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जिहादी धमकियों के साए में रक्तरंजित चुनावों के जरिए पाकिस्तान ने दुनिया के सामने खुद को एक 'लोकतंत्र' भले साबित कर दिया हो, लेकिन वहां के जर्जर सियासी माहौल को जानने वाले जानते हैं कि 'लोकप्रिय' सरकार का आधार किसी ठोस बुनियाद पर कभी नहीं टिका। ऐसे में, अपनी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग–नवाज को वोटों की गिनती में शुरुआती बढ़त मिलते ही फौजी तख्ता पलट में अपदस्थ किए गए पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत–पाकिस्तान 'दोस्ती' के फरवरी 1999 की वाजपेयी सरकार की बस यात्रा से थमे सिलसिले को फिर पटरी पर लाने के जुमले उछालने शुरू कर दिए। विदेशी पत्रकारों को अपने आलीशान घर में खाने पर बुलाकर उन्होंने भारत से रिश्ते सुधारने की आतुरता दिखाई। लेकिन क्या बीते को भुलाया जा सकता है? जिस बस यात्रा की उन्होंने दलील दी वह तत्कालीन वाजपेयी सरकार के पड़ोसी देशों से रिश्ते सुधारने के ईमानदार प्रयासों की ही एक कड़ी थी। लेकिन उसके महज ढाई महीने बाद ही मुशर्रफ ने कारगिल का षड्यंत्र रचा था। तोलोलिंग और उससे सटी बर्फ ढकी दुर्गम पहाड़ी चोटियों पर हमारे नौजवान रणबांकुरों ने अपनी जान पर खेलकर देश के स्वाभिमान की रक्षा की थी। पाकिस्तान की राज्य–नीति ने तो भारत के खिलाफ 1947 से ही एक के बाद एक साजिशें रची हैं। चार बार भारत पर युद्ध थोपे और चारों बार उन्हें करारा तमाचा पड़ा। लेकिन पाकिस्तानी सोच में भारत के लिए जो नफरत गहरे पैठी है वह अपना कुरूप चेहरा लगातार दिखाती रही है। जिस मुल्क की बुनियाद ही इस सोच पर पड़ी हो कि 'मुस्लिम अलग देश हैं', उससे फिर और क्या उम्मीद की जा सकती है? डा. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान–या भारत का बंटवारा' में उसे एक सिरदर्द बताया था।
आज शरीफ जिन रिश्तों को सुधारने की दलीलें दे रहे हैं, उन्हें हमेशा से बिगाड़े रखने का काम तो पाकिस्तानी हुक्मरानों और वहां की फौज ने किया है। वह फौज जो षड्यंत्री आईएसआई के जरिए भारत को तार–तार करके 'दारुल इस्लाम' के सपने पाले है। जिसने घाटी के मुस्लिमों में जिहादी बीज रोपकर और भाड़े के आतंकवादियों को भेजकर कश्मीर में सदियों से बसे 6 लाख से ज्यादा हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर कर दिया था। जिन्ना की लीगी तकरीरों से खाद–पानी पाकर खुद को जिंदा रखने वाले वहां के कट्टर मुल्ला–मौलवियों ने मजहब के नाम पर भारत के मुस्लिमों में यहां के बहुसंख्यक हिन्दुओं के प्रति जहर रोपने का काम किया जो अब भी जारी है। उसी सोच में से निकला मुम्बई हमले (26 नवम्बर, 2008) का साजिशकर्ता जमात–उत–दावा का नेता हाफिज सईद इस्लामाबाद की सड़कों पर खुलेआम भारत के खिलाफ जहर उगलता है और पाकिस्तान सरकार उसके उस मुल्क में होने से ही इनकार करती है। दोस्ती के तराने गुनगुनाने वाले नवाज खुद उस पार्टी के हैं जिस पर तालिबानी ताकतों का कथित वरदहस्त है। उनकी सूरत पर भले मासूमियत हो पर उनके पीछे कौन सी ताकतें खड़ी हैं, हमें उसका भी अच्छे से पता होना चाहिए। इसके अलावा चीन जिस तरह से पाकिस्तान की पूरी सियासी जमात को मुट्ठी में किए हुए है हमें उस पर भी निगाह रखनी है। हमारे पश्चिमी सेक्टर में लद्दाख में भारत की सीमाएं इसी मौकापरस्त गठजोड़ के चलते संवेदनशील बनी हुई हैं। चीन धीरे धीरे, पर पूरी तैयारी के साथ हमारी जमीन कब्जाने की फिराक में है।
लोकतंत्र का बाना ओढ़े, कट्टर इस्लामी सोच में पगे पाकिस्तान के नए सियासतदानों के साथ दोस्ती की राह पर भारत सरकार तभी कदम बढ़ाए जब वे अपने दिमाग को जिहादी खोल से आजाद कर लें, जब वे जम्मू-कश्मीर के आतंकवादियों को 'स्वतंत्रता सेनानी' कहने से बाज आएं, जब वे पाकिस्तान की धरती पर चलने वाले आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को बंद कराएं, जब वे भारत को वे 20 वांछित अपराधी सौंपें जिनकी सूची सालों से उनको सौंपी हुई है, जब वे 26/11 के षड्यंत्रकारी हाफिज सईद को भारत के हवाले करें, जब वे स्वीकारें कि पीओके सहित पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और जब वे अपनी सेना और आईएसआई पर लगाम लगाएं। पाकिस्तान की दलीलों और करतूतों को गंभीरता से समझे बिना भारत की कांग्रेसनीत सरकार अगर नवाज के मीठे बोलों में उलझकर देशहित के विरुद्ध कोई कदम उठाती है तो वह जान ले, भारत की राष्ट्रभक्त जनता उसे इतिहास के गर्त में धकेल देगी।
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