नहीं सकता जो उसके साथ खड़े हैं। दूसरे, यह घटना उन इलाकों में रहने वालों को खबरदार करती है कि अगर माओवादी कुछ ठान लेते हैं तो उसे करके
रहते हैं।
l लेकिन लोगों का मानना है और रपटें हैं कि सलवा जुडूम काफी हद तक सफल रहा था। कम से कम माओवादियों से लोहा लेने वाली एक ताकत तो थी।
r नहीं, कोई ताकत नहीं थी। यह अभियान राज्य द्वारा अपनी तमाम जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने जैसा था। गरीब, अनपढ़ और सुरक्षा रहित नागरिकों को शस्त्र देकर मोर्चे पर सबसे आगे नहीं झोंक दिया जाता और खुद बेहतर शस्त्रों, बेहतर प्रशिक्षण और संविधान के तहत मिली जिम्मेदारी के साथ पीछे नहीं खड़ा हुआ जाता। मैं लोगों को संगठित करने और पीएसओ बनाने का विरोध नहीं करता, लेकिन ये सहायक बल होता है, दूसरी पंक्ति का बल। ये आपका अग्रिम बल नहीं हो सकता। मैं तो कहूंगा इन लोगों को अग्रिम बल बनाना कायरता ही थी और इसे गठित करना अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना था। राज्य के दुश्मनों से लड़ना आम लोगों का नहीं बल्कि राज्य और उसकी एजेंसियों का काम है। अगर आम नागरिकों को आगे करके आपको कोई फायदा पहंुचता है तो भी यह
गलत है।
l तो आप माओवादियों के इस तर्क को मानते हैं कि दरभा की घटना सलवा जुडूम और उसको शुरू करने वालों के खिलाफ प्रतिक्रिया थी?
r माओवादियों ने सलवा जुडूम को वनवासी इलाकों में अपने लोकप्रिय आधार के लिए खतरे के तौर पर और महेंद्र कर्मा को अपने प्रमुख शत्रु के तौर पर देखा।
l आप उन्हें माओवादी मानते हैं या वे कोरे हत्यारे हैं? उनकी कोई विचारधारा है क्या?
r वे बड़ी पक्की विचारधारा पर चलते हैं जिसका एक हिस्सा है हिंसा। माओ ने तो कहा था- 'सत्ता का रास्ता बंदूक की नाल से होकर जाता है।' तो फर्क कहां है? वे 'जनयुद्ध' कर रहे हैं इसलिए उनका विचारधारा से कोई विरोधाभास नहीं है।
l इस्लामी जिहाद और माओवादी हिंसा में आप किसे ज्यादा घातक मानते हैं? भारत के लिए कौन ज्यादा बड़ा खतरा है?
r एक समय था जब इस्लामी जिहादी ज्यादा नुकसान पहंुचा रहे थे, अब माओवादी ज्यादा गंभीर चोट कर रहे हैं। इस वक्त तो माओवादी ज्यादा लोगों को मार रहे हैं, ज्यादा बड़े इलाके मैं फैले हैं, ज्यादा बड़े इलाके में सरकार को बेअसर कर रहे हैं। लेकिन हां, दोनों विचारधाराएं चरम हिंसा को सही ठहराती हैं। माओवादी हिंसा के मुकाबले इस्लामी हिंसा बिना सोचे अंधाधुंध कहर बरपाती है। माओवादी अंधाधुंध हिंसा नहीं मचाते। वे अपने निशाने चुन-चुनकर मारते हैं।
l माओवादियों से निपटने का क्या तरीका होना चाहिए?
