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लोग समझते हैं कि नौकरी से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति की मौज ही मौज है, पर इसमें कितनी मौज है और कितनी मौत, यह भुक्तभोगी ही जानता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'जाके पांव न पड़ी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।'
पिछले दिनों शर्मा जी भी उस परम गति को प्राप्त हो गये, जिसे हर कर्मचारी एक न एक दिन प्राप्त करता ही है। 40 साल तक जहां कलम घिसी, लोगों से लड़े और झगड़े, आज उसी दफ्तर में सबने उन्हें झूठी-सच्ची प्रशंसा की मालाओं से लाद दिया।
शर्मा जी के मुंह पर मुस्कान बिखरी थी, पर दिल में हाहाकार मचा था। जिस बॉस ने उन्हें कभी कुर्सी पर बैठने को नहीं कहा, उसने आज अपनी ए.सी. कार से उन्हें घर छुड़वा दिया। शर्मा जी जीवन की यह बाजी हारकर, हार और उपहारों से लदे-फंदे घर आ गये।
कुछ दिन तो अच्छे बीते, पर एक महीना बीतते-बीतते वे बोर होने लगे। हर दिन दस बजे उनकी उंगलियां फड़कने लगतीं। दफ्तर में तो हर घंटे चाय मिल जाती थी, पर यहां नाश्ते के बाद 'मैडम' शाम को ही चाय बनाती थीं। शर्मा जी की समझ में नहीं आ रहा था कि समय कैसे काटें ? झक मारकर उन्होंने मुझसे सलाह मांगी।
– शर्मा जी, आप कागज और कलम लेकर शांत मन से अपने अनुभव लिखें। इससे कुछ कहानियां, कुछ कविताएं और व्यंग्य से आगे बढ़ते हुए हो सकता है कोई अच्छा उपन्यास ही बन जाए।
– लेकिन वर्मा, मेरी इस क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। बचपन में प्रेमचंद की कहानियां पढ़ी थीं। उसके बाद तो मैदान साफ ही रहा।
– रुचि तो बनाने से ही बनती है शर्मा जी। आपने 'राग दरबारी' वाले श्रीलाल शुक्ल का नाम सुना होगा। उन्होंने सरकारी कार्यालयों में होने वाली लेटलतीफी पर जो उपन्यास लिखा, उससे उन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। मुझे विश्वास है कि आप भी वैसा ही नाम कमाएंगे।
– लेकिन वर्मा, मेरी हिन्दी बहुत अच्छी नहीं है। बोलते समय तो पता नहीं लगता, पर जब लिखने बैठता हूं, तो हाथ रूक जाता है। इतने तरह के तो 'र' हैं कि राम जी ही बचायें। इस बात का बड़ा खतरा है कि ग्रहदशा सुधारने के चक्कर में गृहदशा न बिगड़ जाए।
– शर्मा जी छोटी-मोटी गलती तो मैं ठीक कर दूंगा, पर बड़ी समस्या आई, तो अपने कानून मंत्री अश्विनी कुमार जी हैं न…।
– अश्विनी कुमार…..? पर उनका व्याकरण से क्या लेना-देना है ?
– लो कर लो बात। वे इस समय देश के सर्वश्रेष्ठ व्याकरणाचार्य हैं। पिछले दिनों उन्होंने व्याकरण सुधारने के लिए सी.बी.आई के मुखिया को एक रिपोर्ट लेकर अपने पास बुलाया था।
– वर्मा जी, फिर तो वह रपट बहुत अच्छी बन गयी होगी ?
– ये तो वही जानें, पर व्याकरण सुधारते हुए उन्होंने उसमें जो फेरबदल किया, उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी फटकार लगाई है। इससे बड़े-बड़े सरदार हांफ रहे हैं और रानियों के पैर कांप रहे हैं। युवराजों का तो कहीं अता-पता ही नहीं है। एक बड़े अधिकारी ने तो 'बलि का बकरा' बनने से मना करते हुए कुर्सी ही छोड़ दी है। इस मुद्दे पर हो रहे हंगामे से संसद की दीवारें हिल रही हैं।
– वर्मा जी, देश का सचमुच बहुत पतन हो गया है। कोई समय था कि राजा ही सर्वेसर्वा हुआ करते थे, पर आजकल…।
– शर्मा जी, पुराने राजाओं का तो पता नहीं, पर आजकल एक राजा ने सारी सरकार का बाजा बजा रखा है। चाको जी के छुरी-चाकुओं की धार बेकार हो गयी है। पी.चिदम्बरम् बिना पिये ही होश खो रहे हैं। सब दरबारी एक दूसरे को टांग मारते हुए इस जुगत में लगे हैं कि जैसे भी हो इस छत्ते की रानी मक्खी को कुछ न हो।
– क्या यह सब भी 'राग दरबारी' में है ?
– शर्मा जी, यह राग दरबारी नहीं, रोग दरबारी है। पहले तो सब दरबारी मिलकर रानी मक्खी को बचाते हैं, पर उसके खेत होते ही छत्ता छोड़कर भाग जाते हैं। नई हो या पुरानी, देशी हो या विदेशी, पर हर दरबार की यही कहानी है। ये पर्दे के आगे ही नहीं, पीछे भी चलती रहती है। यदि आप देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकांता संतति' जैसे उपन्यास पढ़ें, तो आप दरबारी राग और रोग सब समझ जाएंगे।
शर्मा जी उठकर चले गये। कई दिन से वे मिले भी नहीं। सुना है वे 'रोग दरबारी' नामक उपन्यास लिखने में व्यस्त हैं। विजय कुमार
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