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अब हमें विचार करना चाहिए कि जिस धर्म में हमने जन्म लिया है, उसमें सहमत होने के लिए समान भूमि क्या है? ऊपर से विचार करने पर हमें पता चलता है कि हमारे धर्म में नाना प्रकार के मत हैं। कुछ लोग अद्वैतवादी, कुछ विशिष्टाद्वैतवादी और कुछ द्वैतवादी हैं। कोई अवतार मानते हैं, कोई मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं तो कोई निराकारवादी हैं। आचार के सम्बंध में भी नाना प्रकार की भिन्नताएं दिखाई पड़ती है। किन्तु इन सभी भिन्नताओं के बावजूद एक विषय में सभी में एकता है और वह यह कि कोई भी हिन्दू गोमांस-भक्षण नहीं करता। इसी प्रकार हमारे धर्म के बहुविध पंथों और सम्प्रदायों में भी एकता की एक समान भूमि है।
पहले तो शास्त्रों की आलोचना करते समय एक महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आता है कि केवल उन्हीं मत-पंथों ने उत्तरोत्तर उन्नति की, जिनके पास अपने एक या अनेक शास्त्र थे, फिर चाहे उन पर कितने ही अत्याचार किए गए हों। यूनानी पंथ अपनी विशिष्ट सुन्दरताओं के होते हुए भी शास्त्र के अभाव में लुप्त हो गया, जबकि यहूदी पंथ अपने आदि धर्मग्रन्थ के बल पर आज भी अक्षुण्ण रूप में प्रभावशाली है। संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद पर आधारित होने के कारण यही हाल हिन्दू धर्म का भी है। वेद के दो भाग है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। भारतवर्ष के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से कर्मकाण्ड का आजकल लोप हो गया है, हालांकि दक्षिण में अब भी कुछ ब्राह्मण कभी-कभी अजा-बलि देकर यज्ञ करते हैं, और हमारे विवाह-श्राद्धादि के मंत्रों में भी वैदिक क्रियाकाण्ड का आभास दिखाई पड़ जाता है। इस समय उसे पूर्व की भांति पुन: प्रतिष्ठित करने का उपाय नहीं है। कुमारिल भट्ट ने एक बार चेष्ठा की थी, किन्तु वे अपने प्रयत्न में असफल ही रहे। इसके बाद ज्ञानकाण्ड है, जिसे उपनिषद्, वेदान्त या श्रुति भी कहते हैं। आचार्य लोग जब कभी श्रुति का कोई वाक्य उद्धृत करते हैं तो वह उपनिषद् का ही होता है। यही वेदान्त धर्म इस समय हिन्दुओं का धर्म है। यदि कोई सम्प्रदाय सिद्धान्तों की दृढ़ प्रतिष्ठा करना चाहता है तो उसे वेदान्त का ही आधार लेना होगा। द्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी सभी को उसी आधार की शरण लेनी होगी।
वेदों के सम्बंध में हिन्दुओं की यह धारणा है कि वे प्राचीन काल के किसी व्यक्तिविशेष की रचना अथवा ग्रन्थ मात्र नहीं हैं। वे उसे ईश्वर की अनन्त ज्ञानराशि मानते हैं जो किसी समय व्यक्त और किसी समय अव्यक्त रहती है। वेद के रचियता को कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए इसकी कल्पना करना भी असम्भव है। ऋषि लोग उन मंत्रों अथवा शाश्वत नियमों के मात्र अनवेषक थे। उन्होंने आदि काल से स्थित ज्ञानराशि वेदों का साक्षात्कार किया था।
वेदों के सम्बंध में पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धान्तों में मेरा विश्वास नहीं है। आज वेदों का समय वे कुछ निश्चित करते हैं और कल उसे बदलकर फिर एक हजार वर्ष पीछे घसीट ले जाते हैं। पुराणों के विषय में हम कह आए हैं कि वे वहीं तक ग्राह्य हैं, जहां तक वेदों का समर्थन करते हैं। पुराणों में ऐसी अनेक बातें है जिनका वेदों के साथ मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए पुराण में लिखा है कि कोई व्यक्ति दस हजार वर्ष तक और कोई दूसरा बीच हजार वर्ष तक जीवित रहें' किन्तु वेदों में लिखा है- 'शतायुर्वे पुरुष:'। इनमें से हमारे लिए कौन सा मत स्वीकार्य है? निश्चय ही वेद। इस प्रकार के कथनों के बावजूद मैं पुराणों की निन्दा नहीं करता। उनमें योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म की अनेक सुन्दर-सुन्दर बातें देखने में आती हैं, और हमें उन सभी को ग्रहण करना ही चाहिए। अब हमें अपने धर्म के सिद्धान्तों पर भी थोड़ा विचार करना चाहिए। हमारे धर्म के सम्प्रदायों में अनेक विभिन्नताएं एवं अन्तर्विरोध होते हुए भी एकता के अनेक सूत्र हैं. प्रथम, सभी सम्प्रदाय तीन चीजों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं- ईश्वर, आत्मा और जगत।
यहां पर यह स्मरण रखना चाहिए कि चिरकाल से हिन्दू आत्मा को मन से पृथक मानते आ रहे हैं। पाश्चात्य विद्वान मन के परे किसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते। वे लोग जगत को आनन्दपूर्ण मानते हैं और इसीलिए उसे मौज मारने की जगह समझते हैं। जबकि प्राच्य लोगों की जन्म से ही यह धारणा होती है कि यह संसार नित्य परिवर्तनशील तथा दु:खपूर्ण है। और इसीलिए यह मिथ्या के सिवा कुछ नहीं है और न ही इसके क्षणिक सुखों के लिए आत्मा का धन गंवाया जा सकता है। इसी कारण पाश्चात्य लोग संघबंध कर्म में विशेष पटु हैं और प्राच्य लोग अन्तर्जगत के अन्वेषण में ही विशेष साहस दिखाते हैं।
जो कुछ भी हो, यहां अब हमें हिन्दू धर्म की दो-एक और बातों पर विचार करना आवश्यक है। हिन्दुओं में अवतारवाद प्रचलित है। वेदों में हमें केवल मत्स्यावतार का ही उल्लेख मिलता है। सभी लोग इस पर विश्वास करते हैं या नहीं, यह कोई विचारणीय विषय नहीं है। पर इस अवतारवाद का वास्तविक अर्थ है मनुष्य-पूजा-मनुष्य के भीतर ईश्वर को साक्षात करना ही ईश्वर का वास्तविक साक्षात्कार करना है। हिन्दू प्रकृति के द्वारा प्रकृति के ईश्वर तक नहीं पहुंचते-मनुष्य के द्वारा मनुष्य के ईश्वर के निकट जाते हैं।
हमारे देश के सुधारक एक स्वतंत्र सम्प्रदाय का संगठन करना चाहते हैं। तो भी उन्होंने बड़ा कार्य किया है। ईश्वर के आशीर्वादों की उनके ऊपर वर्षा हो। किन्तु तुम लोग अपने को क्यों महान समुदाय से पृथक करना चाहते हो? हिन्दू नाम लेने ही से क्यों लज्जित होते हो-जो कि तुम लोगों की महान और गौरवपूर्ण सम्पत्ति है? ओ अमरपुत्रों, मेरे देशवासियों, यह हमारा जातीय जहाज युगों तक मुसाफिरों को ले आता, ले जाता रहा है और इसने अपनी अतुलनीय सम्पदा से संसार को समृद्ध बनाया है। अनेक गौरवपूर्ण शताब्दियों तक हमारा यह जहाज जीवन सागर में चलता रहा है और करोड़ों आत्माओं को उसने दु:ख संसार के उस पार पहुंचाया है। आज शायद इसमें एक छेद हो गया हो और इससे वह क्षत हो गया हो, यह चाहे तुम्हारी अपनी गलती से या चाहे किसी और कारण से। तुम जो इस जहाज पर चढ़े हुए हो, अब क्या करोगे? क्या तुम दुर्वचन कहते हुए आपस में झगड़ोगे? क्या तुम सब मिलकर उस छेद को बन्द करने की पूर्ण चेष्टा नहीं करोगे? हम सब लोगों को प्रसन्नता से अपने हृदय का रक्त देकर यह कार्य करना चाहिए। अगर हम यह न कर सकें तो हम एक संग डूब मरें, किन्तु हमारे ओठों पर निन्दा शाप नहीं, कृतज्ञता के शब्द हों!
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