r इन लोगों से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है कि राज्य में यह काबिलियत लाई जाए जिससे यह भारत की जमीन पर हर जगह कानून का शासन लागू कर सके। आप यह कहकर बच नहीं सकते कि अरे, ये इलाके तो पहंुच से दूर हैं। सरकारी अफसर कहते हैं, 'अबूझमाड़ के इलाके में जाना बड़ा मुश्किल है!' मुश्किल है? कैसे? माओवादी वहां रह रहे हैं। देश में ऐसा कोई हिस्सा नहीं रहना चाहिए जहां के लिए यह कहा जाए कि 'अरे, वहां जाना तो मुश्किल है।' हम वहां नहीं जाएंगे तो कोई और जाएगा। मैं साफ कर दूं कि माओवादी कोई बहुत बड़ी ताकत नहीं हैं। सरकारों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग 'लिबरेटिड' इलाकों के बारे में फालतू की बात करते हैं कि यहां 40 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका 'लिबरेटिड' है। यह कोरी बकवास है। भारत में आज एक इंच जमीन भी 'लिबरेटिड' नहीं है। इस देश में सबसे बड़ी समस्या है कि वे लोग कायर हैं जिन्हें राज्य के प्रशासन और सुरक्षा की जिम्मेदारी मिली हुई है। आप लोगों को उन कठिन परिस्थितियों में माओवादियों के भरोसे छोड़ते हैं और फिर कहते हैं लोग माओवादियों के पीछे जा रहे हैं। अरे, वे माओवादियों की ताकत की वजह से उनके पीछे नहीं जाते। वैसे देश में हर जगह लोग किसी न किसी के पीछे जाते दिखते हैं। लोग नस्लीय उग्रवादियों के पीछे जाते दिख जाएंगे, कहीं इस्लामी उग्रवादियों के पीछे होंगे, कहीं स्थानीय बाहुबलि के पीछे होंगे जो आगे विधायक या सांसद बन जाता है।
अगर आप कानून का शासन नहीं लागू कर रहे हैं और लोगों को बुनियादी प्रशासन उपलब्ध नहीं करा रहे हैं तो कानून सम्मत शासन की परिधि से बाहर का कोई दमदार ढांचा खड़ा हो जाएगा। माओवादियों के मामले में यही हुआ है। सबसे पहले जरूरी है देश के हर हिस्से में सुरक्षा मजबूत करना, क्योंकि सब चीजों से पहले सुरक्षा होती है। कहने का अर्थ यह नहीं कि इन इलाकों में विकास मत करो। विकास होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता यह है कि अगर आप, आपके शिक्षक, स्वास्थ्यकर्मी वगैरह उन इलाकों में जा ही न पाएं तो विकास की बात करना लोगों को झांसा देना ही है।
l लेकिन विकास भी तो जरूरी है।
rÊVÉxÉ इलाकों में नक्सली नहीं हैं वहां का विकास तो होता नहीं है। भारत की राजधानी है दिल्ली, यहां कई जगहों पर लोग ऐसे हालात में रह रहे हैं कि जिनमें आज की सदी में कोई भी सभ्य इंसान रहता नहीं दिखना चाहिए। लोग बस्तर के विकास की बात करते हैं और उसमें भी उन जगहों की जो माओवादियों के बहुत ज्यादा प्रभाव में हैं। यह वस्तुस्थिति को गलत तरह पेश करना है। आपको पहले हर आदमी को सुरक्षा प्रदान करनी होगी। अगर आपने ऐसा कर दिया तो माओवादियों में भर्ती होने वाले 10 में से 9 लोग घट जाएंगे। माओवादी उन्हें पैसा, खाना देते हैं और साथ में बंदूक देते हैं। उनके पास चारा क्या बचता है? ऐसे हालात बनें कि कोई उनके गांव में घुसकर धमकाए न। ऐसी स्थिति बनी तो यह पूरा माओवादी तंत्र ढह जाएगा। लोगों को जब लगने लगेगा कि सरकार उनके साथ खड़ी है, पुलिस उनके साथ है, शिकायत करने को उनके यहां थाना है तो फिर वे माओवादियों के चंगुल में नहीं फसेंगे।
l रणनीति क्या होनी चाहिए?
r रणनीति बनाने के लिए चाहिए खतरे का तथ्यपरक आकलन, उससे जूझने के लिए जरूरी संसाधनों का तथ्यपरक आकलन, उन संसाधनों को हासिल करना और फिर उनकी रणनीतिक तैनाती करना।
2009 में केन्द्र सरकार ने एक 'बहुत बड़ा और समन्वित आपरेशन' चलाने की बात की थी। जानते हैं, पूरे माओवादी इलाके में कितने केन्द्रीय सुरक्षाकर्मी लगाए गए थे? कुल 28000 जवान। यह होता है 'बहुत बड़ा और विशाल आपरेशन'? सरकार के होश कहां हैं? अकेली बस्तर डिवीजन ही 40 हजार वर्ग किलोमीटर है। अगर पूरे लाल गलियारे को देखें तो यह 880 हजार वर्ग किलोमीटर है, आधा अरब की आबादी है। सरकार 28000 जवानों के दम पर इसे 'बहुत विशाल आपरेशन' कहने की हिमाकत करती है! विडम्बना है कि सरकार में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की कोई जवाबदेही ही नहीं है। भारत में राजनीतिक और नौकरशाह लोगों की यही असलियत बन गई है। वे किसी चूक के लिए जवाबदेह नहीं हैं। चिंतलनाड की कीमत कौन चुकाता है? दरभा की कीमत कौन चुकाता है? निर्दोष लोग। सरकार तो बस दो- चार अफसरों की यहां से वहां बदली कर देती है, बस।
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