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धर्म नहीं तो कुछ नहीं

by
May 18, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 May 2013 13:26:25

मेरी बात पर ध्यान दो, केवल तभी तुम वास्तव में हिन्दू कहलाने योग्य होगे, जब 'हिन्दू' शब्द को सुनते ही तुम्हारे अन्दर बिजली दौड़ने लग जाएगी। केवल तभी तुम सच्चे हिन्दू कहला सकोगे, जब तुम किसी भी प्रान्त के, कोई भी भाषा बोलने वाले प्रत्येक हिन्दू-संज्ञक व्यक्ति को एकदम अपना सगा और स्नेही समझने लगोगे। केवल तभी तुम सच्चे हिन्दू माने जाओगे, जब किसी भी हिन्दू कहलाने वाले का दु:ख तुम्हारे हृदय में तीर की तरह आकर चूभेगा, मानो तुम्हारा अपना लड़का ही विपत्ति में पड़ गया हो! केवल तभी तुम यथार्थत: 'हिन्दू' नाम के योग्य होगे, जब तुम उनके लिए समस्त अत्याचार और उत्पीड़न सहने के लिए तैयार रहोगे। इसके ज्वलंत दृष्टान्त है-गुरु गोविन्द सिंह, इस महात्मा ने देश के शत्रुओं के विरुद्ध लोहा लिया, हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने हृदय का रक्त बहाया, अपने पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा-पर जिनके लिए इन्होंने अपना और और अपने प्राणों से बढ़कर प्यारे पुत्रों का खून बहाया, उन्हीं लोगों ने, इनकी सहायता करना तो दूर रहा, उल्टे इन्हें त्याग दिया! यहां तक कि उन्हें प्रदेश से भी हटना पड़ा। अन्त में मर्मांन्तक चोट खाये हुए सिंह की भांति यह नरकेसरी शान्तिपूर्वक अपने जन्म-स्थान को छोड़ दक्षिण भारत में जाकर मृत्यु की राह देखने लगा, परन्तु अपने जीवन के अन्तिम मुहूर्त तक उसने अपने उन कृतघ्न देशवासियों के प्रति कभी अभिशाप का एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला। मेरी बात पर ध्यान दो। यदि तुम देश की भलाई करना चाहते हो तो तुममें से प्रत्येक को गुरु गोविन्द सिंह बनना पड़ेगा। तुम्हें अपने देशवासियों में भले ही हजारों दोष दिखाई दें, पर तुम उनकी रग-रग में बहने वाले हिन्दू रक्त की ओर ध्यान दो। तुम्हें पहले अपने इन स्वजातीय नर-रूप देवताओं की पूजा करनी होगी, भले ही वे तुम्हारी बुराई के लिए लाख चेष्टा किया करें। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति यदि तुम पर अभिशाप और निन्दा की बौछार करे तो भी तुम इनके प्रति प्रेमपूर्ण वाणी का ही प्रयोग करो। यदि ये तुम्हें त्याग दें, पैरों से ठुकरा दें तो तुम उसी वीर केसरी गोविन्द सिंह की भांति समाज से दूर जाकर नीरव भाव से मौत की राह देखो। जो ऐसा कर सकता है, वही सच्चा हिन्दू कहलाने का अधिकारी है।

लोग भारत के पुनरुद्धार के लिए जो जी में आए, कहें। मैं जीवन भर काम करता रहा हूं, कम से कम काम करने का प्रयत्न करता रहा हूं, मैं अपने अनुभव के बल पर तुमसे कहता हूं कि जब तक तुम सच्चे अर्थों में धार्मिक नहीं होते, तब तक भारत का उद्धार होना असम्भव है। केवल भारत ही क्यों, सारे संसार का कल्याण इसी पर निर्भर है।

उतावले मत बनो, किसी दूसरे का अनुकरण करने की चेष्टा मत करो। दूसरे का अनुकरण करना सभ्यता की निशानी नहीं है, यह एक महान पाठ है, जो हमें याद रखना है। मैं यदि आप ही राजा की सी पोशाक पहन लूं तो क्या इतने ही से मैं राजा बन जाऊंगा? शेर की खाल ओढ़कर गधा कभी शेर नहीं बन सकता। अनुकरण करना, हीन और डरपोक की तरह अनुकरण करना कभी उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ा सकता।

