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हम लोग औरों की तरह यह विश्वास नहीं करते कि जगत की सृष्टि केवल कुछ हजार वर्ष पहले हुई है और एक दिन इसका सदा के लिए ध्वंस हो जाएगा। साथ ही, हम यह भी विश्वास नहीं करते कि इसी जगत के साथ शून्य से जीवात्मा की भी सृष्टि हुई है। मैं समझता हूं कि इस विषय में भी हम सब सहमत हो सकते हैं। हमारा विश्वास है कि प्रकृति अनादि और अनन्त है, पर हां, कल्पान्त में यह स्थूल बाह्य जगत अपनी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होता है, और कुछ काल तक उस सूक्ष्मावस्था में रहने के बाद पून: उसका प्रक्षेपण होता है तथा प्रकृति नामक इस अनन्त प्रपंच की अभिव्यक्ति होती है। यह तरंगाकार गति अनन्त काल से-जब स्वयं काल का ही आरम्भ नहीं हुआ था तभी से-चल रही है और अनन्त काल तक चलती रहेगी। पुन: हिन्दू मात्र का यह विश्वास है कि मनुष्य केवल यह स्थूल जड़ शरीर ही नहीं है, न ही उसके अभ्यन्तरस्थ यह 'मन' नामक सूक्षम शरीर ही प्रकृत मनुष्य है, वरन प्रकृत मनुष्य तो इन दोनों से अतीत एवं श्रेष्ठ है। कारण, स्थूल शरीर परिणामी है और मन की भी वही हाल है, परन्तु इन दोनों से परे 'आत्मा' नामक अनिवर्चनीय वस्तु है जिसका न आदि है, न अन्त।
हम चाहे जिस सम्प्रदाय के हों, पर इस विषय में हम सभी सहमत हैं। इस आत्मा-परमात्मा के पारस्परिक सम्बंध के बारे में हमारे मत भिन्न हो सकते हैं। एक सम्प्रदाय आत्मा को परमात्मा से अन्त काल तक अलग मान सकता है, दूसरे के मत से आत्मा उसी अनन्त अग्नि की एक चिनगारी हो सकती है, और फिर अन्यों के मतानुसार वह उस अनन्त से एकरूप और अभिन्न हो सकती है। पर जब तक हम सब लोग इस मौलिक तत्व को मानते हैं कि आत्मा अनन्त है, उसकी सृष्टि कभी नहीं हुई और इसलिए उसका नाश भी कभी नहीं हो सकता, उसे तो भिन्न-भिन्न शरीरों से क्रमश: उन्नति करते-करते अन्त में मनुष्य शरीर धारण कर पूर्णत्व प्राप्त करना होगा-तब तक हम आत्मा एवं परमात्मा के इस सम्बंध के विषय में चाहे जैसी व्याख्या क्यों न करें, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।
आत्मा स्वभावत: ही पूर्ण है और यही प्राच्य और पाश्चात्य भावों के बीच एक ऐसा अन्तर डाल देता है जिसमें कहीं समझौता नहीं है। जो कुछ महान है, जो कुछ शुभ है, पौर्वात्य उसका अन्वेषण अभ्यन्तर में करता है। जब हम पूजा-उपासना करते हैं, तब आंखें बन्द कर ईश्वर को अन्दर ढूंढने का प्रयत्न करते हैं, और पाश्चात्य अपने बाहर ही ईश्वर को ढूंढ़ता फिरता है।
यह एक प्रधान बात है, जिसे अच्छी तरह समझ लेने की आवश्यकता है। मैं तुम लोगों से भी यह बात अच्छी तरह समझ लेने को कहता हूं कि जो व्यक्ति दिन-रात अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझे हुए बैठा रहेगा, उसके द्वारा कुछ भी नहीं हो सकता। वास्तव में अगर दिन-रात वह अपने को दीन, नीच एवं 'कुछ नहीं' समझता है तो वह 'कुछ नहीं' ही बन जाता है। यदि तुम कहो कि 'मेरे अन्दर शक्ति है' तो तुममें शक्ति जाग उठेगी। और यदि तुम सोचो कि 'मैं कुछ नहीं हूं', दिन-रात यही सोचा करो, तो तुम सचमुच ही 'कुछ नहीं' हो जाओगे। तुम्हें यह महान तत्व सदा स्मरण रखना चाहिए। हम तो उसी सर्वशक्तिमान परमपिता की सन्तान हैं, उसी अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियां हैं-भला हम 'कुछ नहीं' क्योंकर हो सकते हैं? हम सब कुछ हैं, हम सब कुछ कर सकते हैं, और मनुष्य को सब कुछ करना ही होगा। हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा-शक्ति ने उन्हें सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी पर चढ़ाया था।
