जिहादी साए में रहेंगे नवाज?
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कट्टरवादियों, आई.एस.आई. और फौज पर कितना काबू रख पाएंगे नवाज?
11 मई को पाकिस्तान में सम्पन्न हुए आम चुनाव में भले ही नवाज शरीफ प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार बने हैं और जीत के फौरन बाद से भारत से 'दोस्ती' के कसीदे पढ़ रहे हैं। लेकिन सच यह है कि नवाज शरीफ किसी उदारवादी राजनीतिक दल या उदार पाकिस्तानी तबके का प्रतिनिधित्व नहीं करते। फिर भारत की पाकिस्तान से रिश्तों में बेहतरी की अपेक्षा क्यों?
पाकिस्तान में इस आम चुनाव को लेकर सामान्य तौर पर यह धारणा बनायी गयी कि वहां की जनता के समक्ष केवल दो विकल्प थे। एक यह कि वह खतरे अथवा भय के विकल्प को चुने अथवा अवज्ञा (तालिबानियों की) को। उसने अवज्ञा को चुना। लेकिन सवाल यह उठता कि क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ है? आखिर इसकी वजह तो पता करनी चाहिए कि पाकिस्तान का 70 से 80 प्रतिशत युवा, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था से कहीं अधिक मजहबी संस्थाओं और इस्लामी कानूनों (शरिया) पर भरोसा करता है, उसने लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में भाग क्यों लिया? उल्लेखनीय है कि चुनाव से ठीक पहले ब्रिटिश काउंसिल की एक सर्वे रपट 'नेक्स्ट जनरेशन गोज टू द बैलेट बॉक्स' ने माना था कि पाकिस्तान का 71 प्रतिशत युवा पाकिस्तान की सरकार, 67 प्रतिशत राष्ट्रीय संसद और 69 प्रतिशत राजनीतिक दलों में विश्वास नहीं रखता, जबकि 74 प्रतिशत युवा मजहबी व्यवस्था यानी शरिया का और 77 प्रतिशत सेना का समर्थक है। अब अगर इस विशाल युवा समूह ने मतदान किया भी होगा, तो किसके पक्ष में? स्वाभाविक रूप से उदार दलों के पक्ष में तो नहीं। फिर तो जिहादियों का वरद हस्त प्राप्त करने वाले दल ही शेष बचे। ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह शायद जिहादियों की तरकीब थी, जिसके जरिए चुनाव से उदारवादी दलों को बाहर रखा गया, जिसमें वे सफल भी हो गये। कहते हैं वहां तालिबानी इस कदर खिलाफ रहे कि बिलावल जैसे युवा नेताओं को देश छोड़कर जाना पड़ा। नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज और इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ जैसे अनुदार दलों को सफलता हासिल हुयी, जो मजहब को राजनीति का हिस्सा मानते हैं।
क्या इस कार्य-कारण सम्बंध को देखने के बाद भी भारतीय राजनय यह मानेगा कि पाकिस्तान का यह चुनाव एक निर्णायक मोड़ है? अगर है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि पाकिस्तान का समाज और अधिक उग्र होने के लिए तैयार हो रहा है।
नवाज शरीफ के साथ कई ऐसे पहलू रहे जो उन्हें सत्ता तक पहुंचाने में सहायक बने। पहला और महत्वपूर्ण पहलू रहा उनका पंजाब से सम्बंध, जहां से नवाज शरीफ को व्यापक समर्थन मिला है। दूसरा यह कि नवाज की पैठ उद्यमियों, परम्परागत वर्गों और रूढ़िवादियों में भी बहुत अच्छी है। ऐसे में इस बात की सम्भावना अधिक है कि नवाज शरीफ पर कट्टरवादियों का दबाव कायम रहेगा। सेना और आईएसआई भी अपनी लीक नहीं छोड़ेंगी। 15 मई को इस्लामाबाद में यूनाइटेड जिहाद काउंसिल और हिज्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सलाहुद्दीन ने नवाज की 'मीठी-मीठी' बातों पर जिहादी बोलों से चोट करते हुए कहा कि 'नवाज किसी मुगालते में न रहें। दिल्ली से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश करेंगे तो इस्लामाबाद में बैठने नहीं दिए जाएंगे।'
बहरहाल, एक मिनट के लिए मान भी लें कि नवाज शरीफ भारत के 'हितैषी' दिख रहे हैं। यहां दो बातों पर ध्यान देना जरूरी होगा। पहली यह कि पिछले नवाज मंत्रिमण्डल में विदेश मंत्री रहे सरताज अजीज की आत्मकथा बताती है कि परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ के मंत्रिमंडल को भरोसा दिलाया था कि वे 'एक हफ्ते में श्रीनगर को हासिल कर लेंगे' और इस पर नवाज शरीफ ने उन्हें आगे बढ़ने को कहा था। दूसरी यह कि नवाज शरीफ स्वयं भी कभी 'टेस्ट ट्यूब बेबी ऑफ जिया' कहे जाते थे। इसलिए नवाज को पहले स्वयं को बदलना होगा, फिर कट्टरवादियों की नकेल कसनी होगी और फिर सेना की, साथ ही आईएसआई व न्यायपालिका के साथ तालमेल बिठाना होगा। यदि ऐसा हो सका तो नवाज भारत की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाने में समर्थ हो पाएंगे अन्यथा नहीं। डा. रहीस सिंह
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