भाइयो, आत्मविश्वासी बनो! पूवर्जों के नाम से अपने को लज्जित नहीं, गौरवान्वित समझो। मनुष्य जब अपने पूर्वजों को मानने में लज्जित होता है तो समझ लो कि उसका विनाश निकट है। यद्यपि मैं हिन्दू जाति का एक नगण्य व्यक्ति हूं, तथापि अपनी जाति और अपने पूर्वजों के गौरव में मैं अपना गौरव मानता हूं। अपने को हिन्दू बताते हुए, हिन्दू कहकर अपना परचिय देते हुए, मुझे एक प्रकार का गर्व सा होता है। मैं तुम लोगों का एक तुच्छ सेवक होने में अपना गौरव समझता हूं।

याद रहे, किसी का अनुकरण कदापि न करो। कदापि नहीं। जब कभी तुम औरों के विचारों का अनुकरण करते हो, तुम अपनी स्वाधीनता गंवा बैठते हो। यहां तक कि आध्यात्मिक विषय में भी यदि दूसरों के आज्ञाधीन हो कार्य करोगे, तो अपनी सारी शक्ति, यहां तक कि विचार की शक्ति भी खो बैठोगे। अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा अपने अन्दर की शक्तियों का विकास करो। पर देखों, दूसरे का अनुकरण न करो। हां, दूसरों के पास जो कुछ अच्छाई हो, उसे अवश्य ग्रहण करो।

चाण्डाल से भी श्रेष्ठ धर्म की शिक्षा ग्रहण करो।' औरों के पास जो कुछ भी अच्छा पाओ, सीख लो, पर उसे अपने भाव के सांचे में ढालकर लेना होगा। दूसरे से शिक्षा ग्रहण करते समय उसके ऐसे अनुगामी न बनो कि अपनी स्वतंत्रता गंवा बैठो। भारत के इस जातीय जीवन को भूल मत जाना। पल भर के लिए भी ऐसा न सोचना कि भारतवर्ष के सभी अधिवासी यदि अमुक जाति की वेश-भूषा धारण कर लेते या अमुक जाति के आचार-व्यवहारादि के अनुयायी बन जाते तो बड़ा अच्छा होता। यह तो तुम भलीभांति जानते हो कि कुछ ही वर्षों का अभ्यास छोड़ देना कितना कठिन होता है!       फिर यह ईश्वर ही जानता है कि तुम्हारे रक्त में कितने सहस्र वर्षों का संस्कार जमा हुआ है, कितने सहस्र वर्षों से यह प्रबल जातीय जीवन-स्रोत एक विशेष दिशा की ओर प्रवाहित हो रहा है। और क्या तुम यह समझते हो कि वह प्रबल धारा, जो प्राय: अपने समुद्र के समीप पहुंच चुकी है, पुन: उलटकर हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर वापस जा सकती है? यह असम्भव है! यदि ऐसा चेष्टा करोगे तो जाति ही नष्ट हो जाएगी। अत: इस जातीय जीवन-स्रोत को पूर्ववत प्रवाहित होने दो।

भारत में धर्म बहुत दिनों से गतिहीन बना हुआ है। हम चाहते हैं कि उसमें गति उत्पन्न हो। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में धर्म प्रतिष्ठित हो। मैं चाहता हूं कि प्राचीन काल की तरह राजमहल से लेकर दरिद्र के झोपड़े तक सर्वत्र समान भाव से धर्म का प्रवेश हो। याद रहे, धर्म ही इस जाति का साधारण उत्तराधिकार एवं जन्मसिद्ध स्वत्व है। इस धर्म को हर एक आदमी के दरवाजे तक नि:स्वार्थ भाव से पहुंचाना होगा। ईश्वर के राज्य में जिस प्रकार वायु सबके लिए समान रूप से प्राप्त होती है, उसी प्रकार भारतवर्ष में धर्म को सुलभ बनाना होगा। भारत में इसी प्रकार का कार्य करना होगा। साभार : युवकों के प्रति पृष्ठ  206

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