आत्मविश्वासहीनता का मतलब है ईश्वर में अविश्वास। क्या तुम्हें विश्वास है कि वही अनन्त मंगलमय विधाता तुम्हारे भीतर से काम कर रहा है? यदि तुम ऐसा विश्वास करो कि वही सर्वव्यापी अन्तर्यामी प्रत्येक अणु-परमाणु में-तुम्हारे शरीर, मन और आत्मा में ओत-प्रोत हैं, तो फिर क्या तुम कभी उत्साह से वंचित रह सकते हों? उस कपिल महर्षि के सुन्दर दृष्टान्त का सदैव स्मरण रखो, जो शरीर त्याग करते समय अपने मन से अपने किए हुए उत्कृष्ट कार्यों और उच्च विचारों का स्मरण करने के लिए कहते हैं।' देखो, उन्होंने अपने मन से अपने दोषों और दुर्बलताओं को याद करने के लिए नहीं कहा है। यह सच है कि मनुष्य में दोष हैं, दुबर्लताएं हैं, पर तुम सर्वदा अपने वास्तविक स्वरूप का स्मरण करो। बस यही इन दोषों और दुर्बलताओं को दूर करने का अमोघ उपाय है।
हमें याद रखनी चाहिए, खेद है कि हम प्राय: भूल जाते हैं। वह यह कि भारत में धर्म का तात्पर्य है 'प्रत्यक्षानुभूति', इससे कम कदापि नही। हमें ऐसी बात कोई नहीं सिखा सकता कि 'यदि तुम इस मत को स्वीकार करो तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा, क्योंकि हम उस बात पर विश्वास करते ही नहीं। तुम अपने को जैसा बनाओगे, अपने को जैसे सांचे में ढालोगे, वैसे ही बनोगे। तुम जो कुछ हो, जैसे हो, वह ईश्वर की कृपा और अपने प्रयत्न से बने हो।'
धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति करनी होगी, केवल सुनने से काम नहीं चलेगा, तोते की तरह कुछ थोड़े से शब्द और धर्म विषयक बातें रट लेने से काम नहीं चलेगा, आवश्यकता है हमारे अन्दर धर्म के प्रवेश करने की। अत: ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखने का सबसे बड़ा प्रमाण यह नहीं है कि वह तर्क से सिद्ध है, वरन ईश्वर के अस्तित्व का सर्वोच्च प्रमाण तो यह है कि हमारे यहां के प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी पहुंचे हुए लोगों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया है। आत्मा के अस्तित्व पर हम केवल इसलिए विश्वास नहीं करते कि हमारे पास उसके प्रमाण में उत्कृष्ट युक्तियां हैं, वरन इसलिए कि प्राचीन काल में भारत वर्ष के सहस्रों व्यक्तियों ने आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन किए हैं, आज भी ऐसे बहुत से हैं, जिन्होंने आत्मोपलब्धि की है, और भविष्य में भी ऐसे हजारों लोग होंगे, जिन्हें आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति होगी। और जब तक मनुष्य ईश्वर के दर्शन न कर लेगा, आत्मा की उपलब्धि न कर लेगा, तब तक उसकी मुक्ति असम्भव है।
यदि हम एक बार इस बात को भलीभांति समझ ले कि 'प्रत्यक्ष अनुभूति' ही प्रकृत धर्म है तो हम अपने ही हृदय को टटोलेंगे और यह समझने का प्रयत्न करेंगे कि हम धर्मराज्य के सत्यों को उपलब्धि की ओर कहां तक अग्रसर हुए हैं। और तब हम यह समझ जाएंगे कि हम स्वयं अन्धकार में भटक रहे हैं और अपने साथ दूसरों को भी उसी अन्धकार में भटका रहे हैं बस, इतना समझने पर हमारी साम्प्रदायिकता और लड़ाई मिट जाएगी। यदि कोई तुमसे साम्प्रदायिक झगड़ा करने को तैयार हो तो उससे पूछो, 'तुमने क्या ईश्वर के दर्शन किए हैं? क्या तुम्हें कभी आत्मदर्शन प्राप्त हुआ है? यदि नहीं, तुम तो स्वयं अंधेरे में भटक रहे हो और मुझे भी उसी अंधेरे में घसीटने की कोशिश कर रहे हो? साभार : युवकों के प्रति पृष्ठ 